कृपाबाई सत्यानंदन को भारत की पहली अंग्रेजी महिला उपन्यासकारों में गिना जाता है. उनके लेखन से भारतीय समाज में महिलाओं को लेकर रूढ़िवादी सोच के बारे में पता चलता है.
कृपाबाई का जन्म 1862 में अहमदनगर में हुआ था. उनके पिता का नाम हरिपंत और मां का नाम राधाबाई था. यह परिवार बॉम्बे प्रेसीडेंसी में हिंदू ब्राह्मणवादी से ईसाई धर्म में परिवर्तित होने वाला पहला परिवार था. कृपाबाई का परिवार काफी बड़ा था, वह अपने मां-पिता की 13वीं संतान थी. काफी कम उम्र में उन्होंने ने अपने पिता को खो दिया, इसके बाद वह अपनी मां और बड़े भाई भास्कर के बेहद करीब हो गई. भास्कर उनसे उम्र में काफी बड़े थे और एक मजबूत प्रभाव रखते थे. उन्होंने कृपाबाई को किताबों से लेकर कई मुद्दों पर समझ बढ़ाने में मदद की. मगर भास्कर की काफी युवावस्था में ही मृत्यु हो गई. भाई की मृत्यु ने कृपाबाई को अंदर से अकेला कर दिया.
13 साल की कृपाबाई भाई के शौक से उबरने के लिए कुछ समय यूरोपीय महिलाओं के साथ रहने लगी. इस दौरान वह ब्रिटिश तौर तरीकों से परिचित हुई. कुछ समय बाद उन्होंने मुंबई के एक बोर्डिंग स्कूल में दाखिला लिया और वहां अमेरिकी महिला डॉक्टर के संपर्क में आई. यहां से उनके मन में भी दवा की पढ़ाई करने की रुचि जगी. कृपाबाई पढ़ाई काफी मेधावी थी, जिसके चलते उन्हें इंग्लैंड के एक मेडिकल स्कूल में जाने के लिए स्कॉलरशिप से सम्मानित किया गया. मगर कुछ उनकी तबीयत और कुछ पितृसतात्मक समाज की सोच ने उनके पैर को खींच लिया.
हालांकि मद्रास मेडिकल कॉलेज में 16 साल की उम्र में कृपाबाई ने दाखिला लिया और वह यहां पहली महिला स्टूडेंट बनी. मगर पढ़ाई में बेहतरीन होने के कारण भी वह अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाई. डिप्रेशन और खराब स्वास्थ्य के कारण उन्हें अपने मेडिकल के सपने को बीच में ही छोड़ना पड़ा. यहां से 1879 में वह अपनी बहन के घर पुणे आ गई और 1 साल बाद मद्रास लौट गई. यहां उनकी मुलाकात सैमुअल सत्यानंदन से हुई. वह इंग्लैंड से पढ़ाई पूरी कर वापस लौटे थे. कृपाबाई और सैमुअल के बीच में नजदीकियां बढ़ीं और दोनों ने 1881 में शादी कर ली.
अति शिक्षित कृपाबाई महिलाओं के बीच शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भी काम करती थी. उन्होंने मिशन स्कूल में जाकर लड़कियों को पढ़ाई और मुस्लिम लड़कियों के लिए स्कूल भी खोला. इस दौरान वह महिलाओं के मुद्दों को लेकर अखबारों और मैगजींस में अक्सर लिखा करती थी. उनके लेखन में अधिकतर महिलाओं के सामाजिक मुद्दे शामिल रहते थे. उनकी समझ से भारतीय पुरुष तीन वजहों से पितृसत्तात्मक सोच रखते है.
कृपाबाई का पहला लेख एन इंडियन लेडी बाइलाइन से ‘ए विजिट टू द टोडास’ इंडियन ऑब्जर्वर में छपा था. उनका लेख ‘द स्टोरी ऑफ कन्वर्शन’ भी छपा.
लेखिका कृपाबाई स्वास्थ्य समस्याओं से लगातार जूझती रहती थी. वह अपने पति के साथ राजामुंदरी गई, मगर वहां भी बीमार हो गई. उसके बाद कुंभकोणम गई. मगर स्वास्थ्य के उतार-चढ़ाव ने उन्हें काफी परेशान किया. हालांकि इस दौरान वह लेखन से जुड़ी रही और 1886 में स्थायी रूप से मद्रास लौटने से पहले उन्होंने अपना उपन्यास ‘सगुना: ए स्टोरी ऑफ़ नेटिव क्रिश्चियन लाइफ’ प्रकाशित करने के लिए तैयार कर लिया. यह उपन्यास कृपाबाई की आत्मकथा है, जिसे महारानी विक्टोरिया को भेंट स्वरूप दिया गया था. महारानी इस किताब से इतने प्रभावित हुई कि उन्होंने लेखिका कृपाबाई की अन्य रचनाओं को भी मंगवाया.
पहले पिता फिर भाई को खोने के बाद कृपाबाई ने अपने इकलौते संतान को पहले जन्मदिन से पहले खो दिया. इससे वह फिर डिप्रेशन की शिकार हो गई. उन्हें अपने स्वास्थ्य के बेहतर इलाज की आवश्यकता थी. वह भांप गई थी कि अब उनके पास जिंदगी के कुछ गिने-चुने दिन ही बचे हैं, इसी दौरान उन्होंने अपने दूसरे उपन्यास पर काम करना शुरू किया. ‘कमला: ए स्टोरी ऑफ हिंदू लाइफ; को कृपाबाई ने अपनी मृत्यु से पहले पूरा कर लिया. इस उपन्यास में उन्होंने कमला के रूप में एक हिंदू ब्राह्मण रूढ़िवादी परिवार की एक बाल वधू का चित्रण किया है. इस उपन्यास को पढ़कर समाज में स्त्रियों के हालात को करीबी से समझ गया. किताब को पढ़ने वाले सामाजिक बदलावों को लेकर जरूर चिंतित हुए. कृपाबाई के दोनों उपन्यासों में लिंग, जाति, जातीयता और सांस्कृतिक पहचान जैसे मुद्दों पर लिखा.
साल 1894 में लंबी बीमारियों से जूझते हुए लेखिका कृपाबाई की मृत्यु हो गई. उनकी याद में मद्रास विश्वविद्यालय अंग्रेजी में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाली छात्राओं को मेडल देता है. मद्रास मेडिकल कॉलेज में फार्मोकोलॉजी में या उच्च चिकित्सा अध्ययन के लिए कृपाबाई के नाम से छात्राओं को स्कॉलरशिप दी जाती है.