14 साल की मुक्ता साल्वे, 167 साल पहले मांग महार पर निबंध लिख बनी पहली दलित लेखिका

167 साल पहले पुणे, महाराष्ट्र में ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के स्कूल में एक छात्रा मुक्ता साल्वे ने घर और समाज की पीड़ाओं पर निबंध लिखा. यह छात्रा देश की पहली दलित लेखिका बन गई.

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लेखिका मुक्ता साल्वे

लेखिका मुक्ता साल्वे

एक 14 वर्षीय छोटी बच्ची जिसने अपने स्कूल में लिखे एक निबंध से पहली दलित लेखिका के रूप में पहचान बनाई. उस बच्ची ने अपनी आंखों से दलितों के साथ हो रहे भेदभाव और असमानता को करीब से देखा. स्कूल के एक निबंध में इसका जिक्र करते हुए उसने ईश्वर से लेकर ब्राह्मण और राजाओं तक पर कड़ी टिप्पणियां की. उस बच्ची का यह निबंध दुनियाभर में दलितों की स्थितियों को शब्दों में बयां करने के लिए काफी था.

15 फरवरी 1855 आज से करीब 167 साल पहले पुणे, महाराष्ट्र में ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के स्कूल में एक छात्रा मुक्ता साल्वे ने घर और समाज की पीड़ाओं पर निबंध लिखा. दलितों की मुश्किलों को लिखते हुए साल्वे कब एक छात्रा से देश की पहली दलित लेखिका बन गई यह उन्हें भी नहीं पता था. साल्वे का स्कूल में लिखा निबंध मांग महारचेया दुखविसाई/ ऑन द सफरिंग ऑफ़ मांग और महार के नाम से चर्चित है. इसमें लेखिका साल्वे ने उस दौर में मांग और महारो की पीड़ाओं को बयां करते हुए सामाजिक असमानताओं पर तीखा प्रहार किया था. जिसके लिए आज भी उनके निबंध को खूब सराहा जाता है. उनका यह निबंध दलित स्त्री साहित्य की दिशा में पहले कदम के तौर पर देखा जाता है.

लेखिका साल्वे का जन्म 1840 में पुणे में हुआ था. इस दौर में समझ में जातियों के साथ असमानता चरम पर थी. उच्च जातियों का व्यवहार छोटी जातियों के साथ असहनीय था. लेखिका साल्वे का जन्म इसी छोटी कहे जाने वाले मांग समाज में हुआ था. इस समय धार्मिक शिक्षा केवल ब्राह्मण पुरुषों तक ही सीमित थी, महिलाओं को तो पढ़ने लिखने की इजाजत भी नहीं थी और खासकर अछूतों को तो और भी नहीं. हालांकि कुछ क्रिश्चियन मिशनरियों और कुछ स्कूलों में हिंदू लड़कियों के लिए पढ़ाई की सुविधा थी. जिसमें ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले का स्कूल भी शामिल था. साल्वे ने 11 साल की उम्र में उनके लड़कियों के स्कूल में दाखिला लिया. इस स्कूल में सभी समुदायों की लड़कियों को दाखिला मिलता था. साल्वे मांग समुदाय से स्कूल जाने वाली पहली लड़की थी.

स्कूल में लिखे साल्वे के निबंध के हर एक शब्द से जातियों की सामाजिक स्थिति का अंदाज़ होता है. निबंध के जरिए वह भगवान को संबोधित करते हुए मांग और महारो की पीड़ाओं के बारे में बात करती हैं. वह भगवान से शिकायत करती हैं कि समुदाय को धार्मिक व्यवस्था से बाहर क्यों माना जाता है? ब्राह्मण समुदाय को वह पाखंडी कहती है. अपने निबंध में वह लिखती है कि ब्राह्मण कहते हैं कि वेद हमारे हैं और हमें उनका पालन करना चाहिए, तो इससे साफ है कि हमारे पास कोई धार्मिक पुस्तक नहीं है. यदि वेद ब्राह्मणों तक ही सीमित है तो वेदों के अनुसार आचरण करना ब्राह्मण का धर्म है. अगर हम धार्मिक पुस्तकों को देखने के लिए स्वतंत्र नहीं है, तो यह साफ है कि हम धर्महीन है, है ना.

एक 14 वर्षीय छात्रा ने निबंध में पेशवा युग के समय की सामाजिक स्थिति को भी बड़े ही मुखर होकर लिखा है. पेशवा काल में अन्याय और ब्राह्मणों द्वारा अछूतों के लिए होने वाले अमानवीय व्यवहार और जानवरों जैसे व्यवहार पर साल्वे ने तीखा प्रहार किया. उन्होंने लिखा ब्राह्मणों ने हम इंसानों को गाय-भैंस से भी नीचे माना है. सुनो बाजीराव के राज में हमारे साथ गधों जैसा सलूक होता था. वे लोग यह तो कहते थे कि लंगड़े गधे को मत मारो, लेकिन मांगो या फिर महारो को मत मारो ऐसा कहने वाला कोई नहीं था. इसी में वह आगे लिखती हैं कि अगर कोई अछूत पढ़ पाता और बाजीराव को उसके बारे में पता चलता तो वह कहता कि यह एक मांग पढ़ रहा है. इसे काम कौन देगा, इतना कहकर वह उसे दंड देता.

इस तरीके से साल्वे ने अपने निबंध में हर तरीके से उच्च जातियों के द्वारा छोटी जातियों पर हो रहे अत्याचारों पर सवाल उठाया था. साल्वे का लिखा हुआ यह निबंध 1855 में ज्ञानोदय में दो भागों में प्रकाशित किया गया. पहला भाग 15 फरवरी और दूसरा भाग 1 मार्च को प्रकाशित हुआ. बाद में इस  निबंध के जवाब में दो पत्र भी छपे. उसी साल यह निबंध ब्रिटिश सरकार की ओर से बंबई स्टेट एजुकेशनल रिपोर्ट में भी प्रकाशित किया गया. इस निबंध को मुक्ता साल्वे ने करीब 3000 लोगों की मौजूदगी में पढ़ा था, जिसकी तारीफ मेजर कैंडी ने की थी. कैंडी से मुक्ता ने एक लाइब्रेरी की मांग रखी थी.

लेखिका मुक्ता साल्वे का यह एक निबंध ही चर्चा तक सीमित रहा. इस 14 वर्षीय लेखिका ने आगे चलकर क्या लिखा, फिर उनका जीवन किस तरह रहा इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है. माना जाता है कि उन पर मराठी इतिहासकारों की नजर भी नहीं गई होगी, क्योंकि उस दौरान अधिकांश इतिहासकार उच्च जातियों से आते थे. उस दौर में दलित साहित्य को लेकर भी जानकारी इकट्ठा करने का कोई चलन नहीं था.

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