झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई को तो हम सभी जानते हैं. उस महान वीरांगना ने देश की आजादी में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया था. इनकी तरह ही एक और वीरांगना ऊदा देवी ने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से लोहा मोल लिया था. दलित घर में जन्मी ऊदा देवी ने जाति संप्रदाय से उठकर देशभक्ति का परचम लहराया, जिसका जिक्र इतिहास की किताबें से गायब है.
ऊदा देवी का जन्म 1829 में हुआ. वह युद्ध कौशल में पारंगत थी, वह अपने कौशलता के बलबूते पर अंग्रेजों के हाथों से अवध को आजाद करना चाहती थी. इसी मकसद से वह स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुई. उनकी कौशलता का प्रमाण इसी से मिलता है कि वह लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल की सुरक्षा में तैनात थी. हजरत महल खुद आजादी की लड़ाई में एक प्रमुख चेहरा थी. जबकि ऊदा देवी के पति मक्का पासी नवाब की सेना में थे.
साल 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ पहला विरोध देखने मिला. इस समय लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेजों ने कोलकाता से निर्वासित कर दिया. इसके बाद उनकी बेगम हजरत महल ने विद्रोह का परचम उठाते हुए आजादी की लड़ाई छेड़ी थी. लखनऊ के पास चिनहट में नवाब की फौज और अंग्रेजों के बीच टक्कर हुई, जिसमें ऊदा देवी के पति मारे गए. पति की मौत के सदमे के बीच ही ऊदा देवी ने इसे प्रेरणा भी बनाया. वह अपने सैन्य कौशल से अंग्रेजों से बदला लेने की फिराक में जुट गई.
उन्होंने अपनी बंदूक उठाई और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में शामिल होने सिकंदर बाग पहुंच गई. यहां बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक पहले से मौजूद थे. जिसकी भनक अंग्रेजों को लग गई थी. अंग्रेजी सैनिक सिकंदर बाग पर हमला करने की तैयारी के साथ पहुंचे. मगर इसके पहले की वह हमला करते, उससे पहले ऊदा देवी ने रास्ते में ही एक-एक कर 36 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. दलित वीरांगना ने पुरुषों की वर्दी में अंग्रेजों पर खूब प्रहार किया. गोला-बारूद और गोलियों की बौछार से थोड़े ही देर में पीपल के पेड़ के पास अंग्रेजी सैनिकों की लाश से बिछ गई.
बीबीसी के लेख में लेखक राजकुमार(इतिहासकार) ने बताया कि 16 नवंबर 1857 को गदर हुआ. इस समय वीरांगना ऊदा देवी ने 36 अंग्रेजों को पीपल के पेड़ पर चढ़कर मारा. कैप्टन वायलस और डाउसन तीन दर्जन अंग्रेजों की लाश देखकर दंग रह गए. इस समय ऊदा देवी पीपल के पेड़ के ऊपर से लगातार गोलियां चल रही थी. अंग्रेजी सैनिकों ने पीपल में छिपी उस सैनिक पर गोली चलाई, जिससे घायल होकर वह पेड़ से नीचे गिरी. नीचे पड़ी सैनिक को देखकर अंग्रेजों के होश उड़ गए. दरअसल उन्होंने किसी पुरुष सैनिक के होने का अनुमान लगाया था, मगर वह वीरांगना ऊदा देवी थी.
इस घटना के बाद ही वीरांगना ऊदा देवी को एक जांबाज वीरांगना सिपाही के रूप में याद किया जाता है. लखनऊ में आज भी उनके नाम को बेहद सम्मान के साथ लिया जाता है. सिकंदर बाग चौराहे पर उनकी बड़ी मूर्ति भी लगी है, जहां हर साल उदा देवी की जयंती और पुण्यतिथि पर आयोजन होते हैं. जिस स्वतंत्रता सेनानी ने दलित महिला होते हुए आजादी में इतना बड़ा योगदान दिया, उन्हें आज भी वह दर्जा और सम्मान मिलने की जरूरत है.