आज से ठीक 204 साल पहले गांधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ एक आंदोलन की शुरुआत की थी. अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ गांधीजी ने 1 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन शुरू किया था. इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य हर एक अंग्रेजी तंत्र से भारतीयों को अलग रखना और अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करना था. यह आंदोलन बड़े व्यापक स्तर पर सफल रहा था. इस दौरान छात्रों ने स्कूलों और कॉलेज में जाना छोड़ दिया, वकीलों ने अदालत में जाने से इनकार किया. देशभर के शहरों और गांव तक में हड़ताल सफल हुई थी. आंकड़ों के मुताबिक 1921 में 396 हड़ताल देशभर में हुई थी. जिससे काफी नुकसान अंग्रेजों को उठाना पड़ा था.
यह असहयोग आंदोलन देश के इतिहास में अपनी सफलता और एकजुटता के कारण दर्ज हुआ. आज के जमाने में भी छोटे-छोटे तरीके के असहयोग आंदोलन 2.0 होते रहते हैं. जिनमें पर्व-त्योहारों के समय वोकल फाॅर लोकल आंदोलन सबसे ज्यादा परवान चढ़ता है. खासकर दिवाली के मौके पर सोशल मीडिया से लेकर, अखबारों और लोगों से भी यह सुनने मिलता है कि लोकल चीजें खरीदो, चाइनीस प्रोडक्ट्स का बहिष्कार करो, विदेशी चीजों को खरीदना बंद करो. अपने आसपास के लोगों का सहयोग करते हुए मिट्टी के दिए, कागज के झालर और फूलों से घर को सजाओ. यह भी एक छोटा आंदोलन ही है, लेकिन इसमें सहयोग सिर्फ कुछ लोगों द्वारा और कुछ दिनों के लिए ही किया जाता है. दिवाली खत्म तो यह सहयोग भी खत्म हो जाता है.
अमूमन दिवाली में ज्ञान देने वाले लोकल फाॅर लोकल कहने वाले लोगों को अपने जन्मदिन के मौके पर विदेशी ब्रांड के गिफ्ट्स और कपड़े पसंद आते हैं. जन्मदिन मनाने के लिए अच्छे फाइव स्टार और महंगे होटलों में दारु शराब और न जाने क्या-क्या विदेशी चीजें मांगते हैं. मगर उस दिन मंदिर और गरीबों को खिलाने के लिए वोटल फाॅर लोकल “स्लैंग” भूल जाते हैं. घर में पाला जाने वाला पालतू कुत्ता भी इन्हें अंग्रेजी नस्ल का चाहिए होता है. खादी के कपड़े इन्हें पसंद नहीं आते और गुच्ची की साड़ी को एक्सक्लूसिव कहकर खरीद लाते हैं.
भारत भ्रमण में इन्हें कोई दिलचस्पी नहीं और पैसे बचाकर स्विट्जरलैंड, थाईलैंड की ट्रिप करते हैं. फोटों चिपकाकर- इसके जैसी खूबसूरती कहीं नहीं, कैप्शन भी डालते हैं. वोकल फाॅर लोकल कहने वाले हिंदी और अपने पारंपरिक गानों को छोड़कर, अंग्रेजी गानों को सुनना बहुत पसंद करते हैं. घर से बाहर सब्जी लाने भी इन्हें किसी सुपरमार्केट में ही जाना होता है. दो कदम पर सब्जी ठेले वाला मानो उनके नजर ही नहीं आता.
जिस दौर में असहयोग आंदोलन हुआ था उस समय आज की तरह हर हाथ में मोबाइल फोन और इंटरनेट नहीं था. मगर फिर भी वह आंदोलन सफल माना जाता है. आज के समय हर दूसरे हाथ में फोन है, इंटरनेट है, सोशल मीडिया है और सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर भी है. मगर वोकल फाॅर लोकल का कॉन्सेप्ट बारिश में मेंढक की तरह बाहर आता है और फिर किसी तालाब में छुप जाता है.