अब्दुल बारी बिहार के एक ऐसे नायक हैं जिन्हें हम सभी भूल चुके हैं. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कई नायक ऐसे रहे हैं जो एक ही साथ कई पहचानों से जाने जाते थे. कभी लेखक, प्रोफ़ेसर, मजदूर नेता, राजनीति- समाजिक कार्यकर्त्ता से लोग उनको जानते थे. इनका लक्ष्य एक ही होता था, देश को आज़ाद कराना और अपने समय से बेहतर समाज बनाने की कोशिश करना.
प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी इन्हीं खूबियों से भरे भारत के स्वतंत्रता सेनानी थे. आगे इनके बारे में विस्तार से बात करेंगे, पर नई पीढ़ी के लिए ये जान कर, प्रोफेसर बारी के बारे में समझना आसान होगा, कि पटना स्थित 'बारी पथ', और सोन नदी पर कोइलवर के पास बना 'अब्दुल बारी पुल' प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी के ही नाम से है. ये एक साथ रेल-रोड़ पुल है.
इनका जन्म पुराने शाहाबाद और वर्तमान भोजपुर जिले में 21 जनवरी 1884 को हुआ था.
कौन हैं अब्दुल बारी?
बहुमुखी प्रतिभा के इंसान अब्दुल बारी ,भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े मजदूर नेताओं में से एक थे. महात्मा गांधी के सबसे करीबी थे. यूं तो वह पटना विश्वविद्यालय के बी एन कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर रहे. परंतु उनका अधिकांश समय मजदूरों के बीच गुज़रा.
पटना विश्वविद्यालय के छात्र रहे अब्दुल बारी 1920 के दशक से ही सार्वजानिक जीवन में सक्रिय हो गए थे. ये सिलसिला मृत्यु तक जारी रहा. 1937 में टाटा वर्कर्स यूनियन, जमशेदपुर की स्थापना की. इसकी मुख्य मांगे यहां कार्यरत मजदूरों के लिए बोनस, अतिरिक्त अवकाश, पीएफ, सालाना वेतन में बढ़ोतरी जैसी कल्याणकारी मांगों को लागू कराना था.
साथ ही साथ राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम में भी इन मजदूरों की क्रांतिकारी तरीक़े से सक्रिय रखना था. चंपारण के चीनी मिल मज़दूरों, जमशेदपुर, झरिया जैसे औद्योगिक क्षेत्रों में प्रो बारी काफी सक्रिय रहे.
विभाजन के विरोधी रहें अब्दुल बारी
साल 1937 में बिहार में हुए चुनाव में प्रोफ़ेसर बारी ने महात्मा गांधी के कर्मभूमि चंपारण से जीत हासिल की. बिहार विधान परिषद में उपसभापति चुने गए. वह बिहार विधान परिषद के पहले मुस्लिम उप सभापति थे. 1946 में बिहार में बड़े स्तर पर हिंदू मुस्लिम दंगे हुए.
हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में वह महात्मा गांधी के साथ घूम- घूम कर अमन का पैग़ाम दिया और नफ़रत की आग को ख़त्म किया. प्रो बारी एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय रहे राजनीति और समाजसेवा के अलावा उन्होनें बौद्धिक क्षेत्र में भी कई मानक बनाए. मोतीलाल नेहरु के 'द इंडिपेंडेंट' अखबार में संपादकीय बोर्ड में भी वह शामिल थे.
साधारण जीवन शैली वाले इस नेता की हत्या कर दी गई
उनकी अपार लोकप्रियता से घबराकर उनसे नफरत करने वालों ने उनके ख़िलाफ़ साजिश की. 28 मार्च,1947 को उनकी हत्या खसरूपुर (फतुहा) के पास कर दी गई.
हत्या के वक़्त प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष थे.
सांप्रदायिक हिंसा ग्रस्त क्षेत्र से लौट कर गांधीजी से मिलने पटना आ रहे थे. सांप्रदायिक सोच रखने वाले लोगों को शायद उनका काम पसंद नहीं आया. वह एक सादा जीवन जीने वाले प्रोफेसर, मज़दूर नेता, राजनीतिक कार्यकर्ता थे.
प्रोफेसर बारी की सादगी को देखते हुए महात्मा गांधी ने कहा था
Professor Abdul Bari ‘a king amongst men’ and ‘a prince among patriots’.
आज के संदर्भ में प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की 75 वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है. आज भी भारत वर्गीय शोषणवादी व्यवस्था और धार्मिक नफरत से जूझ रहा है. आज प्रोफेसर अब्दुल बारी आज जिंदा होते तो मजदूरों के हक़ों के लिए लड़ रहे होते और समाजिक ताना- बाना को हर हाल में बनाए रखने की कोशिश करते. ये दोनों मुद्दे देश में आज भी जस के तस बने हुए हैं. ऐसे में आज की नौजवान पीढ़ि को प्रोफेसर बारी के बारे में पढ़ने, जानने समझने की ज़रूरत है.