नेशनल कामधेनु आयोग कराने जा रहा राष्ट्रीय गौ साइंस एग्जाम
राष्ट्रीय गौ साइंस एग्जाम
सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय कामधेनु आयोग गायों के महत्व के बारे में लोगों की “जिज्ञासा” और गौ जातीय प्रजातियों के बारे में उन्हें “जागरूक और शिक्षित” करने के प्रयास में, सरकार ने 25 फरवरी गाय विज्ञान पर एक राष्ट्रव्यापी स्वैच्छिक ऑनलाइन परीक्षा राष्ट्रीय गौ साइंस एग्जाम आयोजित करने की योजना बनाई है।
इससे पहले आयोग ने अपने आधिकारिक वेबसाइट पर इस परीक्षा केलिए सिलबस भी जारी किया है और इस सिलेबस के सामने आने के बाद से ही विज्ञान का नाम लेकर कर किए गए गायों पर दावे पर सवाल उठने लगे है।
परीक्षा चार कैटेगरी में आयोजित की जाएगी
राष्ट्रीय कामधेनु आयोग (आरकेए) के अध्यक्ष वल्लभभाई कथीरिया ने कहा कि परीक्षा कामधेनु गौ-विज्ञान प्रचार-प्रसार परीक्षा का विषय होगा “गाय”। इस परीक्षा में प्राथमिक स्तर कक्षा आठवीं तक, दूसरी कैटेगरी में नौंवी से 12वीं तक के स्टूडेंट्स, कॉलेज और विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए तीसरी कैटेगरी है और चौथी सभी के लिए खुली होगी। जिसमें न केवल भारतीय नागरिक बल्कि कोई भी हिस्सा ले सकता है।
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गाय के दूध में सोना होने और गाय के कत्तल से भूकंप आने के दावे
विज्ञान के पाठ्यक्रम में कामधेनु आयोग में जो दावे किए गए हैं वह दिलचस्प हैं। कामधेनु आयोग की वेबसाइट पर अपलोडेड सिलेबस के मुताबिक दावा किया गया है कि भूकंप आने का मुख्य कारण गौ हत्या है। जानवरों को काटने से उठी कराह और उससे उत्पन्न दर्द की लहरें जमीन के भीतर चट्टानों पर बुरा असर डालती हैं। इससे भूकंप आते हैं।
भारतीय देसी गाय गंदगी से रहती है दूर वहीं जर्सी गए होती है आलसी और बीमार: सिलेबस
वहीं देसी और जर्सी गाय के अंतर के बारे में बात करते हुए लिखा गया है कि जर्सी गायो के दूध में गुणवत्ता बहुत कम होती है वहीं देसी गायों के दूध का रंग हल्का पीला होता है क्योंकि इसमें सोना होता है। इसके अलावा यह भी दावा है कि देशी गाय अनजान लोगो को देख कर खड़ी हो जाती है क्योंकि उनमें भावनाएं होती है जबकि जर्सी गायों में भावनाएं नहीं होती है।
भोपाल गैस ट्रेजडी में गायों का रोल और अफ्रीकी द्वीप के गंजे होने का भी जिक्र
आयोग ने मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में हुए गैस ट्रेजडी को लेकर भी बेहद रोचक तथ्य दिए हैं। पाठ्यक्रम में बताया गया है कि 1984 में भोपाल में हुए यूनियन कार्बाइड गैस लीक कांड में 20,000 से ज्यादा लोग मारे गए थे। लेकिन जो लोग गोबर से लिपी-पुती दीवारों वाले घरों में रह रहे थे। उनपर इस गैस लीक का असर नहीं हुआ था। सिलेबस बताता है कि आज भी भारत और रूस में परमाणु ऊर्जा केंद्रों में गोबर का इस्तेमाल विकिरण से बचने के लिए किया जाता है।
वहीं अफ्रीका के बारे में एक तथ्य यह दिया गया कि हजारों वर्षों से अफ्रीकी लोग गोबर के केक का उपयोग ईंधन के रूप में करते थे। 18 वीं और 19 वीं शताब्दी में मिशनरियों ने उन्हें इस ‘असभ्य’ प्रथा को छोड़ना सिखाया। लोगों ने ईंधन के लिए जंगलों की ओर रुख किया और कुछ ही समय में महाद्वीप गंजा हो गया।