भारत में सती प्रथा को जड़ से खत्म करने वाले महान समाज सुधारक राजा राम मोहन राय की आज पुण्यतिथि है. समाज में उनके संघर्ष आधुनिक इतिहास में बेहद महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. 22 मई 1772 को बंगाल के राधानगर के एक प्रतिष्ठित जमींदार घराना में उनका जन्म हुआ. उन्होंने अपने पिता के इच्छा अनुसार फारसी और अरबी भाषण की पढ़ाई की. दरअसल अरबी और फारसी भाषाओं का उस समय कचहरियों में काफी चलन था, जिस कारण उन्होंने इन भाषाओं की पढ़ाई की. इसके अलावा कुल प्रथा और संस्कारों के अनुसार उन्होंने संस्कृत और हिंदू धार्मिक ग्रंथो का भी अध्ययन किया.
कई जगहों पर जिक्र मिलता है कि राजा राम पूजा पाठ में इतनी आस्था रखते थे कि बिना पूजा किए वह पानी की एक बूंद भी नहीं लेते थे. मगर उनके जीवन में ऐसा बदलाव आया कि वह हिंदू धर्म में होने वाली मूर्ति पूजा और धार्मिक कर्मकांडों के बिल्कुल विरुद्ध हो गए. राजा राम ने जब अरबी भाषा की पढ़ाई की तब उनके मन में धीरे-धीरे और भी भाषाओं को जानने की इच्छा जागृत होने लगी. इस दौरान उन्होंने इस्लाम धर्म का भी ज्ञान हासिल किया और यूक्लिड और अरस्तू की किताबों को भी पढ़ा. इसी दौरान उनके मन में मूर्ति पूजा के विरुद्ध सवाल खड़े होने लगे.
राजा राममोहन की यह सोच उनके पिता से बिल्कुल विरुद्ध थी, जिसके बाद 15 साल की उम्र में ही उन्होंने पिता का घर छोड़ दिया. घर छोड़कर वह तिब्बत चले गए और यहां बौद्ध धर्म को काफी करीब से देखा. मगर उनके अंदर इस धर्म के प्रति भी आस्था जागृत नहीं हुई. हालांकि यहां से उनके सामाजिक सफर की शुरुआत हुई. दरअसल तिब्बत में एक घटना के दौरान महिलाओं ने उनकी जान बचाई थी, इसके बाद ही महिलाओं की समस्याओं पर राजा राम ने ध्यान केंद्रित किया. उन्होंने महिलाओं की स्वतंत्रता, अधिकार और शिक्षा के लिए जीवन भर काम किया. धर्मों की सोच से दूर उन्होंने ब्रह्म समाज की संस्थापना की.
राजा राम ने ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी छोड़कर खुद को समाज सुधार में पूरी तरह लगा दिया था.
जिस सती प्रथा के खिलाफ राजा राम ने मुहिम छेड़ी थी वह उनके घर में ही घटित हो गई. 1811 में राजा राममोहन किसी काम से विदेश गए थे तब ही उनके भाई की मृत्यु हो गई. उस समय देश में प्रचलित सती कुप्रथा की शिकार उनकी भाभी हो गई. इस घटना ने राजा राम को अंदर से झकझोर दिया. अपने अंदर क्रोध और ग्लानि को लेकर उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक वह सती प्रथा को खत्म नहीं कर देंगे तब तक चैन नहीं लेंगे.
इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए राजा राम ने अंग्रेजी शासको को कई पत्र लिखें, उनके दृढ़ निश्चय का ही संकल्प था कि 4 दिसंबर 1829 को तत्कालीन ब्रिटिश भारत में सती रेगुलेशन एक्ट पास हुआ. इससे ब्रिटिश भारत में ही सती प्रथा पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई थी.
18-19वीं सदी में भारत में सामाजिक बदलाव लाने के लिए राजा राम मोहन ने विदेश से भी कई प्रेरणाएं ली. उस समय विदेश भारत के मुकाबले विचारों के मामले में काफी प्रगतिशील था. समाज सुधार, शिक्षा के अलावा राजा राम ने पत्रकारिता क्षेत्र में भी अपना योगदान दिया. 1822 में उन्होंने मिरात उल अखबार नाम की पत्रिका शुरू की थी.
अपने जीवन काल में अनेकों सामाजिक कार्य करते हुए 27 सितंबर 1833 को 61 वर्ष की आयु में राजा राममोहन राय का देहांत हुआ. राजा राम का देहांत इंग्लैंड में हुआ जहां दाह संस्कार की परंपरा नहीं है. जिसके चलते उनके शरीर को इंग्लैंड के कब्र में दफनाया गया है.