बेगम हजरत महल या अवध की बेगम या मुहम्मदी खानम यह तीनों नाम एक ही महिला के हैं. बेगम हजरत महल अवध के नवाब वाजिद अली शाह की दूसरी पत्नी थी. मगर उन्हें इस पहचान से परे जाना जाता है. बेगम महल को अंग्रेजों से अपने रियासत बचाने के लिए याद किया जाता है. साल 1856 में अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेजों ने गद्दी से उतार दिया और उन्हें शहर से निर्वासित कर दिया. शहर छोड़ने से पहले नवाब ने अपनी नौ बीवियों को तलाक दिया, जिसमें बेगम महल भी शामिल थी.
नवाब के जाने के बाद वह लखनऊ में ही रुकी और आजादी की लड़ाई छेड़ दी. 1857 में बेगम महल के नेतृत्व में ही क्रांतिकारियों ने लखनऊ को चारों तरफ से घेर लिया. वह इस क्रांतिकारियों और अंग्रेजों के बीच चिनहट में भारी लड़ाई हुई और अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी. इस लड़ाई में बेगम महल के नेतृत्व की जीत हुई, जिसके बाद उन्होंने अपने बेटे बिजरिस कद्र को अवध का नवाब बनाया. मगर यह कहानी इतनी छोटी ही नहीं है.
बेगम हजरत महल का जन्म लखनऊ से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर फैजाबाद में एक गरीब सैयद परिवार में हुआ. उनके जन्म के बाद परिवार ने उनका नाम मुहम्मदी खानम रखा. जन्म देते वक्त उनकी मां गुजर गई, पिता फैजाबाद में ही छोटे-मोटे काम करते थे. जब मुहम्मदी थोड़ी बड़ी हुई तो पिता के साथ लखनऊ आकर रहने लगी. मगर जब वह 12 साल की थी, तब उनके सर से पिता का भी हाथ उठ गया जिसके बाद वह अनाथ हो गई. अनाथ मुहम्मदी का भरण-पोषण अब चाचा के जिम्मे आ गया. चाचा-चाची किसी तरह से अपने परिवार का गुजारा करते थे, उनके पास भी हमेशा पैसे की तंगी रहती थी. एक दिन चाचा ने मोहम्मद को कुछ रुपयों के बदले बेच दिया. मुहम्मदी अब घर से निकल कर सीधे तवायफों के मोहल्ले पहुंची. यहां कोठी पर उनकी ट्रेनिंग शुरू हुई, उन्हें गीत-संगीत, नाच और फारसी सिखाई गई.
जब मुहम्मदी 23 साल की हुई तब वह नवाब वाजिद अली शाह के शाही हरम पहुंची. कुछ इतिहासकारों का दावा है कि वह शाही महल में बतौर नौकरानी काम करने गई. यहां कुछ वक्त में ही उन्होंने अपने हुनर से नवाब वाजिद का दिल जीत लिया. नवाब ने मुहम्मदी से कॉन्ट्रैक्ट मैरेज किया और उनका नाम महक परी रखा. बाद में उन्हें इफ्तिखार उन निशा की उपाधि दी गई. बेटे बिजरिस के जन्म के बाद मुहम्मदी खानम बेगम हजरत महल के रूप में जानी गई.
1857 के भारत विद्रोह के बाद बेगम हजरत नेपाल गई, जहां 1879 में उनकी मृत्यु हो गई.