दलितों के साथ कई जातिगत भेदभाव हर दिन होते हैं. दलितों के प्रति पूर्वाग्रह हमारे समाज में आज भी बड़ी मजबूती से पैठ जमाए हुए हैं. ऐसी कई घटनाएं दलितों के साथ घटती है जिनका जिक्र आत्मकथा, लेखों, साहित्य या बुलंदियों पर पहुंचे दलितों की आवाज से बाहर आती हैं. ऐसे ही एक दलित महिला के संघर्ष की कहानी उसके बुलंदी पर पहुंचने के बाद चर्चा में बन गई है.
हाल में ही पुणे की रहने वाली प्रोफेसर शैलजा पाइक को मैकआर्थर फेलोशिप दी गई है. यह खबर हर जगह चर्चा में है क्योंकि शैलजा पाईक एक दलित है. पुणे के झुग्गी बस्ती में जन्मी शैलजा अपने माता-पिता और तीन बहनों के साथ बस्ती में पली बढ़ी. मगर एक दलित होने और बस्ती में रहने का उन पर कोई फर्क नहीं पड़ा. उन्होंने इसे अपनी मजबूती बनाया और घातक जातिगत पूर्वाग्रह से लड़ती रही. उनकी मेहनत रंग लाई और वह अब सिंसनाटी यूनिवर्सिटी में इतिहास की प्रोफेसर है.
मंगलवार को 2024 के लिए मैकआर्थर फेलोशिप में शैलजा का चयन हुआ. इस फेलोशिप के तहत उन्हें 800,000 यानी 67 लाख रुपए की राशि मिलेगी. यह एक खास तरह की फैलोशिप है जो शिक्षा, विज्ञान, कला जैसे क्षेत्रों में असाधारण काम करने या प्रदर्शन के लिए दिया जाता है. प्रोफेसर शैलजा ने महाराष्ट्र के एक स्लम से निकलकर सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर पद तक अपनी लड़ाई लड़ी. इस फेलोशिप में चयन पर उन्होंने कहा कि मुझे यकीन नहीं था कि मैंने जो सुना हुआ सही था.शैलजा आधुनिक भारत में दलित अध्ययन, जेंडर और यौनिकता पर काम करती है. मैकआर्थर फेलोशिप पाने वाली वह पहली दलित महिला भी है.
मूल रूप से शैलजा का परिवार महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले का रहने वाला है, मगर 1990 के आसपास उनका पूरा परिवार पलायन कर पुणे पहुंच गया. क्योंकि उनके गांव में जाति के आधार पर काफी भेदभाव होता था. लेखिका ने इस पर बात करते हुए कहा कि जब वह अपनी दादी के साथ एक ऊंची जाति के परिवार के घर गई तो उन्हें जमीन पर बिठाया गया और ऊंचे जाति की महिलाएं कुर्सी पर बैठी हुई थी. चाय पीने के लिए भी उन्हें अलग मिट्टी का कप दिया गया. जिससे उनके आत्म सम्मान को ठेस पहुंची. उनकी यह जातिगत लड़ाई अंतर्मन में और समाज के साथ भी चलती रही. इस दौरान उन्होंने पुणे यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई के बाद साल 2007 में पीएचडी की डिग्री हासिल की. 2008 में उन्हें यूनियन कॉलेज में हिस्ट्री का विजिटिंग प्रोफेसर नियुक्त किया गया. इसके बाद येल यूनिवर्सिटी में वह पोस्ट डॉक्टोरल एसोसिएट और विजिटिंग प्रोफेसर बनी. यहां के बाद वह सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी में इतिहास की प्रोफेसर बनी और बीते 14 साल से सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी से जुड़ी हुई है.
50 वर्षीय शैलजा की पहली किताब साल 2014 में आई, जो दलित और महिलाओं के शिक्षा से जुड़ी हुई है, दलित वूमेन्स एजुकेशन इन मॉडर्न इंडिया: डिस्क्रिमिनेशन. उनकी दूसरी किताब जाति की अश्लीलता: आधुनिक भारत में दलित, कामुकता और मानवता में महाराष्ट्र के तमाशा कलाकारों की कहानियां है, जिसमें कई दलित महिलाओं के संघर्ष भी शामिल है.