लौंडा नाच, बिहार की लुप्त होती नृत्य शैली जिसे अश्लील का दर्जा दे दिया गया
लोककला के क्षेत्र में बिहार की संस्कृति बहुत उर्वर रही है। चाहे मिथिला हो या अंग, मगध हो या फिर भोजपुरी हर क्षेत्र की अपनी एक विशिष्ट कला विरासत रही है। यहां मधुबनी पेंटिंग से लेकर कठ घोड़वा, करमा, झिझिया, विद्यापत और लौंडा नाच की भी शैली है। सोचनीय यह कि जहां एक तरफ ऐसी शैली भी है जिसे देश-विदेश में लोग जानते हैं, वहीं एक दूसरी शैली ऐसी भी है, जिसे लोग जानते तो हैं लेकिन इसके लिए नकारात्मक सोच भी रखते हैं। जबकि ऐसी बात नहीं है। यह शैली है लौंडा नाच। वस्तुत: यह ऐसी शैली है जिसमें पुरूष कलाकार औरतों के चरित्र को उनकी ही भाव भंगिमा में प्रदर्शित करते हैं। दुर्भाग्य यह कि कभी विस्तृत रही शैली आज खुद अपनी बेहतरी की राह देख रही है।
और पढ़ें- आयुष्मान कार्ड बनाने की गति काफी धीमी, केवल 15% ही हुआ कार्य
दरअसल लौंडा नाच केवल बिहार से ही ताल्लुक नहीं रखता है। बिहार व इसके भोजपुरी क्षेत्रों से सटे दूसरे राज्यों के इलाके, जिनकों पूर्वांचल के नाम से जाना जाता है, उन क्षेत्रों में यह शैली जानी जाती है जो काफी लोकप्रिय है। कभी ऐसा भी वक्त था कि इन इलाकों में यह शैली जबरदस्त पॉपुलर थी। लौंडा नाच मंडली के ग्रुप हुआ करते थे, जिन्हे लौंडा नाच पार्टी कहा जाता था। कालांतर में सिनेमा व आर्केस्ट्रा के आ जाने से इस नाच शैली के हालात खराब होते चले गए। भोजपुरी के शेक्सपियर के नाम से जाने जाने वाले प्रसिद्ध भोजपुरी नाटककार, एक्टर व सूत्रधार भिखारी ठाकुर के बारे में भी बताया जाता है कि उनकी नाच मंडली भी एक तरह से लौंडा नाच मंडली ही थी, जिसमें पुरूष कलाकार औरतों की वेष में अपनी कला का प्रदर्शन करते थे।

पटना के प्रसिद्ध थिएटर आर्टिस्ट व जाने माने अभिनेता परवेज अख्तर कहते हैं, इस शैली के साथ सबसे बडी विडंबना यह है कि इसे जिसने भी जानने की कोशिश की, उसने गहराई से जानने की कोशिश नहीं की। जिसने जो भी जानकारी हासिल की, वह समाज में प्रचलित धारणा के ही अनुरूप रही। इससे इस शैली को लाभ के तुलना में हानि ज्यादा हुई। वह कहते हैं, वस्तुत: लौंडा नाच में नाच कम, नाटक ज्यादा होता है। देश के प्राय: जितनी भी नृत्य शैलियां हुई, शुरूआती दौर में उनमें महिलाओं का चरित्र भी पुरूष ही निभाते थे। क्योंकि महिलाएं अभिनय नहीं करती थी। इसमें भी वही था।

लौंडा नाच शैली में अपना सबकुछ झोंक देने वाले कलाकार कुमार उदय सिंह, इसे लेकर अलग ही दर्द बयान करते हैं। वह कहते हैं, दरअसल इस शैली को अश्लीलता की नजर से शुरू से ही देखा गया। जबकि ऐसा कतई नहीं है। मूलरूप से नालंदा के निवासी उदय बताते हैं। यह मेरे लिए कला है और इसकी साधना में मैंने बहुत कुछ झेला है। हालांकि वह इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि इस नृत्य शैली को लेकर अब जाकर कुछ नजरिया बदला है। वह बताते हैं, यह मेरा जुनून है और इसके लिए मैं बचपन से ही अलग तरह के व्यवहार को झेलता रहा हूं। इससे जब मेरा लगाव हुआ तो घर में पिटाई भी हुई। यहां तक की मुझे घर से बाहर कर दिया गया। लेकिन जब घरवालों को यह अहसास हुआ कि लौंडा नाच को मैं नहीं भूल सकता, तब वह भी मान गए।

लौंडा नाच से ही भारत सरकार से स्कॉलरशिप हासिल करने वाले उदय कहते हैं, मैं आज भी यही सोचता हूं कि आखिर क्यों लोग इस शैली को अच्छी नजर से नहीं देखते हैं। जबकि यह हमारी संस्कृति है। वह कहते हैं, यह शैली भोजपुरी क्षेत्रों में ज्यादा प्रचलित है जबकि मैं मगही क्षेत्र से ताल्लुक रखता हूं। हमारे यहां दूर-दूर तक इसको जानने वाला कोई नहीं है लेकिन मेरा जुनून है कि क्षेत्र कभी आड़े नहीं आया। बता दें कि कुमार उदय सिंह का नाम उन कलाकारों में शामिल है जिनको लौंडा नाच के लिए राज्य सरकार की तरफ से बिहार कला सम्मान से भी नवाजा गया है।

भिखारी ठाकुर का जिक्र करते हुए परजेव अख्तर कहते हैं, उन्होंने देश विदेश की यात्राएं की। लौंडा नाच के लिए उन्होंने बहुत कार्य किए थे। उन्होंने नाच के अलग-अलग फॉर्म को और बेहतर किया साथ ही गीत व नाटक का भरपूर प्रयोग किया। वह यह भी कहते हैं, यह भी है कि भिखारी ठाकुर इसे लौंडा नाच नहीं बल्कि खेल तमाशा कहते थे। उनको नाच के नाम से चिढ जैसी थी। वह कहते हैं, पुरानी शैली है जिसे लोगों से जुडी हुई है। सरकारी स्तर पर कई शैलियों को संरक्षित किया जाता रहा है। इस शैली को भी प्रॉपर संरक्षण की जरूरत है। जनमानस को भी इसके बारे में और जानकारी हासिल करने की जरूरत है।
लौंडा नाच के कलाकारों का अगर जिक्र करें तो इसमें रामचंद्र मांझी, लखिचंद, सुदामा पांडेय का भी नाम सम्मान से लिया जाता है। इनमें रामचंद्र मांझी को भी हाल ही में बिहार सरकार की तरफ से राजकीय सम्मान से सम्मानित किया गया था।
सरकार ने बिहार के कला को बढ़ावा देने के लिए जो योजनाएं बनायीं हैं, वो नाकाफी है। सामाजिक दंश झेल रहे बिहार की कला के प्रति सरकारी उदासीनता उसे और कमजोर बनाने का काम कर रही हैं। वक्त की मार झेल रहे इस नाच शैली को लेकर जितनी जानकारी लोगों के पास थी शायद उससे इस शैली को नुकसान ही हुआ। हालांकि बदलते वक्त में इसके तरफ लोगों का ध्यान जरूर गया है लेकिन शायद यह काफी नहीं है। यही कारण है कि एक तो इस शैली के कलाकारों की गिनती बहुत कम है वहीं दूसरी तरफ शैली व कलाकारों के प्रोत्साहन के लिए किए जा रहे प्रोत्साहन कार्य में और बेहतरी की जरूरत है।