हमारे देश में महिलाएं ही महिलाओं को सशक्त करने का काम करती है. महिलाओं के सशक्तिकरण का उदाहरण पुराने दौर से ही देखने मिलता है. जिस समय सशक्तिकरण की पहचान घर-घर तक नहीं पहुंची थी, उस दौर में भी महिलाएं खुद के दम पर अलग मिसाल पेश कर रही थी. ऐसे ही एक सशक्त महिला थी महाराष्ट्र के नागपुर जिले की रहने वाली जाईबाई चौधरी. दलित घर में जन्मी जाईबाई ने अपने घर चलाने के लिए कुली तक का काम किया और बाद में टीचर बनी और फिर दलित एक्टिविस्ट के रूप में समाज में अपनी बड़ी पहचान बनाई.
जाईबाई का जन्म महाराष्ट्र के नागपुर जिले से 15 किलोमीटर दूर उमरेड में 2 मई 1892 को हुआ. दलित परिवार में जन्मी जाईबाई की शादी महज 9 साल की उम्र में बापूजी चौधरी से करा दी गई. उनके पति के घर की माली हालत अच्छी नहीं थी, जिस कारण शादी के बाद उन्हें परिवार का पेट पालने के लिए काम करने की जरूरत पड़ी. अशिक्षित जाईबाई को तब रेलवे स्टेशन पर कुली का काम मिला. वह पहली महिला कुली के नाम से भी जानी जाती हैं.
जिस उम्र में बच्चे हंसते-खेलते और अपने मां-बाप का प्यार पाते हैं, उस समय जाई बाई कमर तोड़ मेहनत कर अपने परिवार का पेट पालती थी. कुली का काम करने के दौरान एक दिन मिशनरी नन ग्रेगरी की नजर उन पर पड़ी. ग्रेगरी का भारी भरकम बैग उठाकर जाई बाई ले जा रही थी, इस दौरान ग्रेगरी ने उनसे बातचीत की. मिशनरी नान को जाईबाई तेज और बुद्धिमान लगी, उन्होंने बिना पल गवांए उस छोटी कुली को पढ़ने के लिए की स्कूल में दाखिला कराया. बाद में उन्होंने जाईबाई की मदद कर एक मिशनरी स्कूल में टीचर की नौकरी भी दिलवाई. मगर स्कूल में पढ़ रहे बच्चों के अभिभावकों को यह पसंद नहीं आया. दरअसल जाई बाई एक दलित टीचर थी और अभिभावकों को यह गवारा नहीं था कि एक दलित टीचर उनके बच्चों को पढ़ाए. कई बच्चों को अभिभावकों ने स्कूल भेजना बंद कर दिया था, इससे स्कूल प्रशासन ने जाईबाई को नौकरी से निकाल दिया.
शिक्षिका की नौकरी जाने से वह काफी आहत हुई, मगर उन्होंने अपनी हिम्मत नहीं हारी और लड़कियों के लिए स्कूल खोलने की ठानी. साल 1992 में उन्होंने नागपुर में दलित और गरीब लड़कियों के लिए स्कूल खोला, जिसका नाम संत चौखामेला कन्या विद्यालय रखा.
जाईबाई सिर्फ बच्चों को शिक्षित करने तक ही सीमित नहीं रही, उन्होंने समाज की कई चुनौतियों के पार अपने कदम को रखा. इस दौरान उन्हें विरोध का भी सामना करना पड़ा, मगर जाई बाई के अंदर बदलाव की एक किरण जल रही थी जिसे उन्होंने कभी बुझने नहीं दिया. दलितों के अधिकारों के लिए काम करते हुए उन्हें कई बार अपनी ही जाति से विरोध का भी सामना करना पड़ा.
बीबीसी में छपी रिपोर्ट के मुताबिक साल 1937 में ऑल इंडिया वूमेन कांफ्रेंस के आयोजन में दलित एक्टिविस्ट के तौर पर जाईबाई को हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया गया. कॉन्फ्रेंस में जब खाने का समय हुआ तो ऊंची जाति की महिलाओं ने उन्हें अलग बैठने को कहा और अलग से खाना दिया. इस पर जाईबाई और उनकी सहेलियां काफी गुस्सा हुई और उन्होंने इस तरह के कार्यक्रमों में कभी शामिल न होने का निश्चय किया. इसके विरोध में 1 जनवरी 1938 को दलित महिलाओं ने एक बड़ा सम्मेलन किया, जो दलित महिलाओं के सम्मेलन इतिहास में काफी कामयाब रहा है.
साल 1922 में चोखामल स्कूल को उच्च माध्यमिक स्कूल बना और इसका नाम बदलकर जाईबाई चौधरी ज्ञानपीठ स्कूल किया गया. जाईबाई ने कुली से लेकर शिक्षिका और दलित एक्टिविस्ट के तौर पर काम किया. उन्होंने समाज में छुआछूत, अशिक्षा से लेकर महिलाओं को सशक्त करने की ओर कई महत्वपूर्ण कदम उठाएं.