भागलपुर की 25 हज़ार आबादी 3 सालों से विस्थापित, नहीं हुआ पुनर्वास

बिहार के भागलपुर जिला अंतर्गत कहलगांव के बटेश्वर स्थान से ग्राम खवासपुर तक खेतिहर और आवासीय जमीन के बीचोबीच गंगा नदी बहती है। इस पूरे क्षेत्र में 1990 से ही खेती की जमीन कटती रही है।

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"हमारे पास भी घर था, खेती की जमीन थी, हमारा भी गांव, मोहल्ला हुआ करता था। सब एक दिन खत्म हो गया। गंगा मैया सब ले गईं, हमरी ज़िन्दगी, और हमरी अगली पीढ़ी का भविष्य भी"

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(यहां गांव हुआ करता था)

ये सब कहते हुए 68 साल के सुरेश मंडल अपनी टूटी हुई झोपड़ी को निहारने लगते हैं।

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वर्ष 2019 के उस भयावह संकट को याद करते हुए, सुधा देवी बताती हैं कि

"रातों-रात जो समान बचा सके, लेकर सड़क पर आ गये। तब लगा था कि पन्द्रह – बीस दिन की बात है, यहां जैसे – तैसे गुजर जाएगा पर अब तो पिछले तीन साल से यही सड़क हमारा एकमात्र ठिकाना है।"

सुधा देवी की उम्र 38 साल हैं। पति मजदूरी करते हैं। पांच बच्चों में दो को परिस्थितियों की वजह से पढ़ाई छोड़कर मजदूरी के लिए बाहर पलायन करना पड़ा। तीन छोटे बच्चें है, उसमें एक विकलांग है। सड़क किनारे 10-12 फीट गहरी खाई और जंगल झाड़िया है। ऐसे में बच्चों को लेकर रहना बड़ा जोखिम भरा है। किसी अनहोनी के घट जाने का डर हमेशा बना रहता है। घर व खेती की जमीन गंगा में कट गया, बच्चों की पढ़ाई भी मुश्किल से हो पाती है। सब बह गया सारे सपने और सारे अरमान भी।

कटाव की वजह से 25000 की आबादी विस्थापित।

बिहार के भागलपुर जिला अंतर्गत कहलगांव के बटेश्वर स्थान से ग्राम खवासपुर तक खेतिहर और आवासीय जमीन के बीचोबीच गंगा नदी बहती है। लगभग 20 किलोमीटर तक गंगा के एक किनारे खेती की उपजाऊ जमीन है तो दूसरे किनारे पर पूरे क्षेत्र में कई गांव बसे हुए हैं। इस पूरे क्षेत्र में 1990 से ही खेती की जमीन कटती रही है। पर साल 2012 में जब पहली बार टपुआ स्थित एक स्कूल कटा तब लोगों को लगा कि एक भयानक समस्या उनके सामने आने वाली है और इस क्षेत्र की आवासीय भूमि धीरे – धीरे गंगा नदी के धारा की चपेट में आकर कटने लगी। 

नवंबर 2019 में बीरबन्ना पंचायत का गांव तौफिल और अठावन दियारा एवं रानी दियारा व किशनदासपुर पंचायत का गांव टपुआ और रानी दियारा जो गंगा नदी के किनारे अवस्थित थी। ये सम्पूर्ण क्षेत्र गंगा नदी की तीव्र समकोणीय धारा की चपेट में आ गया। जिसके कारण उपरोक्त ग्रामीणों पर भीषण कटाव की आफत आन पड़ी। और देखते – देखते खेती समेत विशाल आवासीय क्षेत्र गंगा नदी में समाहित हो गई। हर दिन के कटाव के साथ सैकड़ों परिवार स्वयं अपने घरों को तोड़कर विस्थापित होने लगी। जिनको ज़हां आश्रय मिला वह वहां अपने सामान को सुरक्षित करने लगे । लगभग 25000 की आबादी विस्थापित होने को मजबूर हो गई।

रहने के लिए को कोई ठौर-ठिकाना न बचा। कटाव की मार झेल रहे पीड़ितों ने आंदोलन का रास्ता अपनाया‌। सड़कें जाम की, ब्लॉक का घेराव किया, धरना – प्रदर्शन किया उस वक्त सरकार की तरफ से उच्चाधिकारियों ने पीड़ितों से पुर्नवास के लिये जमीन देकर इनको फिर से स्थायी रुप से बसाए जाने का वादा किया। फौरी तौर पर संकट से निपटने के लिये एकडारा और किशनदासपुर पंचायत की एक सड़क व सड़क किनारे की छोटी सी चौड़ाई वाली जगह सामान रखने के लिए सुझाया गया। देखते – देखते सड़क किनारे 4 × 5 की सैकड़ों झोपड़ी तैयार हो गई। इन झोपड़ियों का निर्माण पीड़ितों ने खुद से किया था। 

अब पिछले तीन साल से यही सड़क और सड़क किनारे 4 × 5 की झोपड़ी इनलोगों का एक मात्र ठिकाना है।

सरकारी कारवाई, बस नाम भर

उस वक्त कहलगांव और पीरपैंती अंचल के अंचलाधिकारी समेत जिला के वरीय पदाधिकारी ने अपने निरक्षण के बाद जो जांच रिपोर्ट डीएम को सौंपी उसमें उन्होंने बताया कि रानी दियारा गांव की कुल आवसीय भूमि तथा टपुआ गांव की 40% वास भूमि गंगा नदी के गर्भ में समाहित हो चुकी है। दोनों अंचल के अंचलाधिकारियों ने पीरपैंती प्रखंड अंतर्गत 682 एवं कहलगांव प्रखंड अंतर्गत 338 परिवारों को वासहीन विस्थापित परिवार के रूप में चिन्हित किया था।

यानि कुल 1020 परिवारों को राहत पहुंचाने हेतु पीड़ितों के रूप में चिन्हित किया गया था। पर अबतक तीन साल पहले की परिस्थितियों में छोड़े गये इनलोगों में ज्यादातर की हालत वैसी ही बनी हुई है।

"सरकार का ही आसरा है, ना जाने किस रोज़ हमें इस नरक से निकालकर कहीं और बसाएंगे"

80 साल की गायत्री देवी आगे बताती हैं

"पिछले साल सड़क किनारे वाली गड्ढे में गिर गई थी शोर मचाया तब लोगों ने खींचकर गड्ढे से निकला उस रोज मरते-मरते बचीं। बेटा और बहू दोनों मजदूरी करने जाते हैं, मैं घर पर बच्चों को संभालती हूं।"

2021 के अक्टूबर महीने में सड़क किनारे इन्हीं गड्ढों में डूबकर गेलूह पासवान के तीन पोतों की मौत हो गई थी। 

गेलूह पासवान की उम्र 65 साल है, वे हमसे बात करते हुए कहते हैं कि

"रानी दियारा में हमारा जो घर कटा वो इन्दिरा आवास के तहत पास हुआ था। खेती के लिए भी थोड़ी जमीन थी वो भी कट गया। सब लोगों की तरह रातों – रात सड़क पर आकर यहां रहने लगा। क्या पता था कि ये जगह हमसे हमारे तीन पोतों को एक साथ छीन लेगा।"

गेलूह पासवान बिलख पड़ते हैं, वे थोड़ी देर रुककर पोतों की उम्र बताने लगते हैं।

"एक बच्चा नौ व दो सात – सात साल का था। बच्चे शौच करने गये थे, तीनों की मौत एक साथ हो गई उस घटना से हमारा परिवार शायद कभी नहीं उबर पाएगा। सरकार के वादे को तीन साल बीत गये।"

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(सड़क किनारे बना घर)

दरअसल सड़क बनाते वक्त सड़क ऊंचा करने और उसके चौड़ीकरण के लिए सड़क किनारे से ही मिट्टी खोद कर लिया गया था। इस वजह से 10 – 12 फीट गहरी खाई हो गयी है और ये खाई पूरे बरसात के सीजन में पानी से भरा रहता है। सड़क के किनारे इस खाई के आसपास जंगल झाड़िया भी है। जहां से आये दिन सांप का निकल जाना बिल्कुल सामान्य सी बात है। मर्दों ने तो इन तकलीफों को जैसे अपनी नियती मान लिया है, पर महिलाओं और बच्चों को शौच समेत दैनिक जीवन के कार्य के लिए रोज परेशानी उठानी पड़ती है। पिछले दिनों सरकार की तरफ से 10 – 12 शौचालय का निर्माण करवाया गया है। पर ये हज़ारों की आबादी के लिए नाकाफी है।

रविन्द्र कुमार, भिरकी देवी, कौशल्या देवी, मंगली देवी समेत कई लोग इकट्ठे होकर अपने दर्द को दर्ज़ करवाना चाहते हैं। सबकी अपनी बेशुमार तकलीफ़ है, सरकार से पुर्नवास की उम्मीद लगाए बैठे हैं।

पुर्नवास क्यों नहीं हो पा रहा

उस वक्त सरकारी जमीन की अनुपलब्धता के कारण जमीन लीज पर लेकर पीड़ितों के पुर्नवास की बात कही गई थी। लगभग 55 एकड़ भूमि के कर्य/अर्जन की आवश्यकता बताई गई थी, जिसमें लगभग 49 करोड़ की राशि का व्याय सम्भावित था। ये बात धीरे – धीरे ठंडे बस्ते में डाल दी गयी।

45 साल के गौरी शंकर कहते हैं कि

"सरकार हम पूरे ग्रामीणों को एक या दो जगह पर जमीन नहीं दिला पा रही है। शुरू में सरकार की तरफ से जमीन लीज पर लेकर हम कटाव पीड़ितों को बसाने की बात कही गई थी। पर अब सरकार ने हमारे पुर्नवास के लिए सरकारी जमीन तलाशनी शुरू कर दी है।"

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(गौरी शंकर)

गौरी शंकर की उम्र 45 साल हैं इनका घर भी उस समय गंगा में समाहित हो गया था गौरी शंकर विद्यार्थी शुरू से ही संघर्ष करते रहें हैं, कि हम विस्थापितों को सरकार पुर्नवास के लिए जमीन मुहैया कराए। गौरी शंकर भी उस 117 लोगों में शामिल हैं जिन्हें जमीन का पर्चा मिला गया है, वो आगे कहते हैं कि

"सरकारी जमीने या तो आवसीय हेतु उचित नहीं है या वहां पर पहले से स्थानीय लोगों ने कब्जा कर रखा है। इन्हें हटाने में मुश्किल हो रही है। यही कारण है कि पर्चा मिलने के लगभग एक साल गुजार जाने के बाद भी हमारा पुर्नवास नहीं हो पाया है।"

117 परिवार को साल भर पहले मिला है पर्चा

1020 परिवारों में अबतक कुल 117 परिवार को पर्चा मिला है। सरकार की तरफ से अफसरों द्वारा पीड़ितों से बात करते हुए इस बात पर सहमति बनी थी की दो या तीन जगह पर भूमि अधिग्रहण करके सभी पीड़ितों को बसाया जाएगा, पर अब सरकार अलग – अलग जगह पर बिहार सरकार की जमीन तलाश कर रही है। एक पीड़ित को तीन डिसमिल घर और दो डिसमिल रास्ते ‌के लिए जमीन का पर्चा दिया जा रहा है। पहली खेप में पीछले साल जुलाई में ही 37 लोगों को पर्चा मिला था पर अबतक ये वहां बस नहीं पाये हैं।

भवानीपुर मौजा के खाता न0 308 की जमीन पर स्थानीय लोगों का कब्ज़ा हैं। इस जमीन पर 37 लोगों को पुर्नवास के लिए जमीन का पर्चा दिया गया है। दूसरी तरफ पीरपैंती प्रखंड के खाता न0 633 खसरा 62 की जमीन पर पहले से ही दस फूट गहरी खाई है इस जमीन पर पुर्नवास के लिए 35 लोगों को पर्चा मिला है। तीन साल से वादे के भरोसे ही ज़िन्दगी चल रही है, हर छह – सात महीने में थोड़ी सुगबुगाहट होती है पर मामला फिर ठंडा बस्ता में डाल दिया जाता है।

50 खुशनसीब परिवार जिन्हें मिल गई जमीन, बाकी परिवार का इंतजार और कितना लम्बा

सुनील रज़क की उम्र 60 साल है, सुनील उन 50 भाग्यशाली लोगों में है जिनके पुर्नवास का इंतजार खत्म हो गया है। वे कहते हैं 

"तीन साल तक हमने ज़िन्दगी सड़कों पर बिताई अब जा कर पिछले 7 जून को हम 50 परिवारों को सरकार की तरफ स्थायी रुप से रहने के लिए जमीन मुहैया करवाई गई है, हम सब सरकार व प्रशासनिक टीम का शुक्रिया अदा करते हैं, पर साथ ही मांग करते हैं कि सड़कों पर ज़िन्दगी गुज़ारने को जो परिवार अब भी लाचार है और सरकार की तरफ से मदद के इंतजार में है, उनका भी इंतजार जल्द खत्म हो।"

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तीन स्कूलों को भी गंगा ने अपने गर्भ में समाहित कर लिया, अब कैसी है शिक्षा व्यवस्था

14 साल की प्रीति उंगलियों पर जोड़ते हुए बताती हैं कि

"इस साल मैं मैट्रिक की तैयारी कर रही होती अगर हमारा स्कूल नहीं कटता। मेरी बड़ी बहन ने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई पूरी की थी। मैं भी पढ़ना चाहती थी मैं सातवीं क्लास में थी तो मेरा गांव और स्कूल दोनों कट गया। सारी सहपाठीयों में कुछ ने पढ़ाई छोड़ दी तो किसी ने अपने किसी रिश्तेदार के यहां जाकर पढ़ाई जारी रखी। मैं कहीं नहीं जा पाई अब इस जन्म में तो नहीं पढ़ पाईं। मैं पढ़ लिखकर शिक्षिका बनना चाहती थी।"

मुस्कान 16 साल की हैं, मध्य विद्यालय रानी दियारा की छात्रा थी वो कहती हैं

"आठवीं क्लास में थी मैं, जब स्कूल कट गया। पढ़ाई छूट गई फिर से पढ़ने की कोशिश भी की पर सबकुछ इतना उलझ गया कि परिस्थितियां ना बन पाई। अबतक मैं इंटर में होती पर क्या करें।"

पढ़ लिखकर क्या बनना चाहती थी इस सवाल पर उनकी आंखें चमक जाती है वो चेहरा नीचे कर लेती हैं और कुछ नहीं कह पाती।

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(इन बच्चों की पढ़ाई की कोई भी व्यवस्था नहीं हो पायी)

रुपा, सपना, पल्लावी सबकी यही कहानी है। दरअसल गंगा नदी के इस भीषण कटाव के चपेट में उस क्षेत्र की तीन स्कूलें भी आ गई थी। जिसमें एक प्राथमिक व दो मध्य विद्यालय थी। 

प्राथमिक विद्यालय के प्रिंसिपल सत्याम यादाव जी कहते हैं कि

"हमारे प्राथमिक विद्यालय में लगभग 500 विधार्थी थे उस वक्त, और दोनों मध्य विद्यालय से लगभग 1100 विधार्थी थे, तीनों स्कूल कट गया। बच्चे तितर – बितर हो गये। हमलोगों को पड़ोसी गांव के स्कूलों में हस्तांतरित कर दिया गया पर सारे विधार्थी को एकत्रित कर पाना संभव नहीं था। क्योंकि उस वक्त जिसको जहां जगह मिली वो वहां चले गए। कुछ बच्चों ने अपने नजदीकी स्कूलों में पढ़ाई शुरू किया और कुछ बच्चों के अभिभावकों ने अपने रिश्तेदारों के यहां भेजकर अपने बच्चों की पढ़ाई जारी रखवाई। सबके पास ऐसे इंतजाम नहीं था वो अभागे रहें जिनके पास ऐसा विकल्प नहीं था और पढ़ाई छूट गई। इसका ज्यादातर शिकार लड़कियां हुईं।"

 मास्टर साहब आगे बताते हैं कि इन स्कूलों में ज्यादातर बच्चें  SC, ST और OBC वर्ग के थे। इनमें से ज्यादातर के अभिभावकों की आर्थिक हालत बहुत खराब थी। ये भी एक कारण रहा कि बच्चों की पढ़ाई छूट गई। यूं समझिए एक पूरी पीढ़ी की शिक्षा व्यवस्था इस कटाव की वजह से तबाह हो गई।

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सिविल सोसाइटी का संघर्ष

सुबोध यादव की उम्र – 60 साल है, समाजिक कार्यकर्ता हैं, सुबोध यादव बताते हैं कि

"इस‌ पूरे इलाके में हर साल गंगा का जलस्तर बढ़ते ही कटाव शुरू हो जाता है, जिसमें देखते ही देखते दो सौ एकड़ जमीन गंगा में समाहित हो जाती है।"

 साल 2019 के भीषण कटाव के समय कुछ समाजिक कार्यकर्ताओं ने मिलकर एक संगठन बनाया। गंगा कटाव संघर्ष समिति, इस संगठन का उद्देश्य इस तीव्र कटाव के रोकथाम व पीड़ितों के लिए समुचित व्यवस्था करवाकर ज़िन्दगी को वापस ढर्रे पर लाना था। सुबोध यादव इस संगठन के सचिव है उन्होंने हमें आगे बताया कि

"दरअसल गंगा में गाद भर जाने के कारण कटाव की ये समस्या ने इस इलाके में भीषण रूप अख्तियार कर लिया। साल 2019-20 में हमरी अथक प्रयास के बाद ही पहली बार इस क्षेत्र में कटाव को रोकने के लिए बिहार सरकार के जल संसाधन मंत्रालय द्वारा कार्य कराया गया। जिसके अंतर्गत तौफिल में 350 मीटर और टपुआ में 630 मीटर एन्टी यूरोजन कार्य ( जियो बैग में रेत भरकर तटबंध का निर्माण ) किया गया। इस कार्य कि लागत लगभग 11 करोड़ थी। इस क्षेत्र में अबतक कुल दो बार ही कटाव को रोकने के लिए कार्य किया गया है। दूसरी बार इसी साल टपुआ में 6.27 करोड़ की लागत से कटाव निरोधक कार्य कराया गया है। जिसके अंतर्गत जियो बैग में बालू ( रेत ) भरकर गंगा किनारे 500 मीटर में लगभग एक सौ फीट ऊंचा तटबंध बनाया गया है।"

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(कटाव रोकने के लिए चल रही तैयारी)

पर इस तरह से कटाव को रोकने के इस प्रयास को समाजिक कार्यकर्ता अस्थाई ही मानते हैं। जिस हिस्से में ये तटबंध तैयार किया जाता है, उस हिस्से में तो कटाव थोड़े समय के लिए रुक जाता है पर दूसरे हिस्से में फिर कटाव शुरू हो जाता है। 

सुबोध यादव कहते हैं कि केन्द्रीय सरकार इस पूरे क्षेत्र में

"LWL ( lowest water level ) का कार्य करवाए, इस कार्य के अंतर्गत गंगा से गाद की सफाई करवाकर उसकी गहराई को बढ़ाया जाता‌ है। गंगा में जलस्तर की गहराई को बढ़ने के बाद ही इस समस्या से छुटकारा मिल सकता है।"

तमाम परिस्थितियों और तीन साल में हुई सभी कारवाई पर हमने कहलगांव और पीरपैंती प्रखंड के कई उच्चाधिकारियों से बात करने की कोशिश की, पर किसी ने फोन नहीं उठाया तो किसी ने फोन उठाकर हमारी बात सुनने के बाद फोन काट दिया। हमने मैसेज किया तो जवाब नहीं आया। ऐसी हालत में हज़ारों की आबादी को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया। सबकी अपनी कहानी है सबके अपने‌ दुख हैं। और उम्मीद बस यही की सरकार कुछ करें। ‌