निर्माण लागत 4 बार बढ़ाने के बाद भी स्कूल भवन निर्माण नहीं किया जा सका है. समग्र शिक्षा अभियान के अंतर्गत आने वाले राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के अनुसार, 14-18 वर्ष के सभी युवाओं को सुलभता के साथ सस्ती और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा मिलनी चाहिए. राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान का लक्ष्यत प्रत्ये्क बच्चे के घर से उचित दूरी पर एक स्कू्ल उपलब्धि कराना है, ताकि बच्चों की पढ़ाई ना छूटे. इस योजना के तहत किसी भी बस्ती या बसावट के 5 किलोमीटर के अंदर एक माध्यमिक एवं 7-10 किलोमीटर के अंदर एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय होना चाहिए.
स्कूल भवन निर्माण की लागत दर 4 बार बढ़ाई गयी
इसी अभियान के तहत बिहार के 30 जिलों के 262 स्कूलों को 12वीं कक्षा तक बढ़ाया जाना है. साल 2017 में शुरू हुए इस अभियान के तहत 10वीं कक्षा तक के स्कूलों में नई कक्षाओं (classroom) के निर्माण के साथ ही शिक्षकों और छात्रों के लिए अन्य सुविधाओं का विस्तार किया जाना है. यह विस्तार समग्र शिक्षा के तहत सम्मिलित राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (RMSA) के तहत किया जा रहा है.
बिहार में इन भवनों का विस्तार बिहार एजुकेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (BEIDC) द्वारा कराया जा रहा है. लेकिन इस भवन विस्तार में अनियमितता की बात सामने आ रही है. दरअसल, बीईआईडीसी ने 13 महीनों में भवन निर्माण की लागत दर 4 बार बढ़ाई है.
पहले जहां प्रत्येक भवन की निर्माण लागत 73 लाख 40 हजार रूपए निर्धारित किए गयी थी. उसे बाद में बढ़ाकर 1 करोड़ 73 लाख कर दिया गया. पहले जहां 194 करोड़ 51 लाख का ख़र्च होने थें, वो बढ़कर 458 करोड़ 45 लाख पर पहुंच गया.
हालांकि बाद में, कुछ स्कूलों में ख़र्च घटा-बढाकर इसे 377 करोड़ 69 लाख पर लाया गया. लेकिन इस हिसाब-किताब में भी राज्य सरकार को 183 करोड़ 18 लाख रुपए अधिक ख़र्च करने पड़ गए.
बजट को चार बार अलग-अलग समय पर कुछ इस तरह बढ़ाया गया:
अगस्त 2017- 73 लाख 40 हज़ार
फ़रवरी 2018- 01 करोड़ 15 लाख
मार्च 2018- 01 करोड़ 50 लाख
सितंबर 2018- 01 करोड़ 73 लाख
इस बात की पुष्टि महालेखाकार की गोपनीय जांच रिपोर्ट से हुई है. एजी ने रिपोर्ट बिहार सरकार को भेजकर इस पर जवाब मांगा है. स्कूलों में होने वाले इस निर्माण पर होने वाले ख़र्च का बजट बढ़ाने का निर्णय 2017 से 2018 के बीच लिया गया है. यहां तक की इस बढ़े हुए ख़र्च पर बीआईडीसी ने राज्य मंत्री परिषद से सहमती भी नहीं लिया है.
बजट बढ़ने के बाद भी अधूरे स्कूल भवन खंडहर में बदले
सरकार और प्रशासनिक महकमे की लापरवाही का आलम यह है कि बार-बार निर्माण लागत बढ़ाने के बाद भी कई शैक्षणिक भवनों का निर्माण पूरा नहीं हुआ है. विद्यालय परिसर में बने अधूरे भवन समय सीमा बढ़ने के कारण खंडहर में तब्दील हो रहे हैं.
बिहार में विद्यालयों के प्रति सरकार की उदासीनता केवल यहीं तक सीमित नहीं है. राज्य के लगभग प्रत्येक ज़िले में स्थित सरकारी स्कूल भवनों की हालत आज भी काफ़ी बदत्तर हैं. समग्र शिक्षा अभियान के प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड के अनुसार राज्य के 13 जिलों के सरकारी स्कूल अभी भी आवश्यक सुविधाओं (पीने का पानी, शौचालय, बिजली, लाइब्रेरी आदि) से वंचित हैं.
राइट टू एजुकेशन बिहार के कन्वेनर प्रो अनील कुमार कहते हैं
बिहार सरकार के लिए शिक्षा कभी पहली प्राथमिकता रही ही नहीं है. यह वही बिहार है जहां कभी शिक्षा और मद्य विभाग एक साथ काम करती थी. शिक्षा को लेकर सरकार की उदासीनता कोई नई बात नहीं है. सरकार कहती है हम शिक्षा व्यवस्था को निगरानी (monitoring) और इंस्पेक्शन से ठीक कर देंगे. अगर सरकार इंस्पेक्शन और मोनिटरिंग कर ही रही है तो, भवन निर्माण में हुई अनियमितता से अनभिग्य कैसे है?
अनिल कुमार आगे कहते हैं
ये सब एजेंडे की बात है. बिहार में सड़क, पुल, प्रशासनिक भवन का निर्माण हो रहा है लेकिन स्कूल भवन का नहीं. हर साल शिक्षा के लिए आवंटित बजट भी ख़र्च नहीं हो पाता है. सरकार को शिक्षा की ओर ध्यान देने में कोई लाभ नज़र नहीं आता है. क्योंकि बच्चे सरकार के वोटर नहीं है. उनका कोई संगठन नहीं है.
प्रो. अनिल बिहार की शिक्षा व्यवस्था बदलने के लिए दो महत्वपूर्ण बात बताते हैं. पहला है- पड़ोस के विद्यालय में नामांकन (चाहे सरकारी या प्राइवेट), इससे यह होगा की कोई भी बच्चा एक जीपीएस के अंदर ही नामांकन ले पाएगा जिससे प्राइवेट स्कूल बच्चों को दूर दराज से बस में लादकर नहीं ला पायेंगे.
दूसरा- सामान्य स्कूल प्रणाली लागू करना, सामान्य स्कूल प्रणाली का मतलब है एक न्यूनतम तय मानक (standard) और सुविधा सभी स्कूल में मिले. एमपी, एमएलए और अधिकारी के बच्चे जब इन्हीं स्कूलों में पढेंगे, तभी सरकारी स्कूल की गुणवत्ता में सुधार हो पायेगा.
राष्ट्रीय शिक्षा अभियान का लक्ष्य अपने मकसद से कोसों दूर
राष्ट्रीय शिक्षा अभियान के तहत सरकार पांच सालों के अंदर माध्यमिक स्तर पर नामांकन दर 90% तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर पर नामांकन दर 75% तक करने का लक्ष्य रखा है. लेकिन बिहार अभी भी इस लक्ष्य से कोसों दूर है.
समग्र शिक्षा योजना के प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड (PAB) 2023-24 के मुताबिक राज्य में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल के छात्रों के ड्रॉपआउट रेट में 0.3% की वृद्धि हुई है. साल 2020-21 में ड्रॉपआउट रेट 17.6% था जो 2021-22 में बढ़कर 20.6% हो गया. वहीं सुपौल, मधेपुरा, वैशाली, किशनगंज और दरभंगा में ड्रॉपआउट रेट 25% से भी ज़्यादा है.
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्य में प्राथमिक, माध्यमिक, और उच्च माध्यमिक विद्यालयों में नामांकन अनुपात (net enrolment ratio) बहुत कम है. राज्य में छात्रों को उनकी उम्र के अनुसार की कक्षाओं में नामांकन अनुपात को बढ़ाना होगा. राज्य के 15 जिलों में सकल नामांकन अनुपात (gross enrolment ratio) 65% से भी कम है.
अररिया(44.8%), कटिहार और किशनगंज(45.4%) जिलों में सकल नामांकन अनुपात राज्य के सकल नामांकन अनुपात (64.9%) से भी कम है. इसके साथ ही यह अनुपात पूरे देश में सबसे कम है. राज्य सरकार को नामांकन अनुपात बढ़ाने के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे.
तीन सालों में भी नहीं भरे शिक्षकों के रिक्त पद
केंद्र सरकार ने स्कूली शिक्षा के विभिन्न स्तरों के लिए निर्धारित मानदंडों के अनुसार सही छात्र-शिक्षक अनुपात बनाए रखने के लिए राज्य और केंद्र शासित राज्यों की सरकारों को सहायता देने के लिए साल 2018-19 में 'समग्र शिक्षा' योजना की शुरुआत की थी.
समग्र शिक्षा योजना के तहत 2020-21 में बिहार में प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों की 5.92 लाख रिक्तियां स्वीकृत की गईं थीं. सरकार ने उसी साल उच्च माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों की 43,000 रिक्तियों को भी मंज़ूरी थी.
इस रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में प्राथमिक स्तर पर 1,92,097 शिक्षकों के पद खाली हैं जिसमें साल 2022-23 के मुकाबले 0.87% की वृद्धि हुई है. वहीं माध्यमिक स्तर के 32,929 शिक्षक के पद खाली है जो पिछले साल के मुकाबले 8.86% बढ़े हैं.
समग्र शिक्षा योजना के प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड (PAB) 2023-24 के मुताबिक, "प्राथमिक स्तर पर बड़ी संख्या में शिक्षकों की रिक्तियां चिंता की बात है. राज्य को प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के स्कूलों में शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने को प्राथमिकता देनी चाहिए.”
राज्य में 93165 स्कूल है जिसमें से दिव्यांग बच्चों के अनुकूल केवल 25.9% स्कूल ही हैं. उसमें से भी मात्र 3.35% शिक्षक ही समावेशी शिक्षण देने के लिए प्रशिक्षित है. रिपोर्ट में राज्य सरकार को दिव्यांग बच्चों के शिक्षण के लिए ‘ठोस कदम’ उठाने का निवेदन किया गया है.
"सरकार नहीं तय कर पाई कि उन्हें कैसा समाज चाहिए"
वंचित समुदाय के बच्चों की शिक्षा पर काम करने वाले ग़ालिब खान कहते हैं
आज़ादी के 75 सालों बाद भी सरकार यह तय नहीं कर पाई है कि हमारा समाज कैसा हो. क्योंकि एजुकेशन पॉलिटिकल प्रैक्टिस की चीज है. लेकिन आजतक किसी भी पॉलिटिकल पार्टी के मेनिफेस्टों में एजुकेशन है ही नहीं.
मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री या शिक्षा मंत्री के बच्चे सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ते हैं. यहां गरीब और अल्पसंख्यक के बच्चे पढ़ते हैं. लेकिन झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले बच्चों कि शिक्षा की ज़िम्मेवारी सरकार ने कभी उठाई ही नहीं है. सरकार को लगता है केवल बजट पास कर देने से काम हो गया. लेकिन क्या कभी सरकार आवंटित पैसे से कितना और कैसा काम हुआ है उसका रीव्यू करती है. क्लासरूम बने, नहीं बने या बन भी गए तो उसकी गुणवत्ता कैसी है इसकी जांच कौन करेगा?