दलित साहित्य में बंगाल की कवियत्री कल्याणी ठाकुर चारल का लेखन काफी मशहूर है. बांग्ला भाषा में चारल ने दलित महिलाओं के लेखन, भारतीय महिलाओं के लिए लघु कथाएं, दलित महिलाओं के लिए कविताएं जैसे कई विषयों पर पुस्तकों, पत्रिकाओं और कविताओं का संपादन भी किया है.
कल्याणी चारल का जन्म पश्चिम बंगाल के नादिया जिले के बगुला में 1965 में हुआ. उनके पिता पेशे से सुरक्षा गार्ड थे, साथ ही लकड़हारे का भी काम करते थे. उनकी मां और भाई-बहन घर में उगाई सब्जियां बेचा करते थे. जाति के आधार पर भेदभाव का सामना करने के बावजूद उनके माता-पिता एक समान समाज की कल्पना करते थे. शुरुआत से ही चारल नारीवादी विचारधारा रखती थी, जिसका श्रेय वह अपने माता-पिता को देती हैं. वह एक घटना बताती है कि उनके पिता ने अपने गांव में घरेलू दुर्व्यवहार के मामले को रोकने के लिए हस्तक्षेप किया था. उनकी मां भी दलित होने के बावजूद शिक्षा के महत्व को समझती थी और सभी बच्चों के लिए समान शिक्षा की पैरोकार थी.
उस दौर में दलितों के साथ मौजूद उत्पीड़न के बीच शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला लेना बहुत मुश्किल था. मगर शिक्षा का बीड़ा उठा चुकी चारल ने इसी रास्ते पर चलते हुए वाणिज्य में स्नातक किया और भारतीय रेलवे में क्लर्क के तौर पर काम करने लगी. मगर नौकरी में भी उन्हें जाति के आधार पर भेदभाव अनुभव करना पड़ा, जिस कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
चारल को स्कूल और यूनिवर्सिटी में शर्तों के साथ पढ़ने की अनुमति मिली थी. उन्होंने अपनी शिक्षा क्लासरूम के बाहर बरामदे में बैठकर की.
अपनी आत्मकथा ‘अमी केनो चारल लिखी’(मैं चारल क्यों लिखती हूं) में उन्होंने दलित समुदाय के साथ कार्यस्थल पर होने वाले भेदभाव के बारे में लिखा. जिसमें उन्होंने अपने अस्तित्व को प्रभावित करने वाले कई किस्से साझा किए हैं. अपनी इस आत्मकथा में उन्होंने यह भी बताया कि चारल सिर्फ एक उपनाम नहीं बल्कि उनके समुदाय मटुआ को दर्शाता है. इससे यह साफ होता है कि कैसे वह अपने दलित समाज से वह शर्मिंदा नहीं है. वह गर्व से इसे अपने साथ जोड़ती है.
एक इंटरव्यू में चारल ने बताया कि वह विरोध के लिए लिखती है. विरोध में हथियारों की जरूरत पड़ती है, जिसके लिए वह कलम का इस्तेमाल करती है. अपनी लेखनी को वह सामाजिक उत्पीड़न, रूढ़िवादी सोच और भेदभाव के प्रति दबे आक्रोषों को सामने लाने का अवसर समझती है.
चारल ने नीर नाम की एक दीवार पत्रिका भी शुरू की थी, जिसे आगे चलकर लिखित रूप में भी प्रकाशित किया जाने लगा. इस पत्रिका में जेंडर, जाति, भाषा और प्रकृति के मुद्दों को जगह दी जाती थी. कुछ समय बाद नीर सिर्फ महिला पत्रिका बन गई. जिसमें दलित महिलाओं के आवाजों को जगह दी जाने लगी.
कल्याणी चारल ने जिस से प्रकाशन गृह(चतुर्थ दुनिया) से अपनी पत्रिकाएं प्रकाशित की बाद में उसकी ही संपादकीय बोर्ड का हिस्सा बनी. बाद में वह दलित साहित्य अकादमी बोर्ड की सदस्य भी बनी. दलित और महिलाओं के मुद्दों के अलावा चारल ने नागरिकता संशोधन अधिनियम, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर जैसे कई अहम मुद्दों पर भी अपनी आवाज बुलंद की है.
दलित कविताओं को देशभर से आवाज मिला है. बंगाली, मराठी, हिंदी सभी भाषाओं में दलित लेखिकाओं के द्वारा रचनाएं हुई है. मगर आज के दौर में इसे बड़े पैमाने तक पहुंचाने के लिए इनका अनुवाद होना जरूरी है.