दलित समुदाय के लिए काम करने वालों में कुछ गिने चुने लोग ही शामिल हैं. इनमें दलितों के लिए आवाज उठाने और उनकी जिंदगियों के मुश्किलों को बयां करने में लेखकों का बहुत योगदान है. दलित समाज के अनसुने किस्से, प्रताड़नाएं, भेदभाव इत्यादि लेखों के माध्यम से समाज के बीच सामने लाए जाते हैं. वैसे तो दलितों के साथ हो रहे अत्याचार और भेदभाव आंखों के सामने होते हैं. मगर इन्हें रोकने-बचाने में समाज विफल रहता है. पर कहते हैं ना कलाम की ताकत इतनी बुलंद होती है कि वह बेजुबान को भी आवाज देती है. ऐसी ही कलम की ताकत से दलितों की आवाज को उठाने वाली प्रख्यात लेखिका शांताबाई कृष्णाजी कांबले थी.
लेखिका शांताबाई का जन्म महाराष्ट्र में 1 मार्च 1923 को महार जाति में हुआ. इस जाति के संघर्षों को दर्शाते हुए शांताबाई पहली महिला दलित आत्मकथाकर के रूप में प्रख्यात हुई.
शांताबाई एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका थी. 1983 में 60 साल की उम्र में रिटायर होने के बाद उन्होंने मराठी में अपनी आत्मकथा माज्य जलमाची चित्रकथा लिखने की शुरुआत की. इस आत्मकथा के पत्रिका में लेखों की एक श्रृंखला को पहले प्रकाशित किया गया. इसके लोकप्रियता और सफलता के बाद जून 1986 में आत्मकथा को एक किताब के रूप में प्रकाशित किया गया. इसके बाद दूरदर्शन मराठी के लिए ‘नजुका’ अगस्त 1990 के रूप में एक टेली धारावाहिक के तौर पर प्रसारित किया जाने लगा.
उनकी दलित आत्मकथा की लोकप्रियता इतनी ज्यादा बढ़ गई की इसे बाद में वैश्विक दर्शकों के लिए हिंदी और दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद करके पत्रिकाओं के तौर पर प्रकाशित किया गया.
लेखिका कुंबले की आत्मकथा को मुंबई मराठी साहित्य विश्वविद्यालय के कोर्स के रूप में भी जगह दी गई.
इतनी सब उपलब्धियां में शामिल इस आत्मकथा में आखिर था क्या? दरअसल इस आत्मकथा में लेखिका ने एक अछूत लड़की के रूप में अपने जीवन के अनुभवों को याद करते हुए लिखा था. जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे सोलापुर में एक गरीब परिवार में जन्म लेने के बाद उनके साथ दुर्व्यवहार हुए. अपने आत्मकथा में उन्होंने ऊंची जातियों के द्वारा दलितों पर होने वाले उत्पीड़न पर चर्चा की. दलित समुदाय के भीतर पुरुष प्रधान समाज में भी हुए लैंगिक भेदभाव पर भी उन्होंने कड़ा प्रहार किया.
लेखिका शांताबाई ने अपनी इस आत्मकथा को अपने मजदूर माता-पिता को समर्पित किया, जिन्होंने भूखे पेट दिनभर काम करते हुए अपनी बेटी को शिक्षित करने का संकल्प लिया था. लेखिका के माता-पिता को यह अहसास था कि शिक्षा ही आगे बढ़ने की सीढ़ी है.
अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस बात का भी जिक्र कर किया कि कैसे वह अपने स्कूल में एक मात्र शिक्षा लेने वाली लड़की थी. स्कूल में उन्हें छुआछूत और यातनाएं झेलनी पड़ी. यहां उन्हें दूसरे छात्रों के साथ बैठने से रोक दिया जाता था और अपमानित किया जाता था. उन्हें क्लास के बाहर ही बैठकर पढ़ने की अनुमति थी. इस आतमकथा में उन्होंने समाज की जाती वर्ण व्यवस्था में मौजूद दलितों की स्तिथि को दर्शाया.
इन सब के बाद एक बड़ा मोड़ उनकी जिंदगी में आया. दरअसल 1942 में शांताबाई को ब्रिटिश शासन काल में ही सोलापुर जिला स्कूल बोर्ड में पहली दलित शिक्षिका बनाया गया.हालांकि लेखिका बनने के बाद भी उनके साथ भेदभाव जैसी स्तिथि कार्यस्थल पर बनी रही. इसी साल वह डॉक्टर बी. आर अंबेडकर से भी मिली और उनके दलित आंदोलन में शामिल हुई. शांताबाई का मानना था कि दलित उत्थान में लड़कियों की शिक्षा महत्वपूर्ण है. इसके लिए उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में काम किया.
दलित शिक्षिका और लेखिका शांताबाई कुंबले को सरकार ने दलित मित्र पुरस्कार से नवाजा गया. 25 जनवरी 2023 को 99 साल की उम्र में उनका पुणे, महाराष्ट्र में निधन हो गया.