बिहार के मदरसों की स्थिति अफ़सोसनाक, सामाजिक स्टीरियोटाइप से भी परेशान

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आज के समय में मदरसा नाम सुनते ही आपके दिमाग में एक ही चीज़ जायेगी कि एक ऐसी जगह जहां पर सिर्फ़ एक ख़ास संप्रदाय से जुड़े बच्चों को धार्मिक शिक्षा दी जाती है. शायद आपको ये जानकार हैरानी होगी कि बिहार के मदरसों से कई यूनिवर्सिटी के कुलपति, आईएएस अधिकारी और मंत्री अपनी पढ़ाई कर चुके हैं. पंजाब के पूर्व डीजीपी इज़हार आलम, आईएएस अहमद हुसैन, पूर्व मंत्री अब्दुल गफूर, मिथिला यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति डॉ. अब्दुल मोगनी, जेएनयू में प्रोफेसर ख्वाजा इकरामुद्दीन जैसे कई लोगों ने अपनी पढ़ाई बिहार के मदरसों से पूरी की है. लेकिन आज के समय में बिहार के मदरसों की स्थिति इतनी ख़राब क्यों है?

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पूरे बिहार में कई मदरसे मौजूद हैं लेकिन बिहार मदरसा एजुकेशन बोर्ड से केवल 1,942 मदरसे जुड़े हुए हैं. इसमें से सिर्फ़ एक सरकारी मदरसा है, मदरसा शम्सुल हुदा, जो पटना में मौजूद है और बाकी मदरसे सरकारी अनुदान पर चलने वाले मदरसे हैं. मदरसों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए बिहार सरकार कई सालों से दावे ही करते जा रही है लेकिन हकीकत उससे परे है. पिछले साल भी अल्पसंख्यक कल्याण विभाग ने मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए 86.71 करोड़ रूपए ख़र्च करने की बात कही थी. फिर बाद में कोरोना की बात कह कर ये राशि इस साल के बजट में रखने की बात कही गयी थी. लेकिन सरकार की मंशा पर सवाल इस वजह से खड़े हो जाते हैं जब बिहार सरकार के मंत्री मदरसों को बंद करने की बात कहते हैं. बिहार सरकार के मंत्री और भाजपा के बड़े लीडर नीरज कुमार मदरसों की पढ़ाई को देशद्रोही कह कर उसे बंद करने की बात कहते हैं. मंत्री नीरज कुमार कहते हैं

मदरसा को संचालित करने के लिए बिहार सरकार पैसे देती है लेकिन उन्ही पैसों से जब देश विरोधी बातें मदरसों में पढ़ाई जाए और धर्म विशेष के खिलाफ लगातार बच्चों के मन में जहर भरा जाए तो ये ना सिर्फ बिहार के लिए बल्कि देश के लिए भी ठीक नहीं है.

बिहार सरकार के दूसरे मंत्री जीवेश मिश्रा भी कहते हैं-

हम मदरसा के खिलाफ नहीं हैं लेकिन ये देखना भी दिलचस्प है की अधिकांश मदरसों में कैसी पढ़ाई होती है. आखिर क्या वजह है कि जब भी कोई घटना घटती है तो उसमे मदरसा का कोई ना कोई कनेक्शन जरूर निकल आता है.

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मदरसों को लेकर स्टीरियोटाइप है कि इसमें सिर्फ़ धार्मिक पढ़ाई ही होती है. इसे लेकर डेमोक्रेटिक चरखा की टीम ने मधुबनी के एक मदरसे के शिक्षक मौलाना फ़िरोज़ से बात की. उन्होंने बताया

ये ग़लतफ़हमी है कि हम लोग बच्चों को सिर्फ़ उर्दू, अरबी और कुरआन ही पढ़ाते हैं. जो भी ये कहते हैं कि मदरसों में सिर्फ़ दीनी पढ़ाई होती है वो बिहार मदरसा एजुकेशन बोर्ड का सिलेबस ही देख लें. हम बच्चों को साइंस, मैथ्स, इंग्लिश, हिन्दी सभी विषय पढ़ाते हैं. मदरसों की बंद करने की जो बात चल रही है उसमें आतंकवाद का सिर्फ़ ठप्पा लगाना है. सरकार का मकसद आर्थिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों को पढ़ाई से दूर करना है.

बिहार के मदरसों में 20 हज़ार से अधिक अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चे पढ़ाई करते हैं. इन बच्चों के घरों की अगर आर्थिक स्थिति पर ध्यान दें तो ये देखने को मिलता है कि सभी आर्थिक रूप से बहुत कमज़ोर हैं और मदरसा ही उनके पढ़ाई का आख़िरी रास्ता है. साल 2015 में भी मदरसों की आधुनिकीकरण की मांग उठी थी. उस समय अल्पसंख्यक मामलों की केन्द्रीय मंत्री नजमा हेपतुल्लाह ने बिहार के 3 मदरसों को 3.6 करोड़ रूपए देने की घोषणा की थी. उस समय उन्होंने एक हाथ में कुरआन और दूसरे हाथ में कंप्यूटर की बात कही थी. इस बात को 7 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी 70% से अधिक मदरसों में कंप्यूटर क्या पर्याप्त संख्या में शिक्षक भी मौजूद नहीं हैं.

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बिहार के मदरसों में शिक्षकों और मूलभूत संरचना की कमी के बारे में मुफ़्ती हसन रज़ा अमजदी डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए बताते हैं

“सरकार मदरसों को शैक्षणिक संस्थान के तौर पर नहीं बल्कि एक ख़ास समुदाय के संस्थान के तौर पर देख रही है. जब की ये किसी एक समुदाय का संस्थान नहीं है. इतिहास में कई समुदाय के लोग इससे शिक्षा हासिल कर चुके हैं. आज के समय में जहां ग्रामीण इलाकों में स्कूलों की स्थिति एकदम ठीक नहीं है या स्कूल मौजूद नहीं है वहां के बच्चे आज भी मदरसों से ही अपनी शिक्षा के लिए उम्मीद लगाये रहते हैं.”

मदरसे हमेशा मूलभूत संरचना से जूझते रहते ही हैं लेकिन इसके साथ ही वो सामाजिक संरचना से भी जूझते रहते हैं. बिहार में मदरसों को ‘आतंकी’ ट्रेनिंग से जोड़ने की बात हालिया दिनों में काफ़ी बढ़ चुकी है. सीतामढ़ी के 60 मदरसों पर साल 2016 में जांच बैठा दी गयी. अचानक इस मदरसे से जुड़े सभी लोगों को बिना तनख्वाह छुट्टी दे दी गयी. 6 साल हो चुके हैं और आज भी इन लोगों को इनकी तनख्वाह नहीं मिली है. इसके बारे में बताते हुए मुफ़्ती हसन रज़ा बताते हैं

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“सीतामढ़ी के 60 मदरसों पर सरकार ने जांच के आदेश दे दिए. उसके बाद से वहां से जुड़े जितने भी लोग थे उन्हें 6 सालों से कोई पैसे नहीं मिले हैं. कभी सरकार ने सोचा है कि उनका घर कैसे चलता होगा? जब हम लोग ऐसे कई मसलों को लेकर सरकार के शिक्षा मंत्री विजय कुमार चौधरी से 13 अप्रैल 2022 को मिलते हैं तो वो कहते हैं कि हम मुसलमानों और उर्दू का काम नहीं करेंगे.”

डेमोक्रेटिक चरखा की टीम ने इन मसलों के बारे में जानने के लिए बिहार सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री ज़मां खां से बात करने की कोशिश की. रमज़ान के दौरान अपनी व्यस्तता के कारण मंत्री ज़मां खां ने लम्बी बातचीत नहीं की लेकिन इस पूरे मामले पर समग्र रूप से टिप्पणी करते हुए कहते हैं-

मदरसों के कल्याण के लिए हम लोग कार्यरत हैं और जल्द ही हम लोग मदरसों का आधुनिकीकरण करेंगे. इसके लिए विस्तृत जानकारी के लिए आप रमज़ान के बाद मिलिए तो हम रोडमैप भी शेयर करेंगे लेकिन इस मसले पर समुदाय को निश्चिंत रहना चाहिए.

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जहां एक ओर सरकार के मंत्री और महकमे के लोग आधुनिकीकरण की बात कह रहे हैं वहीं मदरसों की स्थिति इस ओर जाती नहीं दिख रही. बिहार में मार्च 2022 तक लगभग 800 मदरसों को मिलने वाला सरकारी अनुदान समय पर नहीं मिलने की वजह से शिक्षकों की तनख्वाह नहीं मिली है. बिहार के एकलौते सरकारी मदरसे शम्सुल हुदा मदरसा में शिक्षकों की नियुक्ति ज़माने से नहीं हुई है. इस मदरसे में कक्षा 1 से लेकर MA तक की पढ़ाई होती है. इस संस्थान के जूनियर विंग यानी 1 से लेकर दसवीं तक के लिए यहां पर सिर्फ़ एक ही शिक्षक मौजूद हैं, जो अब रिटायर होने वाले हैं. इस वजह से अब इस संस्थान में कोई भी शिक्षक नहीं रहेंगे.

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सरकार जो बातें कह रही है और जो काम कर रही है दोनों में काफ़ी अंतर है और अफसोसनाक भी.