बिहार इस समय लोक आस्था के महापर्व छठ की तैयारियों में लगा हुआ है. छठ महापर्व करने वाले परिवारों के साथ-साथ इस पूजा में उपयोग होने वाले सामानों को तैयार करने में हर धर्म और जाति के लोग पूरी मेहनत से लगे हैं.
बिहार जैसे राज्य में जहां की राजनीतिक और सामाजिक बनावट जातियों के आधार बंटी है. जातियों के आधार पर ऊंच-नीच की गहरी खाई बनी हुई है. लेकिन छठ महापर्व के दौरान राज्य में आपको कहीं भी इस भेदभाव की कड़वाहट नजर नहीं आएगी. पूरा समाज इस समय एकसाथ एकजुट होकर इस पर्व को संपन्न करने के लिए मेहनत करता नजर आता है.
बिहार के अलावा यह महापर्व झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से लगे नेपाल के क्षेत्रों में भी मनाया जाता है. हालांकि इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग देश के अन्य राज्यों या विदेशों में जहां जाकर भी बसे, वहां भी छठ महापर्व मनाया जाने लगा है.
प्रकृति की उपासना से जुड़ा आस्था का पर्व
छठ पूजा मूलतः प्रकृति की उपासना का पर्व है. इसमें व्रती डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य समर्पित कर अपने परिवार और समाज के लिए आरोग्य और उन्नति की कामना करते हैं.
छठ पर्व चार दिनों तक मनाया जाता है और इसकी शुरुआत ‘नहाय खाय’ से होती है. इस दिन व्रती सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करके शुद्ध-शाकाहारी भोजन बनाती हैं और खाती हैं.
व्रत के दूसरे दिन व्रती पूरे दिन उपवास रखने के बाद शाम के समय पूजन के बाद भोजन करते हैं. इसे ‘खरना’ कहा जाता है. सामान्यतः खरना का प्रसाद गन्ने के मीठे रस से बनाया जाता है लेकिन कुछ घरों में सेंधा नमक से भी प्रसाद बनाया जाता है.
तीसरे यानि कार्तिक के दिन संध्या अर्घ्य की तैयारी शुरू हो जाती है. सुबह से ही व्रर्ती प्रसाद बनाने की तैयारी में जुट जाती हैं. छठ के प्रसाद में ठेकुआ (गुड़ और आटे से बना), चावल आटे का लड्डू, चीनी के बतासे-सांचे और मौसमी फल चढ़ाएं जाते हैं. सारे प्रसाद को सूप में सजाकर बांस के बने टोकरी में रखकर नदी या तालाब किनारे जाकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दिया जाता है.
व्रत का समापन चौथे दिन, कार्तिक शुक्ल सप्तमी को उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के साथ होता है. इसे ‘पारण’ भी कहा जाता है.
मुस्लिम समुदाय की महिलाए बनाती हैं महापर्व छठ का चूल्हा
छठ व्रत में उपयोग होने वाले ज्यादातर सामान जैसे- सूप, बट्टा (बांस से बनी टोकरी), चूल्हा आदि स्थानीय बाजारों और स्थानीय लोगों द्वारा बनाया जाता हैं.
छठ पर्व में ठेकुआ और चावल के लड्डू सबसे प्रमुख प्रसाद है. इसे महिलाएं घर पर ही बनाती हैं. लेकिन इसे बनाने के लिए एलपीजी सिलेंडर का उपयोग नहीं किया जाता है. प्रसाद बनाने के लिए मिट्टी के चूल्हे और आम का लकड़ी प्रयोग किया जाता है. ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में चूल्हा बनाने का ज्यादातर काम दलित, महादलित और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग करते हैं.
राजधानी पटना के दरोगा राय पथ के किनारे बसे लगभग 40 से 50 मुस्लिम समुदायों के दलित परिवार वर्षों से चूल्हा बनाने का काम कर रहे हैं. ज्यादातर परिवारों की महिलाएं ही इस काम को करती हैं. 55 वर्षीय मुन्नी खातून के नौ लोगों का परिवार सालों से छठ के लिए चूल्हा बनाने का काम कर रहा है.
डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए मुन्नी खातून कहती हैं “बेटी-पतोहू (बहू) मिलकर चूल्हा बनाती है. मेरे से पहले मेरी सास और उनकी सास भी चूल्हा बनाती थी.”
मुन्नी खातून बताती हैं, उनसे अच्छा चूल्हा उनकी बेटी बनाती हैं. मुन्नी खातून की बेटी अफसाना बताती हैं “बचपन से ही यहां सबको चूल्हा बनाते देखते थे. उनको देखकर ही सीखे हैं.”
अलग समुदाय से आने के कारण क्या कभी किसी ने आपसे सामान खरीदने से मना किया है? इस पर मुन्नी खातून का जवाब शायद इस देश के उन सभी लोगों को सुनना चाहिए जो धर्म और जाति के नाम पर एक दूसरे को मारने और नुकसान पहुंचाने के लिए तैयार रहते हैं.
मुन्नी खातून कहती हैं “आज तक किसी ने जाति के नाम पर चूल्हा खरीदने से मना नहीं किया है. हाथ काटने पर सबका खून एक है.”
बेगूसराय में महादलित परिवार बनाता है दौरा और सूप
बेगूसराय का हसनपुर सूप और दौरा बनाने के लिए मशहूर है. हसनपुर में रहने वाले मल्लिक समुदाय की भागीदारी सबसे ज़्यादा होती है. मल्लिक महादलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. राजू मल्लिक पिछले 40 सालो से सूप और दौरा बनाने का काम कर रहे हैं. राजू मल्लिक और उनका परिवार हर साल छठ की तैयारी 2 महीने पहले से शुरू कर देते हैं. राजू मल्लिक और उनके परिवार के लिए छठ में अच्छी कमाई की उम्मीद रहती है.
राजू मल्लिक बताते हैं, "छठ किसी धर्म या जाति का त्यौहार नहीं है. ये बिहार का महापर्व है. इस त्यौहार में जाति भेद बिल्कुल खत्म होता है. सब हमारे हाथ का ही बना हुआ सूप और दौरा इस्तेमाल करते हैं. आज तक ऐसा नहीं हुआ कि किसी ने हमारे जाति की वजह से सूप-दौरा ना लिया हो."
छठ पर्व कठिन तपस्या का पर्व है जिसे पूरा करने के लिए पारिवारिक एक-जुटता के साथ ही सामजिक भागीदारी की आवश्यकता होती है.