झारखंड के आदिवासी विमर्शों को गति देने में लेखिका वंदना टेटे का नाम जरूर गिना जाता है. झारखंड की वंदना टेटे की पहचान एक लेखिका, कवियत्री और आदिवासी एक्टिविस्ट के तौर पर है. उन्होंने अपनी कविताओं के जरिए आदिवासियों के जीवन और उनके समाज को उभारते हुए देश और विदेश के सामने रखा है. उनके साहित्य और अकादमिक संगोष्ठियों में दिए गए व्यक्तित्व आदिवासी जीवन दर्शन के रूप में पहचाने गए हैं.
वंदना टेटे का जन्म 13 सितंबर 1969 को झारखंड के सिमडेगा में हुआ. उनके पिता सुरेशचंद्र टेटे भारतीय फौज में थे और मां रोज केरकेट्टा देश की जानी-मानी आदिवासी लेखिका, शिक्षाविद और आंदोलनकारी रहीं हैं. वंदना टेटे के नाना प्यारा केरकेट्टा खड़िया आदिवासी समुदाय के पहले बौद्धिक और सांस्कृतिक अगुआ थे. उन्होंने झारखंड और खासकर आदिवासी समुदायों के अधिकार और विकास के लिए आजीवन राजनीतिक मोर्चे पर संघर्ष किया. अपने नाना और मां से मिली संघर्ष चेतना और सांस्कृतिक विरासत को वंदना ने आगे बढ़ाया.
झारखंड के सिमडेगा, सिसई, जमशेदपुर और रांची में पली-बढ़ी टेटे बार-बार जगह बदलने के कारण काफी परेशान भी रहीं. उनका अधिकतर बचपन बिना माता-पिता के देख-रेख के गुजरा. दरअसल उनकी मां रोज को आजीविका की तलाश में काफी जगह बदलने पड़े. लेखिका टेटे ने सिमडेगा से ही अपनी आरंभिक शिक्षा की. मैट्रिक की पढ़ाई गुमला के उसुलाईन कॉन्वेंट गर्ल्स हाई स्कूल से पूरी की. रांची यूनिवर्सिटी से उन्होंने ग्रेजुएशन पूरा किया और पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए साइकोलॉजी में दाखिला लिया, मगर इसे बीच में ही छोड़कर उन्होंने महिला एवं बाल विकास में पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा किया. लेखन में उनकी रुचि पढ़ाई के दौरान ही बढ़ती गई. जब वह इंटर में थी तभी उन्होंने कविताएं, गीत और नृत्य-संगीत सहित कई चीजों में रूचि लेना शुरू किया. उनके लेखन में सामुदायिक, आदिवासी जीवन शैली झलकती थी. लेखन के साथ-साथ वह अभिनय से भी जुड़ी और जमशेदपुर के एक नाटक समूह का हिस्सा बनीं. बाद में टेटे ने रांची के उलगुलान संगीत नाटक दल के साथ जुड़कर हिंदी, खड़िया और नागपुरी भाषा में कई नुक्कड़ नाटक किए. इसमें उन्होंने अभिनेत्री और गायिका के तौर पर हिस्सा लिया. अपने नाटकों में भी उन्होंने महिला एवं आदिवासी सवालों को उठाया.
सिसई में रहने के दौरान उन्होंने खड़िया समुदाय के वरिष्ठ और युवा संगीतकारों नर्तकों के साथ एक दल बनाया. “झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा” में टेटे महासचिव चुनी गई. अखड़ा के माध्यम से उन्होंने झारखंडी भाषा, संस्कृति, साहित्य और अस्मिता के सवाल को नया आयाम दिया. अखाड़ा ने कई संगठनों के साथ मिलकर अगस्त 2011 में झारखंडी भाषाओं को द्वितीय राजभाषा का संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए विरोध मार्च निकाला था. जिसके बाद अर्जुन मुंडा की तत्कालीन सरकार ने पांच आदिवासी भाषा मुंदरी, हो, खड़िया, संताली और कुदुख को राजभाषा के रूप में मंजूरी दी थी. देश की आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ था कि किसी सांस्कृतिक संगठन ने भाषा को लेकर विधानसभा घेराव किया हो.
वंदना टेटे की पहली खड़िया कविता अविभाजित झारखंड(बिहार) के आदिवासी पत्रिका में प्रकाशित हुई. उस समय एकमात्र आदिवासी पत्रिका में ही आदिवासी भाषा के साहित्य को छापा जाता था. आगे चलकर उनकी कई सारी खड़िया और हिंदी में कविताएं, लेख, कहानियों को राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित किया जाने लगा. इसी दौरान वंदना टेटे ने अपने नाना के नाम पर एक आदिवासी प्रकाशन संस्थान की स्थापना की. इस संस्था से उन्होंने आदिवासी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन और आदिवासी साहित्यकारों को मंच देने का काम किया.
वंदना टेटे कहती है कि गैर आदिवासियों द्वारा आदिवासियों पर रिसर्च करके लिखी जा रही रचनाएं शोध साहित्य हैं. आदिवासी साहित्य नहीं. उनकी कुछ प्रकाशित पुस्तकों में पुरखा लड़ाके(2005), किसका राज है(2009), आदिवासी साहित्य परंपरा और प्रयोजन(2013(, लोकप्रिय आदिवासी कविताएं(2016), हिंदी की आरंभिक आदिवासी कहानी(2020) शामिल है.
लेखिका वंदना टेटे ने प्रमुखता से नाटकों और अपने लेखन के जरिए महिलाओं और आदिवासियों से जुड़े गंभीर मुद्दों को प्रस्तुत किया है. उनके लेख में भाषा, संस्कृति, पत्रकारिता और साहित्य शामिल है. टेटे को आदिवासी पत्रकारिता के लिए झारखंड सरकार का राज्य सामान दिया गया. उन्हें 2012 में इस सम्मान से नवाजा गया. भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने उन्हें 2013 में सीनियर फैलोशिप दी.