महिलाओं और आदिवासियों की स्थितियों को अपनी कहानियों से दर्शाने वाली लेखिका मेहरुन्निसा परवेज हिंदी साहित्य की एक लेखिका हैं. उनकी रचनाओं में आदिवासियों की दयनीय स्थिति, गरीबी और उनके शोषण की झलक दिखाई देती है.
लेखिका मेहरुन्निसा का जन्म 1944 में हुआ. एक वेबसाइट के मुताबिक मेहरुन्निसा के पूर्वज करीब 100 साल पहले पेशावर से हिंदुस्तान आकर बस गए. उनके दादा अब्दुल हबीब खान लांजी तहसील के बहेला गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से एक थे. पिता अब्दुल हमीद खान बालाघाट में सरकारी अधिकारी और अम्मी मुगलिया खानदान की बेटी शहजादी बेगम गृहणी थी. मेहरुन्निसा के जन्म की कहानी दिलचस्प है. दरअसल उनकी मां शहजादी बेगम बैलगाड़ी से गोंदिया जा रही थी, तब ही बीच रास्ते में ही आमगांव नदी के पास उन्हें प्रसव दर्द हुआ और नदी किनारे ही मेहरुन्निसा ने जन्म लिया.
मेहरुन्निसा की मां और पिता के बीच तनावपूर्ण संबंध थे, जिसका असर उनके बचपन के जीवन पर भी दिखा. अपनी किताब ‘गर्दिश के दिन’ में वह लिखती है- हर दिन, हर रात, हर बात पर घर में झगड़े होते. झगड़ा भी ऐसा की सारे मोहल्ले में आवाज गूंजती और हम दो भाई-बहन घर के किसी सुने कमरे में अंधेरे में एक-दूसरे से चिपटे हुए रोते रहते थे. जब से होश संभाला अपने घर में शीशे के टुकड़े, खून और आंसू ही देखे हैं. वह घर के इन झगड़ों से निराश ज्यादातर समय तालाब किनारे, बाग-बगीचे या बच्चों के साथ खेलते हुए बितातीं थीं. कभी वह दादा-दादी के घर चली जाती, तो कभी नाना- नानी के घर. इन सब में सबसे दर्द भरा पल तब हुआ जब उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली. वहीं मेहरुन्निसा की शादी कम उम्र में करा दी गई.
जब मेहरुन्निसा नौवीं कक्षा में थी तब उनकी शादी उर्दू के प्रसिद्ध शायर रऊफ परवेज से करा दी गई. मगर उनका ससुराल कट्टर मुस्लिम परिवार था, जहां दिन-ब-दिन मेहरुन्निसा का रहना मुश्किलों भरा होता गया. शादी के 10 साल तक वह बच्चों की मां ना बन सकीं तो पति-पत्नी के रिश्तें और बिगड़ गए. इस हिचकोले खाती शादी का भी आखिरकार अंत हो गया. शादी टूटने के बाद मेहरुन्निसा ने अपनी पढ़ाई शुरू की और बी.ए की डिग्री हासिल की. बस्तर कॉलेज से उन्होंने हिंदी साहित्य में एमए किया और उसके बाद से ही वह किताबें और कहानी लिखने लगी.
लेखिका मेहरुन्निसा की रचनाएं देश-विदेश में कई नामी पुरस्कारों से सम्मानित हुई. भारत सरकार ने भी उनके असाधारण लेखन और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए साल 2005 में देश के चौथे सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से विभूषित किया. पद्मश्री सम्मान पाने वाली वह मध्य प्रदेश की पहली लेखिका बनीं.
बाद में उन्होंने आईएएस अधिकारी और बस्तर के कलेक्टर भागीरथ प्रसाद से शादी की. 1978 में मेहरुन्निसा और भागीरथ प्रसाद की एक-दूसरे से मुलाकात हुई. वह दोनों एक दूसरे के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुए और शादी के बंधन में बंध गए. शादी के बाद उन्होंने दो बच्चे को जन्म दिया, जिसमें बेटा समर 17 वर्ष की छोटी आयु में ही गुजर गया. बेटे के आखिरी दिनों के दौरान लेखिका मेहरुन्निसा के मन में जो भी उथल-पुथल मची थी, उसे उन्होंने ‘समरांगण’ में लिखा. वहीं उनकी बेटी सिमाल प्रसाद राज्य पुलिस सेवा अधिकारी हैं.
लेखिका मेहरुन्निसा की रचना ‘कोरजा’ को साल 1980 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा अखिल भारतीय महाराज वीर सिंह देव पुरस्कार दिया गया. इसी उपन्यास के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ ने भी उन्हें सम्मानित किया.
उनकी कहानियों में मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार की समस्याएं, शोषण और पीड़ित महिलाओं की आर्थिक सामाजिक समस्याएं और प्रेम के बदलते दृष्टिकोण शामिल रहते हैं. अपनी कहानियों से उन्होंने महिलाओं जिंदगी की कई कड़वी सच्चाइयों को सामने रखा है. अपनी रचनाओं में उन्होंने शादी के संबंध में बदलते हुए दृष्टिकोण को साझा किया है. शादी के पहले और उसके बाद महिलाएं जिस प्रकार से कई परेशानियों का सामना करती हैं, उसे लेखिका ने बारीकियां के साथ अपनी किताब में शामिल किया है. अपनी किताब में वह दहेज प्रथा, सामाजिक शोषण, पर्दा प्रथा, बाल विवाह, बांझपन का बोझ, कामकाजी महिलाओं का विवाह न होना, लैंगिक शोषण, विधवा महिलाओं के जीवन संघर्षों को दर्शाया है.
लेकिन मेहरुन्निसा की कई कहानियों को दिल्ली, आगरा, केरल के शिक्षा मंडल विश्वविद्यालय ने पाठ्यक्रम में भी शामिल किया. इसके अलावा दूरदर्शन ने झूठन, सोने का बेसर और फाल्गुनी पर धारावाहिक भी बनाए. लेखिका मेहरुन्निसा ने वेश्यावृत्ति पर ‘लाजो बिटिया’ का निर्माण किया और वीरांगना रानी अवंतीबाई पर भी धारावाहिक बनाया. उनकी पहली कहानी 1963 में धर्मयुग मैगजीन में प्रकाशित हुई. लेखिका ने कई छोटी कहानियां लिखी है. आज भी वह लेखन क्षेत्र और स्त्री संबंधित कामों में सक्रिय रहती हैं.