साल 2021 में दिल्ली यूनिवर्सिटी के बीए ऑनर्स के कोर्स से दो लेखिकाओं की रचनाओं को हटा दिया गया था. इनमें पहली रचना संगति थी और दूसरी माय बॉडी और केमारू. इनमें से संगति को लेखिका बामा ने लिखा, जबकि सुकीरथरानी ने माय बॉडी और केमारू लिखी. इन रचनाओं को हटाकर एक स्वर्ण लेखिका की रचना को सिलेबस में जोड़ा गया. उस समय दिल्ली यूनिवर्सिटी से हजारों संस्थाओं और लोगों ने दलित लेखिकाओं के काम को दोबारा सिलेबस में शामिल करने की अपील की थी. लोगों ने कहा कि यह हमारे समाज में मौजूद भेदभावपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक असलियत को दर्शाता है. इसलिए इन्हें बच्चों को पढ़ना जरूरी है.
संगति किताब की लेखिका बामा एक दलित ईसाई महिला है, जिनका जन्म साल 1958 में मद्रास के पेरियार समुदाय के एक रोमन कैथोलिक परिवार में हुआ था. इनका असल नाम फौस्टिना मैरी फातिमा रानी था. बामा के पूर्वज सालों से स्वर्णों के खेतों में मजदूरी करते आए थे. उनके दादा ने हिंदू धर्म को छोड़ ईसाई धर्म अपनाया, मगर उनकी दलित जाति ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. ईसाई समुदाय में परिवर्तित होने के बाद भी उनके साथ जाति आधारित भेदभाव होते रहे थे. बामा ने बचपन से ही इन चुनौतियों का सामना किया, मगर पढ़ाई-लिखाई जारी रखी. उनकी आंखों में शिक्षिका बनने का सपना था जिसके लिए उन्होंने बीएड की डिग्री हासिल की और एक शिक्षिका बनी. अपनी नौकरी के दौरान उन्होंने यह देखा कि स्कूलों में भी दलित छात्रों के साथ जाति के आधार पर भेदभाव हो रहा है. इस जातिगत ढांचे से वह बच्चों को बाहर निकाल कर शिक्षा से जोड़ना चाहती थी, मगर इससे कई लोग नाखुश थे.
अपने साथ और दूसरे दलितों के साथ हो रहे भेदभाव पर उन्होंने 1992 में एक किताब लिखी ‘करुक्कु’. यह किताब तमिल भाषा में लिखी गई. दलित लेखन के क्षेत्र में तमिल भाषा में लिखी गई यह पहली आत्मकथा थी, जिसमें लेखिका बामा ने अपने बचपन से जुड़े कई अनुभवों को लिखा था.
बाद में इस किताब का अंग्रेज़ी अनुवाद किया गया और साल 2000 में इसे क्रॉसवर्ड बुक अवार्ड से सम्मानित किया गया. आगे चलकर इसे कई कोर्स में भी शामिल किया गया. इस किताब से उन्होंने स्वर्णों के ऊपर सवाल उठाते हुए उनकी खूब आलोचना की थी. उनकी आत्मकथा पर लोगों को काफी आपत्ति थी, बामा के गांव वालों ने तो उन्हें 7 महीने तक गांव में प्रवेश की इजाजत नहीं दी.
मगर लेखिका बामा ने समाज की फिक्र छोड़ सच्चाई को सामने रखने की ठानी. आगे चलकर उन्होंने कई ऐसी रचनाएं की जिन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. उनकी कई कहानियों में नारीवादी दृष्टिकोण भी साफ झलकता है.
1976 से 2015 तक बाड़मेर में स्कूली बच्चों को शिक्षित कर उन्होंने रिटायरमेंट लिया. रिटायरमेंट के समय उन्होंने कहा कि वह बहुत भाग्यशाली है कि उन्हें शिक्षा मिली, जो उच्च जाति के पुरुषों का विशेषाधिकार है. दलित होने के बावजूद शिक्षिका होना उनके लिए भाग्यशाली है.
लेखिका बामा ने संगति, वनमम के साथ तीन लघु कथा संग्रह और 20 लघु कथाएं भी लिखी है.
बामा की लेखनी से पता चलता है कि जिन शिक्षकों को हमारा समाज भविष्य को आकार देने और समाज सुधारने का एक जरिया समझता है, उसमें बड़े स्तर पर आज भी भेदभाव मौजूद है. लेखिका बामा इस भेदभाव से गुजर चुकी है, मगर उनकी कोशिशें ने कहीं ना कहीं बदलाव की शुरुआत कर दी है.