हमारे आंगनवाड़ी में नल नहीं है बच्चों के पानी पीने के लिए और ना ही शौचालय की सुविधा है. अगर किसी बच्चे को शौचालय जाना हुआ तो उसे पीछे की तरफ खुले में जाना पड़ता है.
रेखा कुमारी जगजीवन टोला के आंगनवाड़ी की सेविका हैं. वो डेमोक्रेटिक चरखा की टीम से बात करते हुए अपने आंगनवाड़ी की स्थिति को बताती हैं. जगजीवन टोला बिहार की राजधानी पटना में स्थित है और ये सचिवालय से 600 मीटर की दूरी पर है. यहां से मुख्यमंत्री आवास कुछ मिनट के पैदल रास्ते पर है और स्वास्थ्य मंत्री मंगल पाण्डेय का आवास इस आंगनवाड़ी के ठीक सामने है. इतने राजनैतिक इलाके में होने के बाद भी जगजीवन टोला के आंगनवाड़ी की स्थिति काफ़ी खराब है. लेकिन बिहार में आंगनवाड़ी की स्थिति सिर्फ़ यहीं ख़राब नहीं है. डेमोक्रेटिक चरखा की टीम ने अलग-अलग जिलों के आंगनवाड़ी का दौरा किया और स्थिति काफ़ी ख़राब निकली. अगर बिहार के परिपेक्ष्य में आंगनवाड़ी की बात की जाए तो यहां सबसे बड़ी समस्या भवन के साथ-साथ पीने का साफ़ पानी और शौचालय की रही है. सरकार के आंकड़ें ज़मीन पर झूठे साबित होते दिखते हैं.

जल जीवन मिशन के आंकड़ों के मुताबिक बिहार के बेगूसराय में 2,567 आंगनवाड़ी हैं और सभी में स्वच्छ पेय जल की व्यवस्था की गयी है. बेगूसराय के परिहारा पंचायत के वार्ड नंबर एक में मौजूद आंगनवाड़ी में बच्चों के पानी पीने की कोई भी व्यवस्था नहीं की गयी है. इसी तरह से शेखपुरा जिले के अरियरी में मौजूद आंगनवाड़ी में मवेशियों के चारे रखे जाते हैं. बच्चों की पढ़ाई और पोषाहार को बढ़ाने के मकसद से केंद्र सरकार ने आंगनवाड़ी की शुरुआत की थी. लेकिन कहीं ना कहीं ये उद्देश्य पूरा नहीं हो सका. साल 2014-15 में 13,42,146 आंगनवाड़ियों में लगभग 10.45 करोड़ महिलायें और बच्चे लाभार्थी थे.
मार्च 2020 में आंगनवाड़ियों की संख्या बढ़कर 13,81,376 हो गयी लेकिन इनके लाभार्थियों की संख्या घट कर 8.55 करोड़ रह गई. महिला और बाल विकास मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों के अनुसार पिछले 6 सालों में आंगनवाड़ियों के लाभार्थियों की संख्या में 2 करोड़ से अधिक की गिरावट आई है. राष्ट्रीय स्तर पर जहां एक ओर आंगनवाड़ी की संख्या बढ़ी है वहीँ दूसरी ओर बिहार में संख्या नहीं बढ़ पायी है. बिहार में अभी अप्रैल 2022 के महीने में 80,211 आंगनवाड़ी हैं. आबादी के हिसाब से बिहार में कम से कम 1.2 लाख आंगनवाड़ी होने चाहिए. बिहार अपने आंगनवाड़ी के लक्ष्य से काफ़ी पीछे चल रहा है. बिहार में भी आंगनवाड़ी के लाभार्थियों में गिरावट देखने को मिली है.

आंगनवाड़ी के घटते लाभार्थियों की वजह से बिहार में कुपोषण का मामला भी बढ़ा है. बिहार सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 6 महीने से 5 साल के 63.5% बच्चों को अनीमिया है. बच्चों में अनीमिया यानी खून की कमी गर्भवती महिलाओं को सही पोषाहार नहीं मिलने की वजह से होता है. इसे रोकने के लिए सरकार द्वारा आयरन की गोलियां आंगनवाड़ी द्वारा बंटवाई जाती हैं. लेकिन बिहार में जब आंगनवाड़ी केंद्र सही से खुलेंगे नहीं तो फिर महिलाओं को आयरन की गोलियां कहां से मिलेंगी.
बिहार सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक और आंकड़ा साझा करते हुए ये जानकारी दी है कि बिहार में 42.8% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. बिहार में कुपोषण का मामला देश में दूसरा सबसे अधिक है. देश में सबसे अधिक कुपोषण महाराष्ट्र में (6,16,772) और दूसरे नंबर पर बिहार में (4,75,824) है. कुपोषण को रोकने के लिए आंगनवाड़ी में ही पोषाहार की व्यवस्था की गयी है. लेकिन सही से पोषाहार नहीं मिलने की वजह सेविका या सहायिका की लापरवाही नहीं बल्कि सरकार के फंडिंग में हुई लापरवाही है.
जगजीवन टोला की सेविका रेखा कुमारी इस मामले को समझाते हुए बताती हैं-
आंगनवाड़ी में जो पैसे आते हैं वो हर महीने नहीं मिलते हैं. कभी 3 महीने कभी 5 महीने तो कभी कभी 6 महीने बाद पैसे मिलते हैं. इसके वजह से बच्चों को सही पोषाहार नहीं मिल पाता है. हमसे जितना हो पाता है हम अपने जेब से लगा कर बच्चों को खाना देने का काम करते हैं लेकिन फिर भी उतना तो नहीं दे सकते जितना सरकार का बजट है. इस वजह से कई बार बच्चों को भूखा रहना पड़ता है.
पोषाहार के मामले पर बात करते हुए खाद्य सुरक्षा पर लगातार काम करने वाले प्रभाकर बताते हैं-
आंगनवाड़ी में लोगों को पोषाहार नहीं मिलने की एक बड़ी वजह औसत निकाल कर बजट देना है. इसकी परिपाटी गया में शुरू हुई. दरअसल CDPO (Child Development Program Officer) किसी आंगनवाड़ी के विजिट पर जाती हैं और उस समय वहां जितने बच्चे मौजूद रहें उन्हीं की संख्या लिखकर उतना ही बजट अगले महीने से देते हैं. मान लीजिये अगर किसी वजह से 7-8 बच्चे उस दिन आंगनवाड़ी नहीं आये हुए हैं तो फिर उनके पोषाहार का बजट अब आएगा ही नहीं. इस वजह से कई बच्चे पोषाहार से दूर हो रहे हैं.
शेखपुरा के अरियरी के महादलित बस्ती में एक भी कार्यरत आंगनवाड़ी नहीं है. इसके वजह से वहां के बच्चों और महिलाओं को पोषाहार, आयरन की गोलियां और बाकी ज़रूरी लाभ नहीं मिल पा रहा है. इस बात पर अधिक जानकारी के लिए जब डेमोक्रेटिक चरखा की टीम ने अरियरी की CDPO से बात की तो उन्होंने कहा-
आप एक लिखित आवेदन दे दीजिये हम इसपर जल्द से जल्द कार्यवाई करेंगे.
महादलित बस्ती की महिलाओं में से एक सुग्गा देवी ने डेमोक्रेटिक चरखा से बात की और बताया-
यहां पर आंगनवाड़ी का भवन बना हुआ है लेकिन कभी कोई सेविका या सहायिका आती ही नहीं हैं. जिस दिन कोई बड़ा अफसर आने वाले होते हैं तो फिर उसके दो दिन पहले पूरे टोला में घूम घूम कर बच्चों को ज़बरदस्ती लेकर जाती हैं.
आंगनवाड़ी का एक प्रमुख काम बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा देना भी होता है. अक्सर आज के समय में प्रारंभिक शिक्षा के लिए मां-बाप किसी बड़े प्राइवेट प्री स्कूल का रुख़ करते हैं जिनकी सालाना फ़ीस लगभग 1 लाख रूपए के आसपास होती है. लेकिन वही पढ़ाई आंगनवाड़ी में मुफ़्त में दी जाती है. लेकिन ये प्रारंभिक शिक्षा यानी प्री स्कूल की तैयारी की व्यवस्था भी अब आंगनवाड़ी में चौपट हो चुकी है. आंगनवाड़ी में बच्चों के खेलने के लिए खिलौने, किताब वगैरा दिए नहीं जाते हैं. इसकी एक मुख्य वजह है बजट में कटौती करना. वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए महिला और बाल विकास मंत्रालय को 24,435 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया, जबकि एक फ़रवरी 2020 को पेश बजट में इस विभाग को 30,007.10 करोड़ दिया गया था. कोरोना के दौर में जब महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को पैसों की सबसे अधिक ज़रूरत थी उसी समय इसके बजट में कटौती कर दी गयी. वित्तीय वर्ष 2022-23 में इसका बजट 25,172.28 करोड़ रूपए की घोषणा की गयी है. इस बजट की कटौती को समझाते हुए खाद्य सुरक्षा के जानकार प्रभाकर बताते हैं-
सरकार एक बात बार बार दोहरा रही है कि उसके पास नए आंकड़े नहीं हैं. दरअसल जो भी सरकार बजट दे रही है वो साल 2011 के सेन्सस पर दे रही है. क्या साल 2011 के बाद जनसंख्या नहीं बढ़ी? सरकार को अभी के समय में कोरोना की वजह से काम नहीं करने का बहुत अच्छा बहाना मिला हुआ है. इस वजह से ना बजट बढ़ रहा है और ना बिहार में आंगनवाड़ी की संख्या.
सरकार और प्रशासनिक लापरवाही की वजह से आंगनवाड़ी की स्थिति बिहार में ख़राब होते जा रही है. इसके वजह से सबसे अधिक नुकसान बिहार की गरीबी रेखा से नीचे आने वाले लोगों को हो रहा है. बिहार में 55% से अधिक आबादी गरीबी रेखा से नीचे आती है. आंगनवाड़ी के सुचारू रूप से काम नहीं करने की वजह से बिहार में बच्चों में कुपोषण, किशोरियों में आयरन की कमी और प्रारंभिक शिक्षा में कमी हो चुकी है.