झारखंड दिवस: आदिवासी राष्ट्रपति के बाद भी आदिवासियों से परहेज़ क्यों?

झारखंड राज्य का निर्माण मूलनिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए ही हुआ था. लेकिन क्या राज्य और केंद्र सरकार इस काम को कर पायी? क्या जनजातीय समुदाय के लोगों को उनके मूलभूत अधिकार भी मिल पाए?

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आमिर अब्बास
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झारखंड दिवस: आदिवासी राष्ट्रपति के बाद भी आदिवासियों से परहेज़ क्यों?

अगर आज के समय आप किसी से भी सवाल पूछेंगे कि क्या हमारे समाज में जाति-धर्म-लिंग-समुदाय के आधार पर भेदभाव है? तो उनका जवाब बिना एक सेकंड के देरी के यही आएगा कि "ये सब पुराने ज़माने की बाते हैं". लेकिन क्या ये सच है? समाज के भेदभाव की बात बाद में करेंगे लेकिन हमें सबसे पहले ये पूछना है कि क्या सरकार इस आधार पर भेदभाव करती है? क्या आज के समय हमारे देश के मूलनिवसीयों या अनुसूचित जनजातियों के साथ भेदभाव होता है? सरकार इसका जवाब चाहे जो भी दे, लेकिन इसका जवाब है हां.

झारखंड राज्य का निर्माण मूलनिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए ही हुआ था. लेकिन क्या राज्य और केंद्र सरकार इस काम को कर पायी? क्या जनजातीय समुदाय के लोगों को उनके मूलभूत अधिकार भी मिल पाए? आज के ही दिन यानी 15 नवंबर 2000 को बिहार के छोटा नागपुर हिस्से को अलग किया गया और उस राज्य को नाम दिया गया झारखंड. झारखंड देश का 28वां राज्य बना. जिस समय झारखंड का निर्माण हुआ था उस समय जनजातीय समुदाय को काफ़ी उम्मीद थी कि इस राज्य निर्माण से उनकी तकलीफ़ें दूर होंगी. आज 24 साल के बाद झारखंड दिवस के दिन सवाल ये है कि क्या ये तकलीफ़ें दूर हुईं?

क्यों आज भी जनजातीय गांवों में मूलभूत सुविधाएं गायब हैं? 

झारखंड का नाम सुनते ही लोगों के दिमाग में धनबाद-जमशेदपुर में लगी बड़ी-बड़ी फैक्ट्री की एक तस्वीर बनने लगती है. लेकिन झारखंड की हकीकत, तीन-चार बड़े शहरों को छोड़कर, तकलीफ़ों से भरी हुई है. झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 3 घंटे की दूरी पर है सिमडेगा जिला. लगभग 6 लाख की आबादी वाले इस जिले में 70.8% आबादी जनजातीय समुदाय की है. इस जिले की 90% से  अधिक आबादी गांव में रहती है. जनजातीय बहुल इस जिले में बच्चों के लिए ठीक से आंगनवाड़ी भी मौजूद नहीं है.

कुछ साल पहले सिमडेगा में ही संतोषी नाम की एक बच्ची की मौत भूख से हो गयी थी. लेकिन इसके बाद भी सरकार का बच्चों के पोषाहार पर कोई ख़ास ध्यान नहीं रहा. सिमडेगा के कोचिडेगा प्रखंड के लोकीबहार गांव की आंगनवाड़ी कागज़ पर कार्यरत होने के बाद भी बंद है. सेविका-सहायिका की लाखों कोशिशों के बाद भी इस आंगनवाड़ी केंद्र में बच्चे नहीं आते हैं. वजह है, आंगनवाड़ी भवन का पूरे तरह से टूटा होना. ग्रामीणों को डर रहता है कि ये भवन कभी भी टूट सकता है. इस वजह से ग्रामीण अपने बच्चों को इस केंद्र में भेजते ही नहीं हैं. इस वजह से गांव के कई बच्चे पोषाहार से दूर हो जाते हैं. 

इस आंगनवाड़ी केंद्र की सेविका डेमोक्रेटिक चरखा की टीम से बात करते हुए कहती हैं, "इस भवन की मरम्मती के लिए हमने कहां आवेदन नहीं दिया है. कई सालों से भवन की यही हालत बनी हुई है. केंद्र पर बच्चे नहीं आते हैं. कई बार तो हम लोग गांव में लोगों के घर जाकर बच्चों को केंद्र पर लाने की कोशिश करते हैं. लेकिन कोई भी अपने बच्चों को इस भवन में नहीं भेजता है." 

टूटा हुआ आंगनवाड़ी केंद्र

केंद्र सरकार के साल 2024-25 के बजट में 'सक्षम आंगनवाड़ी' और पोषण 2.0 के लिए 21,200 करोड़ रूपए का प्रावधान रखा गया है. इसका उद्देश्य आंगनवाड़ी का विकास कर महिलाओं और बच्चों में फैले कुपोषण से लड़ना है. इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद जनजातीय बहुत इलाके में आंगनवाड़ी का निर्माण भी नहीं हो पा रहा है. 

पीठ पर बच्चा, हाथ में भारी बर्तन 

पानी का महत्व हमारे जीवन में कितना ये सभी को मालूम है. लेकिन इसके बाद भी लोहरदगा जिले के सेन्हा प्रखंड में आज भी पानी की समस्या काफ़ी अधिक है. यहां हालात इतने बुरे हैं कि महिलाओं को 3 किलोमीटर दूर पैदल जाकर पानी भरना पड़ता है. सबसे अधिक परेशानी उन महिलाओं को होती है जो बुज़ुर्ग हैं, गर्भवती हैं या फिर जिनके बच्चे छोटे हैं. केंद्रीय जल भूमि बोर्ड के अनुसार लोहरदगा में सीमा से अधिक नाइट्रेट मिलता है, जिससे कई गंभीर बीमारियां होती हैं. अगर सरकार यहां पानी की सही व्यवस्था नहीं कर पाती है तो वो इस जिले के सभी लोगों की जान ख़तरे में डाल रही है.  

साल 2023 में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जल जीवन मिशन (हर घर नल का जल) योजना की समीक्षा करते हुए कहा था कि उनकी सरकार से पहले राज्य में केवल 5% आबादी के पास स्वच्छ पानी की पूर्ति थी. जबकि उनके 3 साल के कार्यकाल में ये संख्या बढ़कर 28.73% हो चुकी है. मुख्यमंत्री के अनुसार राज्य के 630 गांव में पानी की पूर्ति 100% की जा चुकी है. 

केंद्र सरकार ने साल 2024 में हर घर स्वच्छ पेयजल पहुंचाने का संकल्प करते हुए जल जीवन मिशन योजना में राज्य को मिलने वाली राशि में चार गुना की बढ़त भी की थी. 

पीठ पर बच्चा, सर पर भारी बर्तन लेकर चलती महिला

ये सभी आंकड़े सुनने में काफ़ी अच्छे लगते हैं. लगता है कि सरकार ने ग्रामीणों के लिए कितना कुछ किया है. इसकी पड़ताल के लिए हमारी टीम लोहरदगा के उरांव गांव में. इस गांव में हमारी मुलाकात सीमा उरांव से हुई. 23 वर्षीय सीमा अपनी पीठ पर बच्चे को बांध कर, पगडंडियों से होते हुए, पानी भरने जा रही हैं. उनके हाथ में पानी के भारी बर्तन हैं. रास्ता ख़राब होने की वजह से कभी भी गिरने का ख़तरा बना रहता है. लेकिन अपने बच्चे को जोख़िम में डालकर पानी लाना भी मजबूरी है. 

हमारी टीम से बात करते हुए सीमा करती हैं, "किसको शौक है कि वो अपने बच्चे को ख़तरे में डालकर पानी भरने जाए. कई बार मेरा पैर फिसलते हुए बचा है. लेकिन पानी हमारे गांव में आता नहीं हैं, इसलिए हमें दूर जाना ही पड़ता है. नहीं तो फिर घर का कोई भी काम नहीं हो पायेगा."  

विकास का रास्ता क्यों भूल गयी है सरकार? 

राज्य में अभी चुनाव के माहौल में सभी पार्टियां एक दूसरे पर तोहमत लगाने में व्यस्त है. ऐसे में सवाल ये है कि आख़िर जनजातीय समुदायों की स्थिति इतनी ख़राब क्यों है? इस चुनावी मौसम में भी राज्य के विकास के मुद्दे गायब हैं. वो मुद्दे गायब हैं जिनसे जनता कि ज़िन्दगी पर सीधा असर पड़ता है. पक्ष-विपक्ष दोनों में ही अभी सत्ता पाने की होड़ मची हुई है. लेकिन ऐसे में क्या जनजातीय समुदाय को विकास का रास्ता मिल पायेगा?