आदिवासी अधिकारों के लिए लिखने वाली लेखिका रमणिका गुप्ता यूं तो पंजाब में जन्मी, मगर बिहार में वह काफी लोकप्रिय है. स्वर्ण जाति से ताल्लुक रखने वाली रमणिका ने अपनी कलम के जरिए मजदूरों, किसानों, आदिवासियों की कई दबी हुई आवाज को राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया है.
24 अप्रैल 1930 को सुनाम, पंजाब में रमणिका गुप्ता का जन्म हुआ. जन्म के बाद वह बिहार आ गई और यहां की राजनीति, लेखन, सामाजिक कार्यों और अधिकारों की लड़ाई में प्रमुख हिस्सा बनी. उनकी पहचान एक निडर लेखिका के रूप में होती है, जो कई मुद्दों पर अपनी आवाज बखूबी उठाना जानती थी. उनकी प्रमुख संरचनाओं में प्रतिरोध, गधे का सर, मैं आजाद हुई हूं, आपहुदरी(आत्मकथा) शामिल है.
रमणिका की इस आत्मकथा में कई बातें लिखी गई है जिसपर उस समय सवाल भी खड़े हुए थे. लेखिका रमणिका ने उन सवालों के जवाब में बेझिझक कहा कि जो गलत करता है, समाज में गंदगी को बढ़ावा देता है उसे शर्म आनी चाहिए. मैंने सिर्फ अपनी आत्मकथा में हकीकत बयां किया, जो मैंने भोगा, जिया, देखा उसे ही शब्दों में डाला है. उनका मानना था कि महिलाओं की सुरक्षा और समाज में बदलाव एक महिला को निडर और सच बोलने की जरूरत है.
दरअसल उन्होंने अपनी आत्मकथा आपहुदरी में बचपन से लेकर राजनीतिक जीवन तक के कई अनुभवों को लिखा है. वह बिहार विधानसभा और विधान परिषद में विधायक भी रही थी. इस दौरान स्त्रियों के साथ घर-परिवार और राजनीतिक स्तर पर होने वाले शोषण भी उन्होंने अपनी आत्मकथा में शामिल किया है. आपहुदरी में बिहार के एक राज्य मंत्री को लेकर बड़ा खुलासा भी शामिल है, इसमें रमणिका ने अपने साथ हुए यौन हिंसा पर खुलकर लिखा है. आगे वह राजनीति में महिलाओं की सुरक्षा, नेता- मंत्रियों के साथ महिलाओं के रिश्ते पर भी कई सवाल खड़े करती हैं.
रमणिका गुप्ता शुरुआत से ही राजनीति का हिस्सा रहने लगी थी. मात्र 14 साल की उम्र में ही उन्होंने राजनीतिक गलियारे में कदम रखा था. स्वतंत्रता आंदोलनों में हिस्सा लेने वह चोरी-छिपे घर से भाग जाया करती थी. उनके अंदर स्वतंत्रता का जुनून अपने पिता, जो सेना में थे और भाई, कम्युनिस्ट पार्टी के नेता से मिला था. उनकी राजनीति शुरुआत से ही छात्रों और किसानों के हित में घूमती थी.
एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि परिवार बड़ा होने के बावजूद सभी पढ़ाई-लिखाई में रुचि रखते थे. उस दौर में मेरी मौसियों ने भी बीए-एमए तक पढ़ाई की थी. रमणिका की शादी एक सिविल सर्विस ऑफिसर से हुई. बिहार के अलावा झारखंड में भी रमणिका का बड़ा प्रभाव रहा है. उन्होंने झारखंड के हजारीबाग के कोईलांचल में मजदूरों की समस्याओं को अपने साहित्य के जरिए राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया.
रमणिका गुप्ता “युद्धरत आम आदमी” (1986) की संपादक भी थी. इस पत्रिका का मुख्य उद्येश्य आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक और महिलाओं के साहित्यों को जगह देना था. 89 साल की उम्र में उन्होंने अंतिम सांस ली. मगर आखिरी समय तक वह सामाजिक काम और साहित्य से जुड़ी रही थी.