मज़दूर दिवस विशेष: आज भी वो पांव रुके नहीं हैं, बस चलते जा रहे हैं दो वक़्त की रोटी के लिए

पिछले साल लॉकडाउन में केंद्र सरकार की ओर से अचानक लगा दिए गए लॉकडाउन के बाद मज़दूरों की बड़ी संख्या दूर राज्यों से वापस बिहार आने लगी थी. 14 सितंबर 2020 को लोकसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रम मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने ये बताया था कि अलग-अलग राज्यों से बिहार वापस लौटने वाले मज़दूरों की संख्या 15,00,612 (पंद्रह लाख छह सौ बारह) थी

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आमिर अब्बास
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मज़दूर दिवस विशेष: आज भी वो पांव रुके नहीं हैं, बस चलते जा रहे हैं दो वक़्त की रोटी के लिए
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(प्रदीप की पत्नी और सबसे छोटी बेटी)

"हमारे पास ना ही कुछ खाने के लिए और ना बच्चों को कुछ खिलाने के लिए है. सरकार वादा करती है कि राशन देंगे, कोई भूखा नहीं रहेगा लेकिन हमारा पूरा परिवार पिछले साल भी भूखा था इस साल भी हमलोग भूखे रहने की कगार पर आ चुके हैं"

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ये कहानी है बिहार की राजधानी पटना के श्रीराम की. श्रीराम पटना में ऑटो चलते हैं. उनका परिवार 5 लोगों का है, जिसमें श्रीराम, उनकी पत्नी, दो बच्चे और एक छोटा भाई है. छोटा भाई भी उनके तरह पटना में ई-रिक्शा चलाता है. पटना में आंशिक लॉकडाउन लगा हुआ है. मार्केट बंद है, ऑफिस जाने वाले लोगों की संख्या काफ़ी कम है. ऐसे में श्रीराम और उनके भाई को सवारी नहीं मिलती है. किसी दिन रिज़र्व में कोई स्टेशन से सवारी मिल जाती है या किसी दिन मरीज़ को ले जाने के लिए सवारी मिलती है. श्रीराम बताते हैं कि

"मरीज़ को ले जाने में बहुत डर लगता है. लगता है कि कहीं हमको भी कोरोना ना हो जाए लेकिन एक तो मेरी भी मजबूरी है कि कोई सवारी नहीं है तो जो मिले उसको बैठाना है और मरीज़ की भी मजबूरी है क्योंकि उसको भी एम्बुलेंस नहीं मिल रहा है"

ई- रिक्शा से मज़दूरों को अस्पताल पहुंचाते

पिछले साल लॉकडाउन में केंद्र सरकार की ओर से अचानक लगा दिए गए लॉकडाउन के बाद मज़दूरों की बड़ी संख्या दूर राज्यों से वापस बिहार आने लगी थी. 14 सितंबर 2020 को लोकसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रम मंत्री संतोष कुमार गंगवार ने ये बताया था कि अलग-अलग राज्यों से बिहार वापस लौटने वाले मज़दूरों की संख्या 15,00,612 (पंद्रह लाख छह सौ बारह) थी. हालांकि जब उनसे मज़दूरों के मौत का आंकड़ा पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मंत्रालय के पास इस तरह का कोई भी आंकड़ा नहीं है.

लेकिन कई मानवाधिकार संस्थाओं ने मज़दूरों की गैर-कोरोना मौतों का आंकड़ा तैयार किया. ऐसा ही एक आंकड़ा Thejesh GN, जो एक पब्लिक इंटरेस्ट टेक्नोलॉजिस्ट हैं, उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर तैयार किया है. Thejesh GN ने डेमोक्रेटिक चरखा से बातचीत करके बताया कि 18 मार्च 2020 से लेकर 30 जुलाई 2020 तक 991 मज़दूरों की गैर-कोरोना कारणों से मौत हुई है. इन कारणों में थकान से 47 मौत, भूख और पैसे की कमी के कारण 224 मौत, राज्य या पुलिस द्वारा हिंसा से 12 मौत, सड़क दुर्घटना से 209 मौत हुई है. कनिका शर्मा, जो एमोरी यूनिवर्सिटी से PhD कर रही हैं उन्होंने भी ट्वीट के ज़रिये आंकड़े साझा किये थे.

Even with the lockdown easing, deaths due to the lockdown continue. The latest figures (until July 4) show that there are at least 906 deaths, even more (971) if we count the unclassified/unclear cases where there are strong suggestions of the death being linked to lockdown. 1/n pic.twitter.com/5pAj5i8vWw

— Kanika (@_kanikas_) July 13, 2020

श्रमिक एक्सप्रेस, जो मज़दूरों के लिए ख़ास तौर से ट्रेन चलायी गयी थी, उसके 9 मई से लेकर 27 मई 2020 के दौर 80 मज़दूरों की मौत हुई थी.

पिछले साल मज़दूरों की मौत के मुद्दे पर हमलोगों ने लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार नासिरुद्दीन से भी बातचीत की थी. साथी ही नासिरुद्दीन ने हमें मज़दूरों की कहानियां भी हमसे साझा की थी. (मज़दूरी की कहानी देखने के लिए क्लिक करें.

13 जून, 2020 को पटना के ऑटो-चालक प्रदीप कुमार ने जगनपुर के इलाके में ख़ुदकुशी कर ली. वजह थी पैसे ना होने के कारण मानसिक दबाव. आज प्रदीप की ख़ुदकुशी को 10 महीनों से ज़्यादा हो चुके हैं. हमलोगों ने प्रदीप के पिता से जब बातचीत की तो उन्होंने बताया

"हमको आज भी यकीन नहीं हो रहा है कि प्रदीप ऐसा भी कर सकता है. उसका 3 बच्चा है. सबसे छोटी बेटी 5 साल की है. लॉकडाउन में पिछले साल एक भी दिन ऑटो नहीं चला पा रहा था. उसके पास कमाई का दूसरा रास्ता भी नहीं था. इसी वजह से परेशान हो कर वो ख़ुदकुशी कर लिया. लेकिन उसके ख़ुदकुशी की वजह अब पूरे परिवार के लिए हमको कमाना पड़ता है. पिछले साल अफ़सर साहब लोग आये थे. बोले थे कि राशन और पैसा मिलेगा. आजतक ना राशन मिला ना ही पैसा मिला. इस बार भी कोरोना बढ़ने से काम नहीं मिल रहा है. लगता है इस बार पूरा परिवार ही ख़त्म हो जाएगा"

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प्रदीप के पिता बिल्डिंग में पलस्तर का काम करते हैं. पिछले 15 दिनों से ना उनके पास कोई काम है और ना ही किसी तरह की कोई सरकारी मदद.

बेगूसराय के सुनील कुमार सूरत (गुजरात) में दैनिक मज़दूर के तौर पर काम करते थे. अब वहां काम नहीं रहने के कारण वो वापस अपने गांव लौट आये हैं. डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए सुनील कुमार बताते हैं कि

"हम लोग बाहर जाना नहीं चाहते हैं, सरकार हमें बाहर भेजने के लिए मजबूर कर देती है. अगर मेरे पास बेगूसराय या बिहार में काम रहेगा तो हम बाहर क्यों जायेंगे? हमको थोड़ी अच्छा लगता है घर परिवार से दूर रहकर काम करना. लेकिन मजबूरी है. उसके ऊपर से पिछले साल भी वापस गांव लौटना पड़ा था उसके बाद 4 महीने किसी भी तरह का काम नहीं मिला. अब स्थिति सामान्य हो रही थी कि कंपनी फिर से बंद हो गयी. अब बड़े बाबू साहब लोग तो घर से काम करते हैं लेकिन हमलोग को तो घर से भी काम करने का कोई रास्ता नहीं है और बिहार सरकार हमें काम देती है नहीं"

पिछले साल जब मज़दूरों का हुजूम बिहार की ओर आ रहा था तब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि बिहार के सभी मज़दूर वापस आ जायें, उन्हें बिहार में ही काम दिया जाएगा और साथ ही अब उन्हें बाहर जाने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी. रोज़गार को बढ़ावा देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून 2020 में 50 हज़ार करोड़ रूपए ‘प्रधानमंत्री ग़रीब रोज़गार अभियान’ के तहत 3 महीने के लिए रोज़गार देने के लिए शुरू किया गया था. इस योजना में 6 राज्यों का चयन किया गया था जिसमें बिहार भी एक राज्य था. बिहार के 32 जिले इस योजना के तहत आये थे. प्रधानमंत्री मोदी ने 20 जून को इस योजना की घोषणा करते हुए वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिये कहा था कि जो मज़दूर अपने गांव वापस लौटे हैं उन्हें उन्हीं के गांव में काम दिया जाएगा. इस योजना में से अभी तक 39,292 करोड़ रूपए ही ख़र्च किये गए हैं.

मनरेगा एक्टिविस्ट संजय साहनी ने डेमोक्रेटिक चरखा से बातचीत के दौरान कहा कि

"जो मज़दूर लॉकडाउन में बिहार लौटे थे उनके लिए मनरेगा आशा की किरण था. लेकिन दुःख की बात है कि सरकार ये नहीं समझ पायी कि मनरेगा में किस तरह से काम देना है और कैसे पैसा ख़र्च करना है. केंद्र सरकार की ओर से मनरेगा में काम करने के लिए बिहार को 2,886 करोड़ रूपए दिए थे. अगर आप मनरेगा ट्रैकर की वेबसाइट पर देखेंगे तो बिहार सरकार ने पहली तिमाही में ही 91% राशि ख़र्च कर दी. अब उनके पास पैसे ही नहीं बचे हैं वो काम कहां से दे पायेंगे"

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मोहम्मद असलम चंडीगढ़ के एक बैग फैक्ट्री में काम करते हैं. वो कटिहार के रहने वाले हैं. जब पिछले साल लॉकडाउन लगा तब वो पंजाब से पैदल कटिहार की ओर निकल गए थे. उनके जेब में सिर्फ़ 500 रूपए थे. कहीं किसी ट्रक ने उन्हें लिफ्ट दिया, अनगिनत किलोमीटर पैदल चलते हुए वो अपने गांव पहुंचे. उसके बाद उन्होंने सोच लिया कि कुछ भी हो जाए वो बिहार से बाहर काम करने के लिए नहीं जायेंगे. उसके बाद उनके घर में राशन की कमी हो गई. उसे उम्मीद थी कि सरकार उन तक राशन ज़रूर पहुंचाएगी. प्रधानमंत्री की ओर से ग़रीब कल्याण योजना की घोषणा भी इसी भरोसे के साथ की गयी थी कि लोगों को भूखे पेट ना सोना पड़े. इसके लिए सरकार की ओर से 90 हज़ार करोड़ रूपए की राशि प्रदान की गयी थी. लेकिन इस योजना में भी 14 लाख से अधिक लोगों को वंचित रहना पड़ा. तत्कालीन खाद्य मंत्री रामबिलास पासवान ने उस समय ये आंकड़ा देते हुए बिहार के उप-मुख्यमंत्री को सभी लोगों तक राशन पहुंचाने के लिए भी कहा था. लेकिन मोहम्मद असलम सहित कई लोगों तक राशन नहीं पहुंच पाया.

मोहम्मद असलम को बिहार में काम भी नहीं मिला इस वजह से वो और उनका परिवार एक वक़्त खाना खा कर या फिर दिन-दिन भर भूखे रहकर अपना किसी तरह गुज़ारा किया. लॉकडाउन खुलने के बाद मोहम्मद असलम को फिर से पंजाब बुलाया जाने लगा. बिहार में काम नहीं रहने के कारण वो वापस चंडीगढ़ चले गए. अब फिर से उनकी फैक्ट्री बंद हो चुकी है और मोहम्मद असलम वापस कटिहार पहुंच चुके हैं. हालांकि अब मोहम्मद असलम ने बिहार में काम मिलने की उम्मीद छोड़ दी है.

आज मज़दूर दिवस के दिन भी वो पांव आज तक रुके नहीं हैं, वो चलते जा रहे हैं. बस दो वक़्त की रोटी की उम्मीद में.