बाढ़ राहत के वादों का सच — बिहार की डूबती उम्मीदें

बिहार में बाढ़ कोई नई बात नहीं है. हर साल कोसी, गंडक, बागमती, कमला और घाघरा जैसी नदियां गांवों को निगल जाती हैं, खेतों को बर्बाद कर देती हैं.

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आमिर अब्बास
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कोसी की बाढ़

समस्तीपुर के शिवपुर टोला में जब हम पहुंचे, गांव की मिट्टी अब भी दलदल बनी हुई थी. बाढ़ को गए दो महीने बीत चुके थे, लेकिन लोगों के घरों की दीवारों पर अब भी पानी के निशान थे — जैसे किसी गवाह ने तबाही को दर्ज कर रखा हो.

राजेंद्र पासवान, 54 साल के हैं. घर में एक टूटी चारपाई है, ऊपर से टपकती छत और हाथ में एक थैला जिसमें पुराने सरकारी कागज़ हैं. वो पूछते हैं, “भैया, राहत के नाम पर जो नाम लिखे गए थे, वो कहां हैं? हम तो सिर्फ पानी में डूबे थे, कागज़ में नहीं.”

बिहार में बाढ़ कोई नई बात नहीं है. हर साल कोसी, गंडक, बागमती, कमला और घाघरा जैसी नदियां गांवों को निगल जाती हैं, खेतों को बर्बाद कर देती हैं. लेकिन हर साल सरकार का एक ही बयान होता है — “हमने व्यवस्था की है. राहत पहुंचाई जा रही है.”

यह रिपोर्ट इन्हीं दावों और हकीकत के बीच के अंतर को समझने की कोशिश है.

बाढ़ में फंसे लोग

जहां सरकारी नावें नहीं पहुंचतीं, वहां उम्मीदें डूबती हैं

दरभंगा जिले के बिरौल अनुमंडल में हमने 17 गांवों का दौरा किया. इनमें से सिर्फ 3 गांवों में सरकारी नाव पहुंची थी — वो भी बाढ़ के चौथे दिन. जब लोग छत पर चढ़कर जान बचा रहे थे, तब प्रशासन ड्रोन से हवाई सर्वे कर रहा था.

सुदामा यादव बताते हैं, “हमारे गांव में एक बुजुर्ग महिला थी, रामपति देवी. 82 साल की थीं. चार दिन तक खाना नहीं मिला. पांचवें दिन उनकी मौत हो गई. सरकारी अफसर बोले — बीमारी से मौत हुई है. हम पूछते हैं — भूख भी कोई बीमारी नहीं है क्या?”

हर बाढ़ के बाद बिहार सरकार और केंद्र सरकार बड़ी-बड़ी घोषणाएं करती है. 2021 में केंद्र ने 1700 करोड़ का बाढ़ राहत पैकेज घोषित किया. लेकिन आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार, इस राशि में से 45% राशि अब तक रिलीज ही नहीं हुई.

राज्य के जल संसाधन विभाग के एक अधिकारी (नाम न छापने की शर्त पर) बताते हैं — “कागज़ पर हर पीड़ित को 6,000 रुपये की सहायता दी जाती है. लेकिन बैंक खाते से लेकर मोबाइल OTP तक का चक्कर इतना लंबा है कि हर तीसरा व्यक्ति इस सिस्टम से बाहर रह जाता है.”

पटना के आपदा प्रबंधन भवन के बाहर एक पोस्टर है — "आपदा में हम आपके साथ हैं!" 

लेकिन जब कटिहार के मोहनपुर पंचायत के 60 किसान बाढ़ में अपनी फसल गंवाकर पटना आए तो गेट पर लिखा था — “Visitors Not Allowed.”

डेटा vs धरातल: आंकड़ों की बाढ़, राहत की कमी

बिहार सरकार के 2023 बाढ़ सर्वे के मुताबिक, इस साल 19 जिलों में 75 लाख लोग प्रभावित हुए थे.
सरकार कहती है — “हमने 48 लाख को राहत राशि पहुंचाई.”

लेकिन जब Democratic Charkha की टीम ने उन 19 जिलों में से 7 जिलों के 50 गांवों में जाकर सर्वे किया, तो पाया कि:

  • केवल 38% लोगों को सीधे राहत राशि मिली.

  • लगभग 22% लोगों ने कहा कि उन्हें फॉर्म भरवाया गया, लेकिन पैसे नहीं मिले.

  • 40% को किसी भी तरह की सहायता नहीं मिली.

मुजफ्फरपुर के कांटी ब्लॉक में सतीश झा कहते हैं, “नाम भेजा था, फॉर्म जमा किया था, पंचायत सचिव ने कहा — ‘आपके नाम से डबल फॉर्म गया है’. अब हम ही दो हो गए क्या?”

राहत शिविर या राजनीतिक मंच?

बाढ़ के दौरान लगाए गए राहत शिविरों की तस्वीर भी अलग नहीं थी. बेतिया के मझौलिया गांव में बने राहत शिविर में तीन दिन तक सिर्फ चूड़ा और गुड़ मिला.

एक महिला, पार्वती देवी कहती हैं, “हमको ना तो सेनेटरी नैपकिन मिला, ना ही कोई दवा. एक बुखार हुआ तो दो दिन बाद डॉक्टर आया. वो भी बोले — ORS पी लीजिए.”

यही कहानी सीवान, गोपालगंज, सुपौल और मधुबनी में दोहराई जाती है. राहत शिविरों का उद्घाटन नेता करते हैं, लेकिन वहां पानी भर जाता है, और राहत के नाम पर बस कैमरे के सामने तस्वीरें खिंचती हैं.

बाढ़

बिहार में बाढ़ राहत योजना जितनी पुरानी है, उससे कहीं ज़्यादा पुरानी है इस योजना में घोटाले की परंपरा. सरकार हर साल दावा करती है कि राहत राशि सीधे पीड़ितों के खातों में जाती है. लेकिन जब हमने सूचना के अधिकार (RTI) के तहत डाटा हासिल किया, तो पता चला कि 2021–2023 के बीच जिन लोगों के नाम राहत सूची में थे, उनमें से 15% लोगों के खाते ही फर्जी थे या बंद पड़े थे.

कटिहार के अमदाबाद प्रखंड के गांव अलमारीपुर में 62 लोगों के नाम राहत सूची में थे, लेकिन 19 खातों का IFSC गलत था. बाकी में से 7 खातों के नाम आधार से मेल नहीं खाते थे.

और ये सब DBT सिस्टम (Direct Benefit Transfer) में हुआ है, जिसकी सबसे बड़ी बात यही मानी जाती है कि पैसा सीधा लाभार्थी के खाते में जाता है.

एक RTI कार्यकर्ता मोहम्मद शहजाद कहते हैं, “सरकार ने डिजिटलीकरण का नाम तो लिया, लेकिन पंचायत स्तर पर फॉर्म भरवाने से लेकर खाता वेरीफाई कराने तक सबकुछ दलालों के हवाले है.”

पुनर्वास का वादा: एक स्थायी धोखा

बिहार सरकार की ‘आपदा प्रभावितों के लिए स्थायी पुनर्वास योजना’ को साल 2008 में शुरू किया गया था.
लेकिन अब तक:

  • 3,20,000 से ज़्यादा लोग हर साल बाढ़ में अपना घर खोते हैं.

  • सिर्फ 27,000 परिवारों को अब तक स्थायी आवास मिले हैं.

  • बाकी लोगों को हर साल “तिरपाल राहत” मिलती है — यानी एक प्लास्टिक शीट, कुछ बांस और बिस्किट का पैकेट.

सीतामढ़ी के सुरसंड प्रखंड के रहने वाले श्याम बिहारी साह, जो 2019 से हर साल आवेदन कर रहे हैं, बताते हैं: “पंचायत से सिफारिश होती है. बीडीओ तक फाइल जाती है. फाइल में लिख दिया जाता है — ‘स्थायी आवास के लिए भूमि उपलब्ध नहीं’. अब हमसे कौन कहे, हमारे पास अपनी ज़मीन है, लेकिन उन्हें बस लिखना है — उपलब्ध नहीं. ताकि कोई कार्रवाई न हो.”

कोसी तटबंध: बाढ़ प्रभावित इलाकों में क्या शिक्षा की स्थिति?

नदियों के तटबंध: समाधान या विनाश?

बिहार में बाढ़ को रोकने के लिए अब तक करीब 3,700 किमी लंबी तटबंध प्रणाली बनी है. लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ये तटबंध खुद बाढ़ का कारण बनते जा रहे हैं.

आईआईटी कानपुर में जलविज्ञान के प्रोफेसर डॉ. आर. श्रीनिवास कहते हैं: “तटबंध नदियों के प्राकृतिक विस्तार को रोकते हैं. जैसे ही पानी का बहाव रुकता है, वो नई दिशा खोजता है — और तब होता है कटाव, नए इलाकों में बाढ़, और परंपरागत जल निकासी पूरी तरह नष्ट.”

"हम बस बच गए, बाकी सब बह गया"

सीतामढ़ी के बागमती किनारे बसे हरखपुर गांव में हमारी मुलाक़ात 62 वर्षीय रामपति देवी से हुई. मिट्टी से बनी उनकी झोपड़ी अब नहीं है. दरअसल, वो पूरी तरह बह चुकी है.

रामपति कहती हैं, “बाढ़ आई तो सबसे पहले मवेशी बहा, फिर अनाज, फिर घर. अब बच्चों को लेकर सड़क किनारे बांस की झोपड़ी डाल दी है. सरकार से कोई मदद नहीं मिली, बस एक नेता आए थे फोटो खिंचवाने.”

उनके बेटे ने राहत केंद्र पर आवेदन दिया था, लेकिन चार महीने बीत चुके हैं — अभी तक कोई जवाब नहीं आया.

मुजफ्फरपुर के गायघाट ब्लॉक के दलित टोला में रहने वाले लल्लू रविदास की जमीन भी बाढ़ में कट चुकी है. उनके घर में छह लोग हैं — सबके पास अब एक तिरपाल ही ठिकाना है.

वो गुस्से में कहते हैं: “राहत सामग्री आती है, लेकिन पहले मुखिया के रिश्तेदारों को मिलती है. हम तो बस नाम वाले गरीब हैं, हक हमारा होता है लेकिन मिलता किसी और को है.”

लल्लू को 6000 रुपये की राहत राशि मिलने का मैसेज आया था, लेकिन बैंक गए तो पता चला — खाता बंद है. अब उन्हें न राहत राशि मिली, न बैंक वाला फॉर्म ठीक करता है.

राजनीति में बाढ़ एक ‘इमोशनल कार्ड’ है

बिहार की राजनीति में बाढ़ एक ऐसा मुद्दा है जिसे हर चुनाव से पहले गरमा दिया जाता है —

  • राहत की घोषणाएं

  • पुनर्वास योजनाएं

  • बाढ़ नियंत्रण परियोजनाएं

लेकिन साल 2024 के लोकसभा चुनाव में, जब नेताओं से पूछा गया कि पिछले बाढ़ राहत पैकेज का क्या हुआ, तो किसी के पास जवाब नहीं था. अब ठीक यही चीज़ बिहार विधानसभा चुनाव में इस साल होने वाली है. किसी के पास कोई जवाब नहीं.

पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने एक रैली में यहां तक कहा: “बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है, सरकार कुछ नहीं कर सकती.”

लेकिन रिपोर्ट्स बताती हैं कि अगर पैसा सही जगह खर्च हो तो बाढ़ की तीव्रता कम की जा सकती है.