भारत में यूं तो हर वर्ष किसी ने किसी नदी के रौद्र रूप धारण करने के कारण बाढ़ आते रहता है. भारत के उत्तर-पूर्वी हिस्से में बसे एतिहासीक राज्य बिहार में गंगा सहित उसकी कई सहायक नदियां बहती हैं. वहीं उत्तरी बिहार की प्रमुख नदियों में से एक है कोसी. कोसी नदी प्राचीन काल से ही अपने रौद्र और मार्ग बदलने में माहिर होने के कारण उत्तरी बिहार के लोगों के लिए संकट का कारण बनी हुई है. बिहार के उत्तरी भाग में हर साल इस नदी के कारण बाढ़ और कटाव होता है. इस क्षेत्र में रहने वाले लाखों लोग हर साल इसका दंश झेलते हैं.
भारत पर जब अंग्रेजों का शासन था तब ब्रिटिश हुकुमत ने भी इस नदी के कारण होने वाले नुकसान को कम करने के लिए इसपर बांध बनाने का विचार किया था. आज़ादी मिलने के बाद भारत सरकार ने साल 1954 में नेपाल सरकार के साथ सयुंक्त समझौते पर हस्ताक्षर के बाद कोसी पर बांध बनाने में सफ़ल रही थी. लेकिन जिस उदेश्य के साथ इस बांध का निर्माण किया गया था, उसमें सरकार सफ़ल नहीं हो सकी.
पचास के दशक में स्थानीय लोगों ने नदी पर बांध बनाने के खिलाफ आवाज भी उठाया था. विशेषज्ञों का मानना है कि नदी के प्राकृतिक मार्ग को रोकने के कारण ही आज इतने भयावह रूप सामने आ रहे हैं. इसके मार्ग बदलने कि प्रवृति को आप विशेषज्ञों के इस इस अध्यन से समझ सकते हैं. विशेषज्ञों के अध्यन के अनुसार कोसी नदी 200 सालों में अपने मूल मार्ग से 150 किलोमीटर दूर चली गयी है.
कोसी क्षेत्र का दौरा करने वाले डेमोक्रेटिक चरखा के पत्रकार राहुल झा का कहना है
कोसी नदी कभी यहां के लोगों के लिए मां तो कभी डायन हो जाती है. जो कभी अपने बच्चों का पेट पालती है तो कभी खुद ही उनको लीलने को तैयार रहती है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार कोसी क्षेत्र में 1953 से अभी तक पांच हजार से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. लेकिन सरकार कि योजनायें इस क्षेत्र में रह रहें लोगों के लिए नाकाफी है. यहां आपको किसी भी गांव में पहुंचने के लिए नाव का ही सहारा लेना होगा. जो हमारे लिए थोड़ा डरावना और अटपटा था लेकिन यहां की महिलाओं और बच्चियों के लिए यह रोज़ का काम है.
कोसी क्षेत्र में हर साल आने वाले बाढ़ के कारण वहां रहने वाले ग्रामीण को आज तक एक अदद पक्की सड़क नसीब नहीं हुई है. जबकि मुख्यमंत्री ग्राम संपर्क योजना के तहत बिहार के हर गांव तक पक्की सड़क पहुंचाने का वादा किया गया है. साथ ही प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत भी गांवों तक पक्की सड़क बनाने का योजना बनाया गया है. लेकिन केंद्र और राज्य सरकार की योजनायें आजतक इस इलाके के 380 गांवों तक पक्की सड़क नहीं पहुंचा सकी है. इन गांवों में रहने वाले बूढ़े-बच्चे, पुरुष-महिला सभी अपना जीवन खतरे में डालकर नाव के द्वारा ही सुबह-शाम यात्रा करने के लिए मजबूर हैं.
कोसी के अंदर बसे ये तमाम गांव अब छोटे-छोटे टापू जैसे बन गए हैं. यहां पहुंचने के लिए बारहों महीने नांव का ही सहारा होता है. कुछ गांवों में सड़कें अगर बनती भी हैं तो एक बरसात में ही उजड़ जातीं है. इन गांवों में आपातकालीन मेडिकल सेवा के लिए न तो कोई अस्पताल हैं और न ही डॉक्टर. ग्रामीणों का कहना है अगर किसी को अचानक ईलाज कि जरूरत पड़ता है तो मरीज यहीं मर जाता है.”
वहीं सुपौल जिला के गोपालपुर प्रखंड के छोटू महतो बताते हैं कि
हमारे गांव में एक भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र मौजूद नहीं है. अगर रात या दिन में किसी का अचानक तबियत खराब हुई तो अस्पताल पहुंचने में उसे तीन से चार घंटे लगेंगे.
आजीविका भी हुई प्रभावित
कोसी पर बांध बनाने के बाद इसके बाहरी इलाके के गांव तो सुरक्षित हो गये, लेकिन तटबंद के अंदर आने वाले गांव हमेशा के लिए बाढ़ के कुचक्र में फंस कर रह गये हैं. पहले कोसी के इन गांव में धान की अच्छी फसल होती थी.
कोसी नदी के कारण साल में लगभग 21,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित होता है. हर साल उपजाऊ कृषि भूमि का ज्यादातर हिस्सा बाढ़ के कारण प्रभावित होता है जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है. गांव वालों का कहना है कि पहले गांव में पानी आता था तो 3 से 4 दिन से ज़्यादा नहीं रुकता था और साथ ही बाढ़ का पानी अपने साथ उपजाऊ मिट्टी भी लाता था. लेकिन जब से तटबंध का निर्माण हुआ है खेतों में अब पानी महीनों तक भरा रहता है. अब धान की फ़सल भी अच्छी नहीं होती है जबकि धान यहां की मुख्य फसल थी.
कोसी नवनिर्माण मंच, कोसी नदी के तटबंध के भीतर रह रहे किसानों के लिए काम करती है. मंच के संस्थापक महेंद्र यादव कहते हैं
पक्का मकान किसान कैसे बनायेंगे? पहला तो उनके आय का साधन कम है. यहां के लोग ज्यादातर खेती किसानी करते हैं. लेकिन बाढ़ के कारण हर साल उसमें से एक फसल बर्बाद हो जाती है. दूसरा कारण, कोसी का कटाव है. नदी कब किस इलाके में कटाव करती पहुंच जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है. ऐसे में बना बनाया पक्का मकान कोसी नदी में समा जायेगा. और आगे भी ऐसा ही होता रहेगा, इसलिए यहां लोग पक्का मकान नहीं बनाते हैं.
सोनबरसा गांव के ग्रामीण जगदीश मंडल डेमोक्रेटिक चरखा से बातचीत में बताते हैं
सरकार के तरफ से हमें 15 धुर ज़मीन रहने के लिए दिया गया था, लेकिन खेती का सारा जमीन हमारा इसी गांव में है. रोज वहां से यहां आकर खेती करना संभव नहीं था. इसलिए यहीं रहकर जीवन यापन कर रहा हूं. जब बाढ़ आती है तो आवंटित ज़मीन पर जाकर रह लेते हैं.
भूमि सर्वेक्षण का विरोध
कोसी क्षेत्र में रहने वाले ग्रामीण बिहार सरकार द्वारा कराए जा रहे भूमि सर्वेक्षण का विरोध कर रहे हैं. बिहार सरकार ने साल 2020 में भूमि सर्वेक्षण करने का फैसला लिया था, जिसके तहत पहले चरण में 20 जिलों के भूमि का सर्वेक्षण का काम पूरा हो चुका है और बाकि 18 जिलों में सर्वेक्षण का काम 2023 तक पूरा करना है. बिहार विशेष सर्वेक्षण बंदोबस्त नियमावली 2012 के तहत बिहार के जिन इलाकों से नदियां बह रही है वहां के जमीन के सर्वेक्षण लिए कुछ नियम बनाये गये हैं.
इस नियम के तहत अगर वर्तमान में नदी किसानों के जमीन से होकर बह रही है तो वह जमीन राज्य सरकार कि होगी. साथ ही कैडस्टरल सर्वे में जो हिस्सा नदी में था और वो अब जमीन में तब्दील हो चुका है और किसान उसपर खेती भी कर रहे हों तो वह ज़मीन भी सरकार की होगी. किसान इसी नियम का विरोध कर रहे हैं और उनका कहना है कि इससे उनकी सारी ज़मीन सरकार की हो जाएगी. कोसी का चरित्र अन्य नदियों से अलग हैं इसलिए कोसी क्षेत्र में इसके अनुसार ही नियम बनाये जाने चाहिए.
कोसी नव निर्माण मंच के अध्यक्ष महेंद्र यादव कहते हैं
कोसी तटबंध के भीतर के किसानों के साथ अब तक अन्याय ही होता आया है. आज़ादी के बाद नदी पर दोनों ओर से तटबंद बना दिया गया और किसानो को कोई मुआवज़ा भी नहीं दिया गया. तटबंध के अंदर ना तो स्कूल है, ना अस्पताल और ना ही सड़कें हैं. लेकिन किसान फिर भी हर साल सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि टैक्स चुकाते हैं.
शासन-प्रशासन की कमज़ोर नीतियों का खामियाज़ा यहां के ग्रामीण भुगतने को मजबूर हैं. तटबंध निर्माण के समय यदि तटबंध के अंदर आने वाले गांवों और वहां रहने वाले किसान परिवार के बारे में विचार किया जाता तो आज वहां रह-रहे लोगों को बाढ़ के दंश को नहीं भुगतना पड़ता.