“मैं नहीं चाहता कि मेरा बेटा या आने वाली पीढ़ी खेती-किसानी करे.” बिहार के किसानों की दास्तां

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बिहार में किसानों की क्या स्थिति है इस बात पर बिहार की राजधानी पटना के प्रेम कुमार कहते हैं,

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खेती में कोई क्या ही खुश रहेगा? हमें खेती करने के बाद सिर्फ 5 हज़ार से 7 हज़ार रूपए का ही मुनाफ़ा हो पाता है. धान तो फिर भी पैक्स ख़रीद लेती है लेकिन गेंहू की तरफ तो पैक्स वाले देखते भी नहीं. पूरा का पूरा धान बिचौलियों को ही बेचना पड़ता है. खेती अब सिर्फ़ और सिर्फ़ घाटे का सौदा बनकर रह गया है. मैं नहीं चाहता कि मेरा बेटा या आने वाली पीढ़ी खेती-किसानी करे.

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(प्रेम कुमार)

प्रेम कुमार बिहार की राजधानी पटना के बिक्रम में गेहूं और धान की खेती करते हैं. उनके खेत के बगल में ही पैक्स का गोदाम है. पैक्स यानी प्राइमरी एग्रीकल्चर कॉपरेटिव सोसाइटीज़. इसका गठन साल 2008 में हुआ था और इसके 12 सदस्यों के लिए पंचायत स्तर पर चुनाव होते हैं.

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सरकार ने पैक्स का गठन इस उद्देश्य से किया था कि वो किसानों से अनाज ख़रीदेगी, फ़सल बीमा को लेकर मदद करेगी, खाद मुहैया करवाएगी ताकि कृषि को एक मुनाफ़े का व्यवसाय बनाया जा सके और किसानों को लाभ मिल सके.

बिहार में फ़िलहाल सभी पंचायतों में 8,624 पैक्स समितियां हैं. इसके अलावा 534 ब्लॉक में व्यापार मंडल सहयोग समितियां हैं. लेकिन बिहार के किसान कहते हैं कि उन्हें इस सिस्टम से कोई फ़ायदा नहीं पहुंच रहा.

बिहार की 77% आबादी खेती के कामों से जुड़ी हुआ है. राज्य की जीडीपी में कृषि का योगदान लगभग 18-19 फ़ीसद है. लेकिन कृषि का अपना ग्रोथ रेट लगातार कम हुआ है. साल 2005-2010 के बीच ये ग्रोथ रेट 5.4 फ़ीसद था, 2010-14 के बीच 3.7 फ़ीसद हुआ और अब 1-2 फ़ीसद के बीच है.


और पढ़ें- पूर्णिया में बढ़ा उत्पादन बाकी इलाके में किसान क्यों छोड़ रहे मक्का की खेती?


साल 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान एनडीए के चुनाव प्रचार में आये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि बिहार के किसानों की स्थिति काफ़ी अच्छी है और बिहार में जो कृषि सुधार किए गए हैं वही सुधार पूरे देश में  किये जायेंगे. उस समय बिहार में नीतीश कुमार बीजेपी के साथ सरकार चला रहे थे. इसलिए तत्कालीन सरकार ने किसानों को मिलने वाली केंद्रीय मदद की तारीफ़ भी की. हालांकि अब बिहार राज्य सरकार इस बात पर बार-बार ज़ोर देती है कि बिहार के किसानों को केंद्रीय मदद नहीं मिलती है.

साल 2006 में बिहार में मंडी व्यवस्था को ख़त्म कर दिया. और उसके बाद पैक्स को ये अधिकार दिया कि वो किसानों की फ़सल को ख़रीदें. इसी साल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फ़सल के ख़रीद की सीमा को भी बढ़ा दिया है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार का ये मानना है कि बिहार में कृषि सुधारों के लिए माकूल कदम उठाये गए हैं और उससे किसान काफ़ी ख़ुश हैं.

बिहार के गोपालगंज में गन्ने की खेती काफ़ी होती है. चीनी मिल भी मौजूद है. लेकिन अभी के समय में चीनी मिल बंद होते जा रहे हैं. नीतीश सरकार के कृषि मंत्री अमरेन्द्र प्रताप सिंह से जब हमलोगों ने इस बारे में बात करनी चाही तो उन्होंने साफ़ तौर पर इंकार कर दिया.



गोपालगंज में गन्ने की खेती करने वाले रामेश्वर ने बताया कि उन्होंने साल 2020 में उनके गन्ने की ख़रीद की पूरी रकम अभी तक चीनी मिल वालों ने नहीं की है. विष्णु शुगर मिल से बात करने पर उन्होंने बताया कि

किसानाें का 189 करोड़ 10 लाख 66 हजार रुपए का गन्ना की खरीदा गया था। जिसमें से 31 मई, 2020 तक 104 करोड़ 36 लाख 79 हजार रुपए का भुगतान किया है। उसके बाद भी लगभग 85 करोड़ रुपए किसानों का बकाया गया है। गन्ना किसानों का भुगतान धीरे धीरे किया जा रहा है।

लेकिन शुगर मिल किसानों के भगतान में इतना समय क्यों लगा रहा है? इसका कारण बताते हुए एक और गन्ना किसान अशोक बताते हैं कि

हमारे बाबूजी (पिता) बताते हैं कि गोपालगंज में एक समय में कई चीनी मिल हुआ करते थे. लेकिन कई मिल अब बंद हो चुके हैं. 1 साल पहले एक बड़ा चीनी मिल सासामुसा मिल भी बंद हो चुका है.

 ठीक यही स्थिति सीवान के चीनी मीलों की हो चुकी है. वहां पर भी कई चीनी मिल बंद हो चुके हैं और जो कुछ बचे हुए हैं वो भी जर्जर स्थिति में कभी भी बंद होने की स्थिति में पहुंच चुके हैं.

बिहार की राजधानी पटना में भी किसानों की स्थिति बाकी के किसानों से ज़रा सा भी अच्छी नहीं है. बल्कि पटना में किसान कम और खेतिहर मजदूरों की संख्या अधिक है. पटना के बिक्रम इलाके में हमारी मुलाक़ात ऐसे ही कई खेतिहर मज़दूरों से हुई. उनसे हमलोगों ने पूछा कि मज़दूरी के लिए उन्हें कितने पैसे मिलते हैं तो किशोर राम ने बताया कि वो बोझा पर मज़दूरी करते हैं. हर आठ बोझे में से एक बोझा उनका होता है. किशोर राम ने बताया कि उन्हें मज़दूरी से उतना ही अनाज मिल पाता है जितने में उनका घर चल पाए. उस अनाज को बेच कर वो कुछ भी कमा नहीं सकते हैं.

लेकिन अगर पैसे नहीं हैं तो फिर किशोर राम और उनके जैसे बाकी के खेतिहर मज़दूर अपने जीवन के बाकी कामों के लिए पैसों का प्रबंध कैसे करते हैं?

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इसपर सोनू कुमार जो किशोर राम के बेटे हैं उन्होंने बताया कि

रबी के फ़सल के दौरान उनका पूरा परिवार खेतिहर मज़दूरी करता है और उसके बाद फिर वो अलग-अलग जगह पर मज़दूरी करते हैं जहां से उन्हें पैसे मिलते हैं. 

बिक्रम के मनेर तेलपा पैक्स के अध्यक्ष रितेश कुमार बताते हैं कि

सरकार की ओर से धान की फ़सल के लिए 1868 रूपए प्रति क्विंटल दाम तय किया गया है. पहले धान को पैक्स के गोदाम तक लाने के लिए सरकार की तरफ़ से बोरा भी दिया जाता था लेकिन अब इसके जगह पर 52 रूपए दिए जाते हैं. ये ऐसे 52 रूपए हैं जो किसानों के खातों में कभी नहीं पहुंचते. और किसानों को सबसे ज़्यादा दिक्कत गेहूं की बिक्री में होती है. क्योंकि पैक्स गोदाम में गेंहू को स्टोर करने की कोई भी व्यवस्था नहीं है. सरकार बस ऊपर से बैठकर आदेश निकालती है लेकिन कोई रिसोर्स नहीं देती.

इसके अलावा अगर आप बिक्रम इलाके में दूसरे पैक्स के गोदामों में जायेंगे तो भारी अनियमितता देखने को मिलेगी. बिक्रम में दनारा कटरी, मोरियावा शिवगढ़, दतियाना के गोदामों में अभी तक किसी भी तरह की कोई ख़रीद नहीं की गयी है. वहां के किसानों से बात करके पता चला कि इन इलाकों के पैक्स अध्यक्ष अधिकांश समय गायब ही रहते हैं. दतियाना के कई किसान मनेर तेलपा के पैक्स अध्यक्ष रितेश कुमार से आग्रह करते हैं कि वो उनके भी फ़सल की ख़रीद करें. लेकिन उनके फ़सल को खरीदना रितेश कुमार के अधिकार क्षेत्र में नहीं है.

2016 में नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस यानी एनएसएसओ ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि किसानों की औसत मासिक आय 6,426 रुपये है और सालाना 77,112 रुपये. ये आंकड़ा जुलाई 2012-जून 2013 के बीच का है.

नाबार्ड ने भी 2016-2017 की अपनी सर्वे रिपोर्ट में बताया कि किसानों की औसत मासिक आय 8,931 रुपये है.

बिहार के किसानों की कहानी जारी रहेगी अगले अंक में.

(ये डेमोक्रेटिक चरखा की ख़ास प्रस्तुति ‘बिहार के किसानों की दास्तां’ का पहला अंक है. हर महीने बिहार के किसानों पर एक सीरीज़ प्रकाशित की जायेगी.)