बिहार रंगमंच: सरकारी उदासीनता, नहीं हुई नाट्य विद्यालय की स्थापना

एक समय सांस्कृतिक शैलियों के संवर्धन में आगे रहा बिहार, युवाओं को नाट्यकला में प्रशिक्षण देने में विफ़ल हो रहा है. अन्य राज्यों में नाट्यशैली पढ़ाने के लिए नाट्य विद्यालयों की स्थापना की जा रही है, वहीं बिहार में आजतक इसके लिए कोई पहल नहीं हुई है.

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पल्लवी कुमारी
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मंच पर नाटक करते कलाकार

बिहार रंगमंच: नाट्य विद्यालय की स्थापना

रंगमंच का इतिहास भारत समेत पूरी दुनिया में काफ़ी पुराना रहा है. भारतेन्दु हरिश्चंद्र, गिरीश कर्नाड, बादल सरकार, हबीब तनवीर, लिलेट दुबे और मुद्राराक्षस जैसे अनेकों नाम हिंदी नाट्य शैली को आगे बढ़ाने में अपना प्रमुख योगदान दे चुके हैं. चुकी भारत विभिन्नताओं से भरा हुआ देश हैं यहां हर एक क्षेत्र की अलग भाषा, अलग बोली और संस्कृति है जिसके कारण अलग-अलग क्षेत्रीय नाट्य शैलियों का विकास हुआ है.

‘भोजपुरी के शेक्सपीयर’ - भिखारी ठाकुर

क्षेत्रीय नाटककारों में भिखारी ठाकुर का नाम काफ़ी ऊंचा है. भोजपुरी भाषा के विकास में अपना योगदान देने के कारण भिखारी ठाकुर को ‘भोजपुरी के शेक्सपीयर’ की उपाधि दी जाती है. भिखारी ठाकुर ने क्षेत्रीय भाषा भोजपुरी में सामाजिक कुरीतियों को नाटकों और गीतों के माध्यम से लोगों के सामने प्रस्तुत किया था. समाज में महिलाओं की स्थिति के ऊपर बिदेशिया, बेटी-बेचवा और बिधवा-विलाप जैसे नाटक उन्होंने लिखे थे. वहीं परिवार में बुजुर्गों की स्थिति पर कटाक्ष करते हुए भिखारी ठाकुर ने ‘बूढ़शाला के बयान’ में बुढ़ापे में होने वाली समस्याओं का उल्लेख किया था. उस समय बूढ़शाला (ओल्ड एज होम) की मांग करना उनकी दूरदर्शिता का परिचायक था. इसके अलावा उन्होंने जातिवाद के ऊपर ‘चौवर्ण पदवी’ और ‘नाई बहार’ जैसे नाटक लिखे जो वर्ण व्यवस्था के कारण हो रहे शोषण को प्रदर्शित करते हैं. 18 दिसंबर को भिखारी ठाकुर की 136वी जयंती मनाई जाएगी.

भिखारी ठाकुर के समृद्ध नाट्यशैली परंपरा को चतुर्भुज ज़ी, प्यारे मोहन सहाय और सतीश आनंद जैसे कलाकारों ने और आगे बढ़ाया. इन कलाकारों के अथक परिश्रम के कारण राज्य में कई रंगमंचों का निर्माण भी हुआ. एक समय बिहार में विक्टोरिया नाटक मंडली, एलिफिस्टन नाटक मण्डली, कर्जन थियेटर, पारसी थियेटर, मगध कलाकार और कलासंगम जैसी नाटक मंडली काफी लोकप्रिय रहीं. 25 मई 1943 को बंबई में इप्टा (इंडियन पीपुल्स थि‍एटर एसोसिएशन) की स्थापना की गयी थी. उसके बाद देश के अलग राज्यों में इसकी शाखाएं बढ़ने लगी. बिहार में भी चार साल बाद 1947 में डॉ एल.एम घोषाल, डॉ ए. के. जैन और राजकिशोर प्रसाद ने ‘पटना इप्टा’ की स्थापना की. 

कला को नहीं मिल रहा सरकार का संरक्षण- परवेज़ अख्तर

एक समय सांस्कृतिक शैलियों के संवर्धन में आगे रहा बिहार, युवाओं को नाट्यकला में प्रशिक्षण देने में विफ़ल हो रहा है. अन्य राज्यों में जहां नाट्यशैली को एक विषय के रूप में पढ़ाने के लिए नाट्य विद्यालयों की स्थापना की जा रही है, वहीं बिहार में आजतक इसके लिए कोई पहल नहीं हुई है.

नटमंडप से जुड़े परवेज़ अख्तर वरिष्ठ थिएटर अभिनेता और निर्देशक हैं. बिहार में नाट्य विद्यालय की स्थापना नहीं होने का कारण परवेज़ अख्तर 'जनता और सरकार' दोनों को देते हैं. अख्तर कहते हैं “इसके दो कारण हो सकते हैं सबसे पहला की जनता विमुख हो गयी और दूसरा की सरकार द्वारा इसका सही ढ़ंग से संरक्षण नहीं किया जा रहा है. जब नाट्य विद्यालय के स्थापना की बात आती है तो पहले प्रश्न यह उठता है कि आप कला को कितनी प्राथमिकता देते हैं. जब आप कला को प्राथमिकता देंगे तभी उसके प्रशिक्षण की व्यवस्था कर सकते हैं. हमारे राज्य में कला के अलग-अलग विधाओं-चाहे वह संगीत हो या चित्रकारी ही क्यों ना हो उसके लिए कितने कॉलेज हैं? तो यह प्रश्न केवल नाट्य विद्यालय से नहीं बल्कि कला विषय के लिए सरकारों की रूचि से जुड़ा है. अलग-अलग राज्यों में नाट्य विद्यालय की स्थापना हुई है लेकिन बिहार सरकार ने कभी दिखावे के लिए भी इस दिशा में काम नहीं किया है.”

परवेज

सांस्कृतिक रूप से देखने पर बिहार पांच भागों में बांटा जा सकता है- अंगिका, वज्जिका, भोजपुरी, मैथिली और मगही. अगर क्षेत्रवार भी देखा जाए तो कम-से-कम एक नाट्य स्कूल की आवश्यकता हर क्षेत्र में हैं. परवेज़ अख्तर कहते हैं “राष्ट्रीय स्तर पर एनएसडी की स्थापना हुई है लेकिन विभिन्न क्षेत्रों की नाट्यशैलियों को एक स्कूल में समेटा नहीं जा सकता. रंगमंच कभी राष्ट्रीय नहीं हो सकता है क्योंकि हर क्षेत्र के रंगमंच की अपनी अलग शैली है. इसी कारण बिहार में सांस्कृतिक क्षेत्रवार एक नाट्य विद्यालय खुलने चाहिए, भले आप शुरुआत एक से करें.”

नाट्य विद्यालय की स्थापना होने से इस क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर सृजित हो सकते हैं. परवेज़ कहते हैं “क्षेत्रीय नाट्य विद्यालय खुलने से रंगमंच से जुड़े कलाकारों को रोजगार के नए अवसर मिल सकते हैं. इससे नाट्यकला से जुड़े कलाकारों को स्थायित्व मिल सकता है.”

अनुदान देना काफ़ी नहीं

सरकार द्वारा रंगमंच से जुड़े आर्थिक रूप से कमजोर कलाकारों को अनुदान देने की योजना को परवेज़ अख्तर नाकाफ़ी मानते हैं. परवेज़ अख्तर कहते हैं “कलाकारों के समूह को अनुदान देने की नीति ठीक वैसी ही है जैसे “नंगा क्या नहायेगा, क्या निचोड़ेगा औए क्या पहनेगा?”

रंगमंच सामुदायिक गतिविधि का माध्यम है. पहले जब रामलीला, रासलीला, नाटक या नाच होता था तो इसे किसी सरकारी संरक्षण की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि इसे सामाजिक सहयोग मिला हुआ था. सैकड़ों कलाकार रंगमंच से जुड़े हुए थे उनकी आजीविका का साधन यही था. लेकिन कुछ ऐतिहासिक कारणों के कारण रंगमंच सामुदायिक गतिविधि के केंद्र से हट गया. जब कला को सामाजिक सहयोग नहीं मिलता है तो उसे राजनीतिक या सरकारी सहयोग की आवश्यकत होती है. लेकिन आज सरकार क्या कर रही है, केवल 10-15 हज़ार रूपए का अनुदान रंगकर्मियों के समूह को दे देती है. या बहुत हुआ तो किसी को 50 हज़ार से एक लाख तक का अनुदान मिलता है. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या 50 हज़ार या एक लाख में बेहतर नाटक किया जा सकता है.”

नाट्यकला को सामाजिक स्वीकार्यता नहीं मिलने के कारण आजतक यह आजीविका का श्रोत नहीं बन सका है. परवेज़ अख्तर कहते हैं “अलग-अलग तरह का काम जिनसे परिवार की आजीविका चलती है, चाहे वह डॉक्टर, इंजिनियर या कपड़े सिलने वाले दर्जी ही क्यों ना हो सबको हमारे समाज में मान्यता मिली हुई है. लेकिन एक पूर्णकालिक रंगमंच कलाकार अपने काम के माध्यम से परिवार का भरण-पोषण कर सके, ऐसी कोई इकॉलाजी आजतक नहीं बनी है. रंगमंच कलाकार को थोड़ी सी इज्ज़त के अलावा कभी कुछ नहीं मिला है.”

रंगकर्मियों के प्रति समाज के इस उदासीन रवैये पर अख्तर कहते हैं “कभी-कभी मैं विक्षुब्ध होकर कह देता हूं कि दलाली को भी एक पेशा मान लिया गया है लेकिन कलाकर्म को एक पेशे के रूप में मान्यता नहीं मिली.”

जज्बे के कारण रंगमंच से जुड़े हैं कलाकार  

रंगमंच के रास्ते फिल्मों या टीवी सीरियल में चले जाने की प्रवृत्ति को परवेज़ उचित नहीं मानते है. उनका कहना है कि “रंगमंच में स्थायित्व नहीं रहा है. रंगमंच से जुड़े बड़े-बड़े कलाकार आगे चलकर फिल्मों या टीवी सीरियल में चले जाते हैं. धीरे-धीरे यह प्रक्रिया ट्रेंड बनती जा रही है. कलाकारों ने रंगमंच को फिल्मों में जाने की सीढ़ी बना लिया है. रंगमंच या एनएसडी से जुड़ने का कारण फिल्मों में जाना भर रह गया है.”

नुक्कड़ नाटक करते कलाकार

रंगमंच के प्रति कलाकार के जज्बे पर परवेज़ अख्तर कहते हैं “कलाकर्म या रंगमंच से जुड़े लोग केवल अपने जज्बे के कारण ही उससे जुड़े हैं. रंगमंच से जुड़े लोग इसे मिशन की तरह कर रहे हैं. किसी भी समाज का पूर्णकालिक विकास तभी होगा जब भौतिक संरचनाओं के साथ-साथ उसका आत्मिक विकास भी हो. सड़क और पुल का निर्माण भौतिक संरचनाओं का विकास है लेकिन समाज का आत्मिक विकास केवल ललित कलाओं के विकास से ही होगा. किसी भी समाज की पहचान उसकी सांस्कृतिक शैलियां ही हैं.”

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