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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ख़ुद को विकास पुरुष के तौर पर प्रदर्शित करते हैं. अच्छे मीडिया मैनेजमेंट और चुनावी कैंपेन से उन्होंने बिहार की तस्वीर बदलने वाले नेता के तौर पर ख़ुद को स्थापित तो कर लिया है. लेकिन क्या ज़मीनी हकीकत भी यही है? अगर बिहार के विकास की बात की जाए तो ये विकास राजधानी पटना और दक्षिणी बिहार के क्षेत्रों में ही देखने को मिलता है. बिहार का कोसी-सीमांचल-मिथिला का इलाका आज भी मूलभूल समस्याओं से जूझता हुआ नज़र आ रहा है.
जहां एक ओर नीतीश कुमार कई जिलों में हर घर के नल में गंगाजल पहुंचाने की स्कीम पर वाहवाही लूटते हुए नज़र आ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कई जिलों में आज भी पीने का साफ़ पानी भी मौजूद नहीं है. नीतीश कुमार के इस 'चुनिंदा' इलाकों के विकास की वजह से सुदूर जिलों में नीतीश कुमार की छवि विकास पुरुष की नहीं है.
क्या मुस्लिम इलाकों को उपेक्षा भरी नज़रों से देखती है बिहार सरकार?
बिहार में चार जिलों में सबसे अधिक मुस्लिम आबादी है. ये जिले हैं- किशनगंज (68%), कटिहार (44.5%), अररिया (44.2%) और पूर्णिया (38.5%). नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार के दस सबसे पिछड़े और गरीब जिलों में सीमांचल के ये चारों मुस्लिम बहुल इलाके आते हैं. बिहार में सबसे गरीब जिलों में पहले नंबर पर अररिया, दूसरे नंबर पर पूर्णिया, छठे और सातवें नंबर पर किशनगंज और कटिहार आते हैं. सीमांचल के इन इलाकों की स्थिति कुछ यूं बन चुकी है कि इन इलाकों में ना पक्की सड़क है, ना पीने का साफ़ पानी है, स्वास्थ्य सुविधाएं पूरी तरह से ध्वस्त हैं, शिक्षा व्यवस्था का कोई ठिकाना नहीं है और सरकार को इन सभी चीज़ों से कोई मतलब नहीं है. एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट (ADRI) ने सीमांचल के इन चार जिलों के आंकड़े जारी किये हैं. ये आंकड़े सरकार के विकास के दावों को खोखला साबित करते हुए नज़र आते हैं.
क्या है हालिया रिपोर्ट?
ADRI ने चार जिलों के 16 पंचायत और 32 गांव के आंकड़े इकठ्ठा किये हैं. इस रिपोर्ट में 4205 लोगों को शामिल किया गया है. इसमें 60.66% मुस्लिम समुदाय और 39.34% हिन्दू समुदाय के लोगों के आंकड़े इकठ्ठा किये गए हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार:-
- 43.32% मुस्लिम परिवार आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं. इन्हें EBC की श्रेणी में रखा गया है.
- 24.92% हिन्दू परिवार EBC में आते हैं, जिसमें से 49.22% परिवार दलित हैं.
- मुसलमानों में पढ़ाई की दर काफ़ी काम है. मुसलमानों में ग्रेजुएशन (स्नातक) तक की डिग्री लेने वालों की आबादी महज़ 0.82% है.
- 37% महिलायें और 29% पुरुष इन चार जिलों में असाक्षर हैं.
- इन जिलों में आय का प्रमुख स्रोत कृषि है. लेकिन 35% मुस्लिम किसान और 41% मुस्लिम किसान, जो मुख्यता छोटे किसान हैं, उनके पास खेती के लिए ख़ुद की ज़मीन नहीं है.
- 73% घरों में पीने का साफ़ पानी मौजूद नहीं है. इन घरों में ना नल मौजूद है और ना ही चापाकल. इन्हें हर दिन पानी भरने के लिए कम से कम आधे घंटे का रास्ता तय करना पड़ता है.
- 33.46% घरों में शौचालय नहीं है. ये आज भी खुले में शौच करते हैं.
- 65.44% परिवार आज भी खाना बनाने के लिए लकड़ी का इस्तेमाल करते हैं. इनके पास आज भी एलपीजी गैस की सुविधा नहीं है.
- 5% मुस्लिम आबादी के पास की भी तरह का पहचान पत्र मौजूद नहीं है.
- 84.44% घरों में तीन से भी कम संपत्ति (asset) है. इससे ये पता चलता है कि इन जिलों में आर्थिक स्थिति कितनी ख़राब है.
"कभी-कभी समझ में नहीं आता है कि हम इंसान हैं या जानवर"
कटिहार के बरारी प्रखंड की रहने वाली सोहड़ा ख़ातून की ज़िन्दगी हर सीमांचल के व्यक्ति की कहानी बताती है. सोहदा ख़ातून एक मोसमात (विधवा) महिला हैं और इनके दो छोटे बच्चे हैं. 2 साल पहले सोहदा ख़ातून के पति की आकस्मिक मृत्यु हो गयी. दोपहर के समय जब उनके पति मज़दूरी करके घर लौटे तो उनके सीने में दर्द उठा. हड़बड़ी में गांव वालों ने ऑटो से उन्हें अस्पताल पहुंचाने का प्रयास किया. उनके गांव से सबसे नज़दीकी अस्पताल 18 किलोमीटर की दूरी पर है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर डॉक्टर नहीं होने की वजह से उन्हें निजी अस्पताल की ओर जाना पड़ा. लेकिन सड़क ख़राब होने की वजह से वो अस्पताल नहीं पहुंच पाएं और रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गयी.
उसके बाद से सोहदा ख़ातून की ज़िन्दगी में दो छोटे बच्चों की परवरिश के अलावा कुछ भी नहीं बचा. आस-पास इलाकों में पापड़ और खाने का सामान बेच कर सोहदा ख़ातून अपने बच्चों का किसी तरह गुज़र बसर करती हैं. लेकिन उनकी इस रोज़ी-रोटी भी सरकार की लापरवाही की वजह से कम हो जाती है. दरअसल सोहदा ख़ातून के गांव में पीने के पानी की सुविधा मौजूद नहीं है. जिसकी वजह से उन्हें हर रोज़ 2 किलोमीटर दूर पैदल चलकर पानी भरने के लिए जाना पड़ता है. उनके दिन का 1 से दो घंटा सिर्फ़ पानी का इंतज़ाम करने में निकल जाता है.
डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए सोहदा ख़ातून कहती हैं- "हमारी ज़िन्दगी तो जानवरों से बदत्तर है. ना खाने का ठिकाना है और पानी का. हमको बस अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देनी है. लेकिन उसमें भी हम नाकाम ही हो रहे हैं. कभी-कभी समझ में नहीं आता है कि हमलोग इंसान हैं या जानवर."
क्या सरकार इन इलाकों को सुधारने के लिए कदम उठा सकती है?
डेमोक्रेटिक चरखा ने अपनी कई रिपोर्ट्स में सीमांचल और बिहार के दूसरे इलाकों में सरकारी तंत्र की कमियों को उजागर किया है. कई समस्याओं में बदलाव भी आया है. लेकिन सीमांचल के इलाकों में बदलाव के लिए सरकार को व्यापक कदम उठाने की ज़रुरत है. सबसे पहले सरकार को पलायन रोकने के लिए इन इलाकों में रोज़गार का इंतज़ाम करने की ज़रुरत है. इससे इन इलाकों की आर्थिक स्थिति ठीक हो सके. साथ ही लोगों को सरकारी योजनाओं को अधिक जानकारी नहीं है. साथ ही सरकार को एक ऐसे तंत्र को बनाने की ज़रुरत है जो इन इलाकों की निष्पक्ष जांच कर सके. ताकि सरकार तक इन इलाकों की सही रिपोर्ट जा सके.