साहिर लुधियानवी ने मोहब्बत से लेकर समाज तक सभी पर बहुत गहराई से लिखा है। उन्होंने बचपन से ही जीवन की कठोर वास्तविकता का अनुभव किया था।
“दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को ना बेचा जाएगा
चाहत को ना कुचला जाएगा, इज़्ज़त को न बेचा जाएगा
अपने काले करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी
वो सुबह कभी तो आएगी…. “

साहिर लुधियानवी के शायरी के इन पंक्तियों को पढ़ एक बात तो साफ़ नज़र आती है कि उनकी भावनाएं जज़्बातियत और इंसानियत से संपूर्ण थी।शायद इसलिए उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से जगत की दशा को बखूबी उजागर किया है। ज़िंदगी के यथार्थ का दर्शन साहिर के नग़्मों की जान है।वहीं साहिर यथार्थ के साथ-साथ ही ज्वलन्त आशावाद, उत्साह और दृढ़ विश्वास के शायर भी थें।
“देख तेरे भगवान् की हालत क्या हो गयी इंसान,
कितना बदल गया भगवान्
भूखों के घर में फेरा न डाले, सेठों का हो मेहमान,
कितना बदल गया भगवान “
साहिर लुधियानवी एक ऐसी शख्सियत थे जिनके लिए धर्म या मज़हब का अर्थ इंसानियत से होता था। जिन्होंने अपनी ग़ज़लों को फ़िल्मी गीतों की शक्ल दी। जिनके गाने आज भी बेहतरीन उर्दू शायरी के नमूने माने जाते हैं। साहिर ने अपनी कलम से निकलने वाले शब्दों के ज़रिए लोगों को अपनी ओर खींचने पर हमेशा मजबूर किया है। उन्होंने बचपन में ही समझ लिया था कि जीवन का संघर्ष कैसा होता है। इसलिए तो बचपन से लेकर जवानी तक जिंदगी की जंग को लड़ते हुए उन्होंने अपने संघर्षों को शब्दों में उतारा था।साहिर ने हिंदी सिनेमा में एक से बढ़कर एक नगमें लिखे जो आज भी लोगों के जेहन में हैं।
साम्यवादी विचार से संपूर्ण और जीवन का संघर्ष शब्दों के ज़रिए लोगों तक पहुंचाने वाले साहिर
“जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है
जंग क्या मसअलों का हल देगी “
साहिर लुधियानवी पर फ़ैज़ और मजाज़ का ख़ासा प्रभाव पड़ा था। मात्र 24 साल में उनकी किताब ‘तल्ख़ियाँ’ बाज़ार में आ चुकी थी। उनकी पहली किताब का नाम ‘तल्ख़ियाँ’ था जिसका अर्थ है ‘कड़वाहटें’। जिससे उन्हें शोहरत की बुलंदियां भी प्राप्त हुई थी। साहिर उर्दू अख़बार ‘अदबे-लतीफ़’, ‘शाहकार’ और ‘सवेरा’ के मुदीर (संपादक) बन चुके थे।‘सवेरा’ में साहिर ने हुकूमते-पाकिस्तान के ख़िलाफ़ लिखकर आफ़त मोल ले ली थी और नतीज़ा स्वरूप उनके नाम गिरफ़्तारी का वारंट भी जारी हो गया था।

साहिर के विचार साम्यवादी थे। साल 1949 में वे दिल्ली आ गये थे।वहां कुछ दिन बिताकर वे मुंबई आ गये थे जहाँ वे उर्दू पत्रिका शाहराह और प्रीतलड़ी के सम्पादक बने थे।
हालांकि साहिर बाद के दिनों में रोमांटिक शायरी की तरफ झुक गए थे और वे फ़ैज़ की तरह साम्यवाद झंडाबरदार नहीं रहे थे। तब कैफ़ी आज़मी ने लुधियानवी के शायरी के रोमांटिक मिज़ाज पर तंज़ कसते हुए कहा था कि उनके दिल में तो परचम है पर उनकी क़लम काग़ज़ पर मोहब्बत के नग़मे उकेरती है।
साहिर की रोमांटिक और नज़रियाती (गंभीर) शायरी दोनों ही लाज़वाब
“मिलती है ज़िंदगी में मोहब्बत कभी-कभी
होती है दिलबरों की इनायत कभी-कभी।“
साहिर के भीतर आये इस बदलाव को समझने के लिए हमें एक नज़र उस दौर पर डालनी होगी। जब 60 के दशक में रूस के कम्युनिस्ट लीडर निकिता ख्रुश्चेव ने स्टालिन के ख़िलाफ़ बोलकर और सोवियत रूस की अंदरूनी नीतियों में बदलाव करके साम्यवाद के अंत की शुरुआत कर दी थी।

चीन की हिंदुस्तान से जंग ने वामपंथी आंदोलनों की जड़ें हिला दीं थी,अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी कम्युनिस्ट आंदोलन के विरोधाभास ज़ाहिर होते जा रहे थे।बचपन की ग़ुरबत और कम्युनिस्ट शायरों की बदहाली ने शायद साहिर की सोच में कुछ तब्दीली कर दी थी। जो भी कहिए साहिर की नफ़्सियाती (रोमांटिक) और नज़रियाती (गंभीर) शायरी दोनों ही लाज़वाब की हैं।
“महफ़िल से उठा जाने वालों
तुम लोगों पर क्या इलज़ाम
तुम आबाद घरों के वासी
मैं आवारा और बदनाम “
मशहूर शायर एवं गीतकार साहिर लुधियानवी का जन्म संयोग से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन यानी आज 8 मार्च को लुधियाना में हुआ था।वैसे उनका असली नाम अब्दुल हई था पर साहिर नाम उन्होंने खुद रखा था जिसका अर्थ है जादूगर। पंजाब राज्य के लुधियाना में जन्म होने के कारण उनका यहां से खासा लगाव था इसलिए उनका नाम साहिर लुधियानवी हो गया था। उनके पिता एक धनी व्यक्ति थे मगर साहिर को बचपन से ही पिता का प्यार मिला नहीं था।
माता-पिता के अलगाव के बाद वो अपनी मां के साथ रहने लगे थे।मां के जीवन के दुख और संघर्ष ने साहिर के जीवन पर एक गहरी छाप छोड़ी थी। साहिर की पढ़ाई-लिखाई लुधियाना में ही हुई थी। कॉलेज के दिनों में ही उन्होंने अपनी शायरी से लोगों का दिल जीत लिया था। कॉलेज में उनकी दोस्ती अमृता प्रीतम से हुई थी। साहिर ने अमृता के दिल में वो जगह बनाई जिसे फिर कभी कोई और नहीं ले सका।
ज़िंदगी में मोहब्बत की अहमियत को अच्छी तरह से समझने वाले साहिर लुधियानवी
“वो अफ़साना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों…”
“जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा”, “मेरे दिल में आज क्या हैं तू कहें तो मैं बता दूँ”,”अभी ना जाओ छोड़कर,”कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता हैं”,”ए मेरी ज़ोहराजबीं तुझे मालूम नहीं”, “तुम अगर साथ देने का वादा करो”,जैसे सैकड़ों मधुर प्रेमगीतों के रचनाकार साहिर लुधियानवी ने अपने निजी जीवन में कई दफ़ा मोहब्बत की एवं वो ज़िंदगी में मोहब्बत की अहमियत को अच्छी तरह से जानते थे। उनका मानना था कि मोहब्बत तक़दीरवालों के हिस्से में आती है।
“मैं वो फूल हूँ कि जिसको गया हर कोई मसल के
मेरी उम्र बह गई है मेरे आँसुओं में ढ़ल के
जो बहार बन के बरसे वह घटा कहाँ से लाऊँ
जिसे तू क़ुबूल कर ले वह अदा कहाँ से लाऊँ
तेरे दिल को जो लुभाए वह सदा कहाँ से लाऊँ..”
साहिर लुधियानवी(शायरी के उस्ताद) और अमृता प्रीतम(अपने जमाने की सबसे मश्हूर कवयित्री) बहुत ज्यादा चर्चित विषय है। साहित्य और कविताओं से जुड़ा ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हो सकता जिन्होंने साहिल लुधियानवी और अमृता प्रीतम का नाम नहीं सुना होगा।

आज़ादी के पहले से लेकर अभी तक अगर कोई प्यार और इश्क से जुड़ी कविताओं की बात उठाता है तो इन दोनों का नाम जरूर से याद आता है। ये सच है कि इनके किस्से, कविता और चिट्ठियों वाले प्यार की कहानी कई सारे फिल्मों का हिस्सा बनी। साहिर और अमृता एक दूसरे के प्रति जितने सजग, जितना एक दूसरे से प्यार करते उतना ही एक दूसरे की इज्जत भी करते थे।
“देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से”
आज़ादी की लड़ाई के दौर में जहां सभी वीरता पर कविताएं लिखते थे वहीं साहिर ने प्यार को लेकर कविताएं लिखी थीं। साहिर को अमृता अपनी चिट्ठियों में ‘मेरे शायर’ कहती थीं। एक दूसरे से बहुत प्यार करने वाले इन दोनों के बीच हमेशा अनकहा इश्क रहा। दोनों लाहौर में रहते थे और बंटवारे के वक्त दोनों को ही मुंबई आना पड़ा था।
साहिर ने अमृता को कभी भी प्यार का वादा नहीं किया। उनका प्यार पूरा नहीं हुआ कारण साहिर उन लोगों में से नहीं थे जो कमिटमेंट कर लेते। साहिर को अमृता से प्यार तो था मगर वो इस बारे में पूरी तरह से सोच नहीं पाते थे। अमृता ने इसके बारे में कविताएं भी लिखी थीं।
साहिर के साथ पार्श्व गायिका सुधा मल्होत्रा का नाम भी जोड़ा जाता है हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि ये साहिर का एकतरफ़ा प्यार था।आज शायद लोग सुधा मल्होत्रा के नाम से वाक़िफ न हों मगर 50 -60 के दशक में वो एक बड़ी मारूफ़ गायिका थीं।
“तुम मुझे भूल भी जाओ, तो ये हक़ है तुमको
मेरी बात और है, मैंने तो मोहब्बत की है”
साहिर को मुसलसल बोलने का अभ्यास था और वो अपनी तारीफ़ें सुनना बहुत पसंद करते थें। वो हर किसी शायर का मज़ाक़ उड़ाते और अपने दोस्तों को गालियों से भी ख़ूब नवाज़ते थे। उनका एक किस्सा जावेद अख़्तर साहब के साथ भी है। साहिर ने जावेद अख़्तर को उनकी बेरोज़गारी और मुफ़लिसी के दिनों में 200 रुपये दिए थे। फिल्म के सेट पर बाद में कभी जब साहिर साहब उनसे मिलते तो वे मज़ाक में कहते कि हालांकि अब वो उनके 200 रुपये लौटा सकते हैं पर देंगे नहीं।
दुःख की बात है कि अचानक 25 अक्टूबर, 1980 को ये हंसी-मज़ाक़ का सिलसिला खत्म हो गया। एक अजीब इत्तिफ़ाक़ हुआ जब साहिर को दफ़्नाने के बाद जावेद और बाक़ी लोग क़ब्रिस्तान से बाहर आ रहे थे। उस समय एक व्यक्ति पीछे से भागता हुआ आकर जावेद साहब से बोला कि मैं ख़ाली हाथ घर से आ गया था क़ब्रिस्तान वाला साहिर साहब को दफ़्नाने के पैसे मांग रहा है तब जावेद जी ने पूछा ‘कितने?’ तो उसने कहा – ‘200 रुपये’।
अब एक और इत्तिफ़ाक़ ही कहिए कि साहिर का अर्थ जादू होता है और जावेद अख़्तर को भी उनके क़रीबी प्यार से जादू ही बुलाया करते हैं।दोनों को दोस्ती इसलिए तो आज भी यादगार है।
साहिर का एक और किस्सा डाकुओं के साथ भी है जब एक बार वे कार से मशहूर उपन्यासकार कृश्न चंदर के साथ लुधियाना जा रहे थे। तब शिवपुरी के पास डाकू मान सिंह ने उनकी कार को रोक कार में सवार सभी लोगों को बंधक बना लिया था। उस समय साहिर ने डाकुओं को बताया था कि उन्होंने ही डाकुओं के जीवन पर बनी फ़िल्म ‘मुझे जीने दो’ के गाने लिखे थे जिसके बाद डाकुओं ने साहिर को इज़्ज़त से जाने दिया था।
साहिर लुधियानवी के गीतों में नारी की दुर्दशा,सामंती प्रवृत्तियों के प्रति रोष, विरोध एवं तीखी अभिव्यक्ति

साहिर के गीतों में नारी की दुर्दशा और सामंती प्रवृत्तियों के प्रति रोष तथा उनका विरोध एवं तीखी अभिव्यक्ति हैं। साहिर को किसी इन्सान से शिकायत नहीं बल्कि समाज के उस ढ़ाँचे से शिकायत थी जो इन्सान से उसकी इन्सानियत छीन लेता है। साहिर की शिकायत उन प्रथाओं से थी,जहाँ मुर्दों को पूजा और ज़िंदा इन्सान को पैरों तले रौंदा जाता है। जहाँ औरतों को इन्सान नहीं बल्कि जी बहलाने का खिलौना समझा जाता है। उन्होंने फ़िल्म ‘इंसाफ़ का तराज़ू’ के गीत में इस बात को स्पष्ट भी किया है।
“लोग औरत को फ़क़त एक जिस्म समझ लेते हैं
रूह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं ।”
“कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है
कितनी सदियों से है क़ायम, ये गुनाहों का रिवाज़”
घोर ढ़ोंगी और पाखंडी समाज के चेहरे पर से ये झूठी शराफ़त का नक़ाब उठाने की हिम्मत साहिर ने अपने गीतों में की है। साहिर ने महिलाओं के शोषण के लिए, उनपर होने वाले अत्याचार के लिए पितृसत्ता और सामंतवादी व्यवस्था को दोषी ठहराया है। फ़िल्म साधना में उन्होंने इसका स्पष्ट विवरण दिया है,जहां वह महिलाओं को उपभोग की वस्तु बनाने वाली बर्बर व्यवस्था पर ऊँगली उठाते हैं। वे समाज के क्रुर, अमानवनीय, बेरहम और ज़ालिम ढ़ांचे से परेशान होकर साहिर झुँझलाकर कहते हैं कि-
“औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा कुचला मसला, जब जी चाहा दुत्कार दिया”
साहिर ने देखा और समझा था कि समाज में देह व्यापार का धंधा अपने पांव पसारे हुए है जहां लाखों महिलाएं दुनिया से हटके बेबस ज़िंदगी जी रही हैं। वेश्या बनी नारी की उफ़नती पीड़ा,अँधेरे कोनों में व्याप्त वेदना,अपमानित जिंदगी का आतंक, आतंरिक विवशता,दीनहीन होने की वेदना को इसलिए उसने अपनी रचनाओँ में अभिव्यक्ति दी है।

फ़िल्म ‘प्यासा’ में उनकी क़लम ऐसे ही ग़ैर इंसानी रिवाजों के ख़िलाफ़ तेज़ आग गिराती है। साहिर ने औरतों की बेहतरी, ख़ुशहाली एवं सुखद भविष्य वाले समाज की भी कल्पना की थी। उन्हें यक़ीन था कि दुःख के ये काले बादल यक़ीनन दूर हो जायेंगे और न्याय, स्वतंत्रता और समानता की सुबह भी ज़रूर आयेगी।
साहिर को साल 1963 में फिल्म ‘ताजमहल’ के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला और साल 1976 में उन्हें एक बार फिर फिल्म ‘कभी कभी’ के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इतना ही नहीं 8 मार्च 2013 को साहिर के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। साल 1971 में साहिर को पद्मश्री से नवाज़ा गया।
साहिर अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दिन टैक्सी वाले को रुकने का कह कर अपने दोस्त से मिलने उसके घर गए। उस दिन टैक्सी वाला इंतज़ार करता रहा और वहीं साहिर ने अपने दोस्त की बांहों में दम तोड़ दिया। 59 वर्ष की अवस्था में 25 अक्टूबर 1980 को दिल का दौरा पड़ने से निधन हुआ और उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया। साहिर अपनी कभी न खत्म होने वाली शायरी और अविस्मरणीय गीत पीछे छोड़ गये।
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