बिहार विभिन्न तरह की कलाओं का भंडार है, चाहे वह परंपरागत गीत-संगीत की काल हो, नृत्य हो या पकवान. इसके अलावा राज्य में सिक्की कला, पटना कलम, मंजूषा चित्रशैली इत्यादि कला भी काफी विख्यात है. इनमें सबसे ज्यादा मधुबनी कला विदेशों तक विख्यात है. अमूमन बिहार के मिथिलांचल में बनाई जाने वाली यह कला अब पूरे राज्य में बड़े पैमाने पर सिखी, बनाई और बेची जाती है. राज्य की प्रसिद्ध कलाकार पद्मश्री दुलारी देवी भी इसी कला में परंपरागत है.
दुलारी देवी का जन्म 1968 में मिथिला के रांटी गांव में हुआ था. दलित समुदाय से आने वाली दुलारी देवी की शादी 13 साल की छोटी उम्र में ही कर दी गई थी. शादी के बाद उन्हें एक बेटी भी हुई, जो 6 महीने के भीतर ही गुजर गई. इसके कुछ साल बाद वह अपने मायके लौट गई और फिर कभी लौट कर ससुराल नहीं गई. मल्लाह जाति से ताल्लुक रखने वाली दुलारी देवी पढ़ी-लिखी नहीं थी, उनके माता-पिता भी पढ़े-लिखे नहीं थे. दुलारी देवी के पिता और भाई मछली पकड़ने का काम करते थे, जबकि मां खेती-मजदूरी करती थी. घर की माली हालत अच्छी नहीं थी, लिहाजा दुलारी देवी को भी जल्द ही घर की जिम्मेदारियां उठानी पड़ी. कई बार वह अपने पिता और भाई के साथ मछलियां पकड़ने जाती है, तो कभी मां के साथ मजदूरी करती. घर में दूर-दूर तक पेंटिंग का कोई माहौल नहीं था, लेकिन गांव में मधुबनी पेंटिंग बनाई और बेची जाती थी जिसका हिस्सा आगे चलकर दुलारी देवी भी बनी.
गांव में विख्यात कलाकार महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी के घर दुलारी देवी को झाड़ू-पोछा का काम मिल गया. घर के काम के साथ-साथ जब वह कर्पूरी देवी और महासुंदरी देवी को पेंटिंग बनाते देखती, तब उन्हें भी इसे सीखने की इच्छा होती थी. अपने घर आकर वह आंगन को लिपकर उसपर लकड़ी से चित्र बनाने लगती. आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण वह पेंट ब्रश और कैनवास खरीदने में सक्षम नहीं थी. मगर उनके इस कला प्रेम को उनकी गुरूओं ने पहचान लिया और उन्हें बढ़ावा दिया. कर्पूरी देवी ने उनके लगन को देखते हुए पेंटिंग की बारिकियां सीखाईं.
1983 में प्रख्यात पेंटर गौरी मिश्रा की संस्था ने महिलाओं को मधुबनी पेंटिंग सिखाने के लिए कैंप लगाया, जिसमें दुलारी देवी को इस पेंटिंग को और अच्छे से सीखने और बेचने का मौका मिला. इस संस्था से जुड़ने के बाद उनकी कुछ पेंटिंग बिकने लगी. संस्था में उन्होंने करीब 16 साल तक काम किया.
एक इंटरव्यू में दुलारी देवी बताती है कि मधुबनी पेंटिंग को खरीदने के लिए देश-विदेश से कई लोग संस्था आते थे. पेंटिंग से पहली कमाई उन्हें जापान से आए कुछ मेहमानों से मिली थी. इसके बाद धीरे-धीरे करके उनकी और पेंटिंग बिकने लगी. इसमें बिहार सरकार भी शामिल है. राज्य सरकार ने उनकी बनाई कमला पूजा की पेंटिंग को कुल 3 लाख रुपए में खरीदा. यह पेंटिंग बिहार म्यूजियम में लगाई गई है. बोधगया के नौलखा मंदिर की दीवारों पर भी दुलारी देवी ने पेंटिंग बनाई है, जो पर्यटकों को खासा आकर्षित करती है. इनकी बनाई पेंटिंग को इग्नू के मैथिली पाठ्यक्रम के होम पेज के लिए भी चुना गया था.
पिछले 8 सालों से दुलारी देवी मिथिला आर्ट इंस्टिट्यूट में पेंटिंग सीखने का काम करती है. इन्हें मिथिला कला की कटनी और भरनी, दोनों ही शैलियों में पेंटिंग बनाने में महारत हासिल है. वह अपनी पेंटिंग में आसपास के समाज, रीति-रिवाज और माहौल को दर्शाती है. मछुआरा समाज के जीवन संस्कारों और उत्सवों पर भी उन्होंने कई पेंटिंग बनाई है. खेतों में काम करते किसान, मजदूर, मिथिलांचल के गरीबों का दुख दर्द और बाढ़ की विभीषिका जैसे सामान्य विषयों को भी उन्होंने पेंट ब्रश से कैनवास पर उकेरा है.
मिथिला पेंटिंग में उनके विशिष्ट योगदान के लिए उन्हें कई सम्मान प्राप्त हुए हैं. ललित कला अकादमी दिल्ली की तरफ से 1999 में दुलारी देवी को सम्मानित किया गया था. बिहार सरकार ने 2012-13 में कला पुरस्कार और उद्योग विभाग ने उन्हें राज्य सरकार पुरस्कार से सम्मानित किया था. साल 2021 में 66 वर्षीय(अब) दुलारी देवी को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्मश्री सम्मान से नवाजा था.