बिहार में 7 सालों से बंद पड़ा है अनुसूचित जाति (SC-ST) आयोग. बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान जैसे हिंदी भाषी राज्यों में जातीय चलन बहुत रुढ़िवादी है. यहां सभी जातियों के अलग-अलग टोले हैं. जहां जाति के आधार पर लोगों के व्यवहार बदल जाते हैं.
हमारे समाज में दलितों को अक्सर समाज की बुनियादी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है. ये सुविधाएं शिक्षा के क्षेत्र में हो, समाज में हो रहे उनके उपर अत्याचार को लेकर हो, या सरकार की योजनाओं का लाभ लेने से वंचित होने को लेकर हो. इन सभी समस्याओं से दलित आज भी पीड़ित हैं.
समाज में उन्हें बराबर का अधिकार देने के लिए सरकार के द्वारा कई योजनाओं का संचालन किया जाता है. वहीं समाज में उनके साथ कोई अत्याचार या अन्याय ना हो इसकी निगरानी के लिए आयोग का गठन किया जाता है.
सात सालों से बंद पड़ा है अनुसूचित जाति आयोग
बिहार में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के कल्याण और हित के लिए साल 2009 में 'अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग' का गठन किया गया. जिसका मुख्य उद्देश्य इन जातियों के कल्याण और विकास के लिए काम करना है.
साथ ही अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आवासीय विद्यालय खोलना, अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए काम करने वाली शैक्षिक संस्थाओं और समितियों को सहायता देना, अनुसूचित जाति के छात्रों को किताबें तथा अन्य साधनों के लिए अनुदान देना, अनुसूचित जाति के सदस्यों के विकास के लिए ऋण उपलब्ध कराना, अनुसूचित जातियों के लिए विशेष गृह निर्माण की योजनाओं का क्रियान्वयन करना भी आयोग का काम है.
लेकिन बिहार में यह आयोग पिछले साथ सालों से बंद पड़ा है. वहीं आयोग के सही तरीके से काम नहीं करने की वजह से पिछड़ी जातियों का राज्य में जो विकास होना चाहिए था वह नहीं हो पा रहा है.
आयोग बंद होने पर जनहित याचिका दाख़िल की गयी
इस मामले में समाजसेवी राजीव कुमार ने अप्रैल 2023 में पटना हाईकोर्ट में पीआईएल / Public Interest Litigation (PIL) दाख़िल किया है. जिसमें उन्होंने बिहार राज्य महिला आयोग अधिनियम (Bihar State Commission for Women Act,1999) तथा राज्य महादलित आयोग (State Mahadalit Commission) के बंद होने को लेकर सरकार से सवाल किया गया है.
राजीव कुमार बताते हैं
राज्य में पिछले सात सालों से अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग और पिछले तीन साल से राज्य महिला आयोग भी बंद पड़ा है. इन आयोगों के बंद होने का कारण अध्यक्ष, उपाध्यक्ष सहित कई पदों का रिक्त होना हैं. इनको तत्काल प्रभाव से शुरू करने को लेकर मैंने पटना हाईकोर्ट में पीआईएल दाख़िल किया था. जिसको संज्ञान में लेते हुए पटना न्यायालय ने नोटिस जारी कर राज्य सरकार से तीन हफ़्तों के अंदर जवाब मांगा है. अभी कोर्ट बंद होने की वजह से जवाब दाखिल नहीं हो पाया है.
सामाजिक, शैक्षणिक और कानूनी अधिकारों का हो रहा हनन
अनुसूचित जातियों के संवैधानिक अधिकार, नौकरी, आरक्षण या अत्याचार के मामलों में निष्पक्ष जांच करने के उद्देश्य से आयोग का गठन किया गया था. लेकिन आयोग के सात सालों से बंद रहने के कारण दलितों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है. साल 2022 में अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन हाईकोर्ट के आदेश पर किया गया था, जिसमें अभी भी अध्यक्ष, उपाध्यक्ष के पद ख़ाली पड़े हुए हैं.
गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच दलित-अल्पसंख्यक-ग्रामीण महिलाओं के मुद्दों का एक अधिकार मंच है. संस्था की फाउंडर प्रतिमा कुमार ने कई दलित महिलाओं के मुद्दों पर काम किया है. आयोग नहीं होने की वजह से कई दलित मामलों में न्याय नहीं मिल पाया है. प्रतिमा कुमारी बताती हैं-
पिछले दो सालों में मेरे पास अनुसूचित जाति के साथ हिंसा के लगभग 11 मामले (case) आए हैं. एक केस में मज़दूरी मांगने गयी महिला और उसके बच्चे को घर में बंद कर के पीटा गया. कहा गया- दलित महिला होकर मुझसे मुंह कैसे लगा लिया? पुलिस ने इस केस में पहली दफ़ा में एफ़आईआर (FIR) लिखने से मना कर दिया और कहा की तुमलोगों की आदत ही ख़राब है.
समय पर न्याय नहीं मिलने के कारण पीड़ित व्यक्ति निराश हो जाता है. क्योंकि न्याय की आशा में उसे वर्षों तक कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ते हैं. एफ़आईआर दर्ज कराने से लेकर न्यायालय से न्याय मिलने में सालों लग जाते हैं.
बिहार में अनुसूचित जाति की कुल जनसंख्या 15%
नेशनल कमीशन फॉर अनुसूचित जाति के मुताबिक देश के नौ राज्यों आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडू, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में देश की आबादी के 81.46% लोग अनुसूचित जाति के हैं.
2011 की जनगणना के अनुसार बिहार में अनुसूचित जाति की कुल जनसंख्या 15% है. बिहार सरकार की सूची में 214 जातियां हैं. इस सूची के अनुसार अनुसूचित जाति में 22, अनुसूचित जनजाति में 32, पिछड़ा वर्ग में 30, अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) में 113 और उच्च जाति में 7 जातियां है. जिसमें अकेले अनुसूचित जाति में 22 समुदाय हैं. जिनमें चमार, धोबी, दुसाध, घसिया, कंजर, चौपाल, भोगता, पासी, मुसहर हैं. इनकी कुल आबादी लगभग एक करोड़ के ऊपर है.
आयोग नहीं रहने से न्याय मिलना मुश्किल
आयोग का प्रमुख काम बिहार से जातिगत हिंसा को कम करना था. लेकिन आयोग नहीं रहने की वजह से बिहार में जातिगत मामलों में न्याय मिल पाना बहुत मुश्किल हो रहा है. वैशाली के राहुल (बदला हुआ नाम) दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. राहुल जब पढ़ाई करने राजधानी पटना आते हैं तो उन्हें कई बार जातिगत प्रताड़ना का सामना करना पड़ा. कई बार राहुल ने जातिगत टिप्पणियों को झेला लेकिन उन्होंने छुओ रहने का फ़ैसला लिया. इस चुप्पी की वजह बताते हुए राहुल डेमोक्रेटिक चरखा से कहते हैं-
हमें बचपन से हमेशा यही सिखाया जाता है कि हम 'नीच' हैं. लेकिन मैं ये पूछता हूं कि ये कौन तय करता है कि कौन ऊंच है और कौन नीच?
राहुल ने इसके ख़िलाफ़ सबसे पहले आवाज़ उठायी जब उन्होंने अपने शैक्षणिक संस्थान में भी भेदभाव झेलना शुरू किया. उन्होंने इस मामले को लेकर सबसे पहले अपने संस्थान में शिकायत की. लेकिन कोई सुनवाई नहीं होने के बाद उन्होंने पुलिस को इसकी शिकायत की. लेकिन पुलिस ने भी उनकी किसी भी तरह की मदद नहीं की. राहुल पुलिस के साथ अपने अनुभव पर कहते हैं-
मैंने कई बार पुलिस में SC-ST अधिनियम के तहत शिकायत दर्ज करनी चाही. लेकिन पुलिस ने कभी शिकायत दर्ज ही नहीं की. जब मैंने एक सीनियर पुलिस अधिकारी से इसकी शिकायत की तो उन्होंने कहा कि- अरे तुम्हारे दोस्तों ने मज़ाक में कहा होगा. वो बड़े अधिकारी हैं क्या उन्हें ये समझ नहीं है कि मेरे लिए ये मज़ाक नहीं है, ये अपमान है. ये उनके लिए मज़ाक होगा जिन्होंने कभी भी जातिगत प्रताड़ना नहीं झेली.
न्याय की उम्मीद छोड़ चुके हैं लोग
राहुल ने अब न्याय की उम्मीद छोड़ दी है. अगर आयोग होता तो शायद राहुल को कानूनी मदद मिल पाती. लेकिन आयोग बंद होने की वजह से आज तक उन्हें न्याय नहीं मिल पाया.
गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच की फाउंडर प्रतिमा कहती हैं
जब न्याय ही नहीं मिलता है तो लोग चुप होकर बैठ जाते है. केस कोर्ट में जाते हैं, लेकिन केस पेंडिंग रहता है और मामला सालों तक खींचता रहता है. जबकि ऐसे मामलों में स्पीडी ट्रायल का प्रावधान है. कई मामले तो थाना प्रभारी के टेबल पर ही घूमते रह जाते हैं. दलित समुदाय के लोग सोचते रह जाते हैं कि अब न्याय मिलेगा. 2017 के बाद अब लोग आयोग में केस रजिस्टर ही नहीं करवा रहे हैं, जिसके कारण इसमें भारी गिरावट आई है.
अनुसूचित जाति आयोग को बंद रखना असंवेदनशीलता की निशानी है
आयोग बंद होने के कारण न्याय मिलने में परेशानी होती है. सरकार ने जिस भी मंशा से इसे बंद कर रखा है ये बेहद ही असंवेदनशील है. ऐसे में दलितों के साथ कोई भी हिंसा होती है तो वो कहां जाएंगे? ऐसे ही ये समुदाय आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर हैं. इन्हें अभी भी संरक्षण नहीं मिल पा रहा है.
प्रतिमा इस मामले में आगे कहती हैं
आयोग था तो काम होता था. एक पहल होती थी. लेकिन अभी के समय में कोई सुनवाई ही नहीं हो रही है. पहले हम लोग बस फैक्ट फाइंडिंग करते थे और आयोग को रिपोर्ट करते थे. लेकिन अब आयोग नहीं होने की वजह से हमें ग्राउंड पर जाकर लोकल लोगों के साथ-साथ वकील (advocate) और मुखिया से मदद मांगनी पड़ती है.
ऐसे में राज्य में आयोग का काम करना बहुत ज़रूरी है. जिसकी वजह से आयोग में अनुसूचित जाति से संबंधित लगभग 20 हज़ार से अधिक मामले लंबित हैं. ऐसे में बिहार में जातिगत हिंसा पर रोक लगा पाना कठिन है.