बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती 14 अप्रैल को पूरे देश में मनाई जाती है. बाबासाहेब ने दलितों के विकास को लेकर सपना देखा था. लेकिन क्या उनका सपना सच हुआ? जानिये इस आर्टिकल में.
बिहार की राजनीति हो या सामाजिक विकास, इन दोनों ही मुद्दों में बिहार के दलित समाज में हमेशा से ही चर्चा का केंद्र होता है. इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि बिहार में जातीय संघर्ष तथा आत्मसम्मान की कसौटी से जितना यह समाज गुज़रा है, उतना शायद ही कोई गुज़रा हो. शिक्षा हो, स्वास्थ्य हो या फिर सुरक्षा का मामला हो, दलित समाज हमेशा सामाजिक और आर्थिक कारणों से इसका लाभ लेने से वंचित रहा है.
1990 के दशक से लेकर वर्तमान में दलितों की बिहार में क्या स्थिति है. इस प्रश्न का उत्तर समझना इसलिए भी बेहद आवश्यक है क्योंकि समय-समय पर राजनीतिक पार्टियां दलितों को मुद्दा बनाने से नहीं चूकते.
यदि दलित समाज हमेशा बिहार की सामाजिक और राजनीतिक चर्चा का केंद्र बना रहता है, तो फिर इसको लेकर पूर्ण सुधार क्यों नहीं संभव हो पा रहा है?
1970 से 1990 के बीच दलितों की स्थिति में हुआ काफ़ी सुधार
बिहार में 1930 के दशक से ही दलितों का संघर्ष शुरू हो गया, जिसे 1925 के दशक में भूमि सुधारों की शुरुआत के बाद फिर से पुनर्जीवित किया गया.
1970 से लेकर 1990 के बीच दलितों की स्थिति में काफ़ी सुधार हुआ. दलितों ने समझ लिया था कि बिना अपने अधिकार के लिए लड़ाई लड़े उन्हें तब तक उन तमाम सुविधाओं से वंचित रखा जाएगा जिनके वह हकदार ख़ुद हैं.
आंबेडकर का बिहार के दलितों पर था प्रभाव, साल 1957 में आए थे बिहार
बाबासाहब आंबेडकर का प्रभाव केवल भारत के दलितों पर ही नहीं बल्कि बिहार के दलित समाज पर भी काफ़ी अधिक था.
अखिल भारतीय परिगणित जाति संघ के अध्यक्ष के रूप में अंबेडकर ने पहली बार साल 1957 में बिहार का दौरा किया था. 6 नवंबर को वह पटना पहुंचे.
उनके साथ उनकी पत्नी सविता अंबेडकर तथा परिगणित जाति संघ के महामंत्री पी.एन राजभोज भी थे. पटना गांधी मैदान में उनका भव्य स्वागत किया गया था.
उन्होंने उस विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि
मुझे खुशी इस बात की है कि महात्मा गांधी और बुद्ध की पवित्र भूमि पर सामाजिक क्रांति का बीज फिर से अंकुरित हो गया है. उनके इन शब्दों ने दलित समाज को अपने हक की लड़ाई के लिए मुखर और तेज़ कर दिया.
बिहार में दलितों पर एक दौर नरसंहार का भी चला
बिहार में दलितों की आवाज़ को दबाने के लिए तथा उनकी निर्ममता से हत्या करने का एक बेहद ख़तरनाक दौर भी चला. एक वक्त ऐसा भी था जब बिहार में जातीय हिंसा को लेकर कई नरसंहार हुए जिसमें कई दलित मारे गए.
1977 में बेलछी में हुई नरसंहार की घटना बिहार के सबसे चर्चित नरसंहारों में से एक है. पटना के पास बेलछी गांव में 14 दलितों की हत्या कर दी गई थी. यह घटना तब सबसे ज्यादा चर्चा में आ गई जब पीड़ित परिवारों से मिलने खुद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पहुंची थी.
बिहार में दलितों के नरसंहार और इस घटना को लेकर हमने पूर्व आईपीएस अधिकारी अमिताभ कुमार दास जी से बात की. उन्होंने हमें बताया कि
बेलछी नरसंहार की घटना 1978 की है. पटना जिले के बेलछी गांव में लगभग 14 से 15 दलित को जिंदा जला दिया गया था और उस वक्त जनता पार्टी की सरकार थी. इंदिरा गांधी विपक्ष में थीं. पिछले वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में उनकी करारी हार हुई थी. इंदिरा गांधी पीड़ित परिवार से मिलने पहुंची. उस घटना के वक्त हमलोग बच्चे थे. उस वक्त अखबार में उनकी फोटो छपी थी. सड़क इतनी खराब थी कि इंदिरा गांधी की गाड़ी सड़क के रास्ते होकर नहीं जा सकती थी. तब इंदिरा गांधी ने फैसला किया था कि वह हाथी पर बैठकर पीड़ित परिवार से मिलने जाएंगी. माना जाता है कि इस घटना के बाद उनकी सत्ता में वापसी हो गई.
उस घटना के अलावा 1978 में भोजपुर जिले के दंवार बिहटा गांव में 22 दलितों की निर्ममता के साथ हत्या कर दी गई थी. 1987 में औरंगाबाद जिले के एक गांव में 52 दलितों को मौत के घाट उतार दिया गया था. यह सिलसिला 90 के दशक में भी कायम रहा. 1991 में पटना के देवसहियारा गांव में 15 दलितों की हत्या कर दी गई थी.
दलितों के ऊपर हुए नरसंहार के विषय में आगे बताते हुए पूर्व आईपीएस अधिकारी अमिताभ कुमार दास ने हमें बताया कि
बिहार में हुए अब तक के नरसंहार में जो सबसे बड़ा नरसंहार है वह था- लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार. यह 1997 में हुआ था. हम तो खुद अरवल के एसपी रह चुके हैं. अरवल जिला तो बना ही इस वजह से था क्योंकि नरसंहार बहुत हो रहा था. दरअसल नरसंहार होने की मुख्य वजह दलित चेतना थी. पहले दलित अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को बर्दाश्त कर लेते थे. लेकिन जैसे-जैसे समय निकला दलितों ने अपनी ताकत पहचान ली. इसके कुछ दुष्परिणाम यह हुए कि कुछ दलितों ने नक्सली आंदोलन का सहारा ले लिया. मैं इसको गलत मानता हूं क्योंकि मैं किसी भी प्रकार से राजनीतिक हिंसा को ठीक नहीं समझता. लक्ष्मणपुर बाथे हत्याकांड के पीछे रणवीर सेना के होने का आरोप लगा था. यह बिहार का सबसे बड़ा नरसंहार इसलिए भी है क्योंकि इसमें छोटे-छोटे बच्चों को केवल यह कहकर को मार दिया गया था कि आगे जाकर यह भी नक्सली बनेगा.
इस प्रकार की कई ऐसी घटनाएं बिहार में घटित हुई है जहां दलितों को दबाने के लिए उनकी निर्ममता से हत्या कर दी जाती थी.
कर्पूरी ठाकुर के कार्यकाल में दलित अत्याचार को लेकर की गई थी हरिजन थाने की स्थापना
दलितों और अनुसूचित जातियों पर होने वाले अत्याचार को देखते हुए 1970 में बिहार के मुख्यमंत्री बने कर्पूरी ठाकुर ने हरिजन थाने की स्थापना की. कर्पूरी ठाकुर ने दलितों पर होने वाले जुल्म को लेकर कुछ कानून भी बनाए.
उन्होंने दलितों के विकास के लिए कई कार्यक्रम भी चलाया जैसे हरिजन छात्रावास और छात्रवृत्ति आदि. यही वजह है कि बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर को दलितों के मसीहा के रूप देखा जाता है.
लालू राज में हुआ था दलितों की स्थिति में व्यापक सुधार
1990 के बाद जब लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने तब दलितों की स्थिति में अपेक्षित सुधार देखने को मिला. संसद एवं विधानसभा में दलितों की संख्या भी बढ़ी.
लालू के राजनीतिक काल को दलितों के सुधार से इसलिए भी जोड़कर देखा जाता है क्योंकि लालू प्रसाद यादव ने अपनी राजनीति दलितों के उत्थान पर केंद्रित करते हुए की थी. खुद को गरीब का बेटा बताकर लालू प्रसाद यादव ने दलित समाज का विश्वास जीता और राजनीतिक सफलता भी हासिल की.
1967 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद दलित विधायकों की संख्या में भी हुआ इजाफा
1967 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद जितने भी चुनाव हुए उनमें दलितों और पिछड़ों की संख्या बिहार विधानसभा में बढ़ती गई. दलितों को मंत्रिमंडल में उचित स्थान मिलने लगा.
1977 के भारत के लोकसभा और बिहार विधानसभा के चुनाव यादगार साबित हुए. जगजीवन राम कांग्रेस पार्टी छोड़कर जनता पार्टी में शामिल हो गए और 1977 में जनता पार्टी की सरकार में उप-प्रधानमंत्री बन गए.
इसके अलावा बिहार के हाजीपुर लोकसभा सीट से रामविलास पासवान ने भी रिकॉर्ड मत से जीत हासिल की थी. 1968 में भोला पासवान शास्त्री और 1979 में रामसुंदर दास बिहार के मुख्यमंत्री बने जो दलित समाज के राजनीतिक सुधार का बेहद सफल उदाहरण थे.
पहला दलित उप-प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बिहार से, वर्तमान राजनीति में पिछड़े
बिहार वह राज्य है जिसने देश को पहला दलित उप-प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दिया है. यही नहीं देश की सबसे पहली लोकसभा स्पीकर भी बिहार की ही रही हैं.
60 के आखिरी दशक में भोला पासवान शास्त्री बिहार के मुख्यमंत्री बने जो भारत के किसी राज्य के पहले दलित मुख्यमंत्री थे.
इसके अलावा 70 के दशक में जगजीवन राम देश के उप-प्रधानमंत्री बने वह भी देश के पहले दलित प्रधानमंत्री थे. अगर बात 90 के दशक की करें तो रामविलास पासवान केंद्र में बराबर केंद्रीय मंत्री रहे.
इसके अलावा मीरा कुमार लंबे समय तक लोकसभा स्पीकर रहीं. लेकिन आज बिहार की राजनीति में समय के साथ दलित नेताओं की हिस्सेदारी बढ़ने की बजाय लगातार कम होती दिख रही है.
ऐसा होना बिहार में दलित राजनीति चेतना और सामाजिक स्थिति दोनों के हालात राजनीतिक अस्मिता के हिसाब से ठीक नहीं है.
बात चाहे सामाजिक सुधार की हो या आर्थिक सुधार की, यह बेहद जरूरी है कि दलित समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों की संख्या बढ़े.
वर्तमान राजनीतिक हालात को सुधारने की है आवश्यकता
दलित समाज की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि उन्हें पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाएं. बिहार में दलित नेताओं के राजनीतिक भागीदारी की एक बड़ी वजह यह भी है कि यहां दलित समाज के नेताओं की अलग-अलग पार्टी बन चुकी है और वे सभी अपनी-अपनी जाति के नेताओं को ही वोट देते हैं.
उदाहरण के तौर पर स्वर्गीय रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा के मूल वोटर पासवान समुदाय के लोग अधिक हैं. जीतन राम मांझी की पार्टी 'हम' के मूल वोटर मुसहर समाज के लोग हैं.
बिहार में दलित एकता के नाम पर कोई ऐसी पार्टी नहीं है जो पूरे दलित समुदाय को एक कर सके. इसी का परिणाम है कि दलित समाज की बिहार की राजनीति में भागीदारी कम होती जा रही है.
इस विषय पर हमने पूर्व आईपीएस अधिकारी अमिताभ कुमार दास से बात की. उन्होंने बताया कि
बिहार की राजनीति में दलितों की भागीदारी नहीं होने का मुख्य कारण नहीं है कि कोई ऐसी पार्टी नहीं है जो सभी दलितों को एक जगह इकट्ठा कर सके. बसपा जिसकी यूपी में स्थिति काफी अच्छी है वह भी बिहार में अपनी राजनीति जमाने में सफल नहीं हो पाई. इसका परिणाम यह हुआ कि दलितों का जो वोट है वह अन्य पार्टियों में कटता चला गया और विकास के नाम पर केवल उनके साथ राजनीति ही की गई.
देश में जिस तरह से अभी भी जाति व्यवस्था और दलितों का दमन जारी है, ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि अभी ये समाज बाबासाहब के सपने से कोसो दूर है. अभी भी बिहार के दलितों की स्थिति सबसे दयनीय है. ऐसे में सरकार और प्रशासन के दावे केवल कागज़ों पर ही पूरे होते हुए नज़र आते हैं.