बिनोदिनी दासी का जन्म 1862 में कोलकाता में हुआ. वह एक तवायफ की बेटी थीं. उन्होंने बचपन से ही अपने घर में गरीबी देखी. आलम यह था कि महज पांच साल की उम्र में उनके छोटे भाई की शादी करा दी गई, ताकि दहेज से मिले गहनों को बेचकर घर का खर्च चलाया जा सके.
काफी कम उम्र से बिनोदिनी के कंधे पर भी घर चलाने की जिम्मेदारी आ गई थी. जिसे समझते हुए उन्होंने 12 साल की छोटी उम्र में थियेटर करना शुरू कर दिया. इस रंगमंच की दुनिया से उनकी पहचान थियेटर गायिका गंगाबाई ने कराई थी. उन्होंने ही कच्ची उम्र में बिनोदिनी को गाना सिखाया और रंगमंच के कलाकारों, निर्देशकों से मिलवाया. इसी समय गिरीश चंद्र घोष से भी बिनोदिनी मिली और उन्हें नेशनल थियेटर के एक नाटक ‘बेनी संहार’ से स्टेज पर आने का मौका मिला. इस नाटक में बिनोदिनी को बहुत छोटा किरदार निभाने का मौका मिला. मगर थियेटर की दुनिया में कदम रखने के लिए यह काफी था. इस शुरुआत के बाद छोटी बिनोदिनी को यहीं दुनिया रास आ गई. गिरीश घोष ने छोटी बिनोदिनी को रंगमंच दुनिया की बारिकियां सिखाईं और उनके अभिनय को स्टेज पर जीवंत करने का गुण सिखाया.
बिनोदिनी दासी रंगमंच की दुनिया के लिए हीं बनी थीं. वह इसके लिए घंटों कड़ी मेहनत करती, किरदारों को बार-बार पढ़ती और एक ही नाटक के कई अलग-अलग भूमिकाओं को निभाती थी. ‘मेघनाथ वध’ नाटक में उन्होंने छह अलग-अलग भूमिकाएं निभाई- परिमाला, बरुनी, रति, माया, महामाया और सीता. ‘दुर्गेश नंदिनी’ नाटक में वह तीन किरदारों को दर्शाती हुई नजर आईं. मगर ‘चैतन्य लीला’ नाटक में उन्होंने कमाल कर दिया. उन्होंने इसमें किसी महिला नहीं बल्कि संत चैतन्य(पुरुष) का किरदार निभाया. उस समय पुरुष कलाकार महिलाओं के कपड़े पहन कर, उनके जैसा रंग रूप बनाकर नाटक करते थे. मगर एक महिला का पुरुष किरदार निभाना चुनौतीपूर्ण और क्रांतिकारी कदम था. इस नाटक की चर्चा पूरे बंगाल में होने लगी थी. चैतन्य लीला नाटक को देखने महान समाज सुधारक रामकृष्ण परमहंस खुद आए थे. उन्होंने बिनोदिनी की कला से प्रभावित होकर उन्हें आशीर्वाद दिया.
चैतन्य लीला नाटक के बाद बिनोदिनी रंगमंच की दुनिया में शीर्ष पर थी. दुनिया में उनके अभिनय की चर्चा थी. मगर इसके ठीक 2 साल बाद 1887 में उन्होंने ‘बेल्लिक बाजार’ नाटक में अपना आखिरी अभिनय किया और 24 साल की दुनिया में रंगमंच को अलविदा कह दिया.
13 सालों के रंगमंच करियर में उन्होंने 80 से ज्यादा नाटक और 90 से ज्यादा किरदार निभाएं. लोग कहते हैं कि संत चैतन्य की भूमिका निभाने के बाद बिनोदिनी का दुनिया से विरक्त हो गया. वहीं कई लोग मानते हैं कि उन्होंने निजी संबंधों के कारण अभिनय की दुनिया छोड़ दी.
थियेटर की दुनिया में चुनिंदा पहली महिला कलाकारों में से एक बिनोदिनी आत्मकथा लिखने वाली भी चंद पहली दक्षिण एशिया अभिनेत्री थीं. उन्होंने साल 1912 में अपनी आत्मकथा ‘अमार कथा’ लिखी और बाद में ‘अमार अभिनेत्री जीबन’ किताब भी लिखीं. उनकी किताबें में महिला रंगमंच कलाकारों के संघर्ष को उजागर किया गया है. थियेटर की दुनिया में महिलाओं के साथ होने वाले पक्षपात और दुर्व्यवहार को उन्होंने लिखा.
कहा जाता है कि जिस थियेटर को बिनोदिनी अपनी जिंदगी मानती थी उसी ने उनकी जिंदगी में सबसे बड़ा धोखा किया. उस समय थियेटर जगत की भलाई के लिए बिनोदिनी दासी ने अपने आप का सौदा कर लिया था. दरअसल, उन्हें सपना दिखाया गया कि उनके नाम पर एक थियेटर का निर्माण होगा. लेकिन इसके लिए मशहूर बिजनेसमैन की दूसरी औरत बनकर रहने की शर्त रखी गई थी. जिसे थिएटर कलाकारों और अपने गुरु के कहने पर उन्होंने स्वीकार कर लिया. लेकिन जब थियेटर बनकर तैयार हुआ तो एक तवायफ की बेटी कहकर उन्हें दरकिनार कर दिया गया. थियेटर का नाम ‘स्टार थियेटर’ रख दिया. इन सब के बावजूद उन्होंने अपनी बाकी जिंदगी उसी बिजनेसमैन के साथ ही बिताई.
बिनोदिनी को एक बेटी भी हुई, मगर 12 साल की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गई. उसके बाद उन्होंने रंगमंच से दूर लेखन में अपने आपको डुबो दिया. सादगी भरा जीवन जीते हुए 1941 में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया.
क्रांतिकारी कलाकार बिनोदिनी दासी की कहानी पर 1994 में बंगाली फिल्म ‘नटी बिनोदिनी’ बनाई गई. बंगाल में बिनोदिनी के जीवन पर कई टीवी सीरियल भी बन चुके हैं. कुछ साल पहले हिंदी सिनेमा ने भी उनकी जिंदगी को पर्दे पर उतारने की घोषणा की थी.