लालू की धर्मनिरपेक्षता की विरासत, तेजस्वी के लिए बन रही है बड़ी चुनौती
लालू प्रसाद यादव और उनकी धर्मनिरपेक्षता के प्रति निष्ठा
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव धर्मनिरपेक्षता के प्रति कितने निष्ठावान हैं, इससे हर कोई वाकिफ़ है। लालू ने हमेशा धर्मनिरपेक्षता का समर्थन किया। वहीं उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसकी शाखाओं से किसी तरह का संबंध रखने से इंकार कर दिया।
वही बात करें यदि देश के अन्य राजनीतिक दलों की तो उन्होंने कड़ी प्रतिद्वंद्विता को देखते हुए या फिर राजनीतिक मजबूरियों की वजह से भाजपा से हाथ मिलाना मुनासिब समझा। लेकिन इन्हीं दलों के बीच में राजद सुप्रीम और लालू सबसे दुर्लभ रहे। उनकी सबसे खास विशेषता यह थी कि उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपनी दृढ़ निष्ठा रखी। वहीं उन्होंने हिंदुत्व और बहुसँख्यावाद की राजनीति को चुनौती दी।
क्या लालू की धर्मनिरपेक्षता की रणनीति तेजस्वी पर है बोझ?
वहीं दूसरी और लालू प्रसाद यादव के बेटे और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव ने अपने ही पिता की राजनीति और चुनावी सफलताओं को दोहराने का प्रयास किया। इसके साथ ही उन्होंने भाषण कला सीखी और वही लोगों से जुड़ने का प्रयास भी किया।
लेकिन उन्होंने सावधानीपूर्वक जातीय गणित को भी साधने की कोशिश की। धर्म के मुद्दे पर अपने पिता की धर्मनिरपेक्षता की छवि को बनाए रखना तेजस्वी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। अक्सर देखा गया है कि तेजस्वी ऐसे जोखिम लेने से बचते नजर आए हैं। वहीं उन्होंने राजनीतिक मुद्दों पर भी सतर्कता बरती है। इसका पता हमें अयोध्या राम मंदिर मामले से चल सकता है, जहां उन्होंने अदालत के फैसले का स्वागत किया। हालांकि इसके साथ ही उन्होंने अपने पिता की छवि को बनाए रखने के लिए यह भी जोड़ा कि, “अब राजनीति को विकास पर फोकस करना चाहिए।“
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इसका एक और उदाहरण बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में भी देखने को मिलता है, जहां पर आरोपियों के बरी किए जाने के मामले में अन्य विपक्षी दलों की तरह तेजस्वी ने एहतियातन चुप्पी साधे रखी। जहां लालू प्रसाद यादव ने बहुसंख्यवाद की राजनीति का विरोध दर्शाया, वहीं तेजस्वी ने उनको नाराज करने का जोखिम नहीं उठाया।
अन्य विपक्षी दलों से लालू का अलग रुख
देश के विपक्षी दलों ने अपनी सत्ता की चाहत को बरकरार रखते हुए अपनी पार्टी की विचारधारा की बली चढ़ाई और राजनीतिक समीकरण बनाते हुए भाजपा से गठजोड़ किया। लेकिन वही लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी ने कभी भी भाजपा को एक विकल्प के तौर पर नहीं देखा।
इसी कड़ी में यदि देखा जाए तो देश की सबसे बड़ी विपक्षी कहे जाने वाली पार्टी यानी कि कांग्रेस ने भी यही किया है। इसका उदाहरण 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी का ‘जनेऊधारी ब्राह्मण’ होने पर जोर देना शामिल है।