घरेलू हिंसा - सदियों से हमारे 'सभ्य' समाज की सच्चाई

घरेलू हिंसा हमारे सभ्य समाज की वो कड़वी सच्चाई है. जो सदियों से महिलाओं के साथ होती रही है. महिलाएं अपने साथ होने वाली शारीरिक

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पल्लवी कुमारी
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घरेलू हिंसा - सदियों से हमारे 'सभ्य' समाज की सच्चाई
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घरेलू हिंसा हमारे सभ्य समाज की वो कड़वी सच्चाई है. जो सदियों से महिलाओं के साथ होती रही है. महिलाएं अपने साथ होने वाली शारीरिक और मानसिक हिंसा को लेकर कभी मुखर नहीं होती हैं. रोक-टोक और गाली गलौज से शुरू होने वाली हिंसा धीरे-धीरे मारपीट तक पहुंच जाती है. कभी-कभी इस हिंसा के परिणाम काफ़ी भयावह होते हैं. कई मामलों में ये हिंसा मौत तक पहुंच जाती है. 

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साल 2006 में ऐश्वर्या राय अभिनीत फिल्म ‘प्रोवोक्ड’ घरेलू हिंसा के कारण एक महिला के हत्यारा बनने के हालातों को उजागर करती है. कैसे एक साधारण लड़की शादी के बाद 10 सालों तक घरेलू हिंसा की शिकार होती है. और एक दिन हिंसा से तंग आकर वो अपने पति का खून कर देती है.

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घरेलू हिंसा को अगर समय रहते रोक दिया जाए. तो आने वाले भविष्य में इसके बुरे परिणामों को रोका जा सकता है. समाज आज भी कई महिलाएं हैं, जो अपने साथ होने वाली घरेलू हिंसा के लिए आवाज नहीं उठाती हैं. वहीं अधिकांश मामलों में उनके परिजन ही उन्हें इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने से रोकते हैं.

"मेरे पति ने मुझ पर बंदूक तान दी और कहा गोली मार दूंगा"

पटना की रहने वाली ममता सिंह भी घरेलू हिंसा से पीड़ित एक महिला थीं. लेकिन समय रहते इससे बाहर निकलने की हिम्मत जुटाकर ममता आज अपनी बेटी के साथ एक अच्छा जीवन बिता रही हैं. ममता सिंह बताती हैं,

मेरी शादी 12 साल की उम्र में हो गयी थी. उस वक्त मुझे शादी और उसके बाद की जिम्मेदारियों का एहसास नहीं था. मेरे पति की उम्र भी कम ही थी. लेकिन वो अक्सर मेरे साथ मारपीट करता था. मेरे ससुराल वालों ने कभी उसे रोका नहीं. शादी के 10 सालों तक ऐसा ही चलता रहा. एक रोज़ मेरा पति कहीं से बंदूक लेकर आया और बोला ज़्यादा बोलोगी तो मार देंगें. मैं डर गयी और ससुराल से भागकर अपने मायके आ गयी.

ममता बताती हैं

मेरे घर आने के बाद मेरे पिता बहुत गुस्सा हुए थे. मेरे पापा और चाचा मुझे वापस ससुराल भेजना चाहते थे लेकिन मैं नहीं गयी. मुझे लगता है मेरे एक उस हिम्मत ने मुझे आज एक अच्छा जीवन जीने का मौका दिया है.

क्या कहते हैं सरकारी आंकड़े?

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 (NFHS-5) के रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 18 से 49 साल की 29.3% महिलाएं पति द्वारा कभी ना कभी घरेलू हिंसा का शिकार हुई हैं. जिन में शहरी क्षेत्र में 24.2% और ग्रामीण क्षेत्र में 31.6% महिलाएं इससे पीड़ित हैं. 

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के डाटा के अनुसार बिहार में 18 से 49 साल की 40% महिलाएं कभी ना कभी पति द्वारा हिंसा की शिकार हुई हैं. वहीं 18 से 49 साल की 2.8% महिलाएं प्रेगनेंसी के दौरान शारीरिक हिंसा की शिकार हुई हैं.

एनसीआरबी (NCRB) रिपोर्ट के अनुसार बिहार में साल 2021 में 17,950 महिलाएं अपराध की शिकार हुई हैं. और उनके साथ हुए अपराध की दर 30.2% रही थी. इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार में दहेज के कारण 1000 महिलाओं की मौत हुई है. पति या उसके परिजनों द्वारा हुई हिंसा के 2,069 केस दर्ज किए हुए हैं. और दहेज की मांग को लेकर 3,367 केस दर्ज किये गये थे. वहीं पूरे भारत में दहेज के ख़िलाफ़ 13,776 केस दर्ज किये गये थे.

वहीं पति या उसके परिजनों द्वारा हिंसा के 1,90,727 और दहेज के कारण मौत के 10,450 मामले पुलिस द्वारा दर्ज किया गया है.   

हालांकि ये आंकड़े वास्तविक आंकड़ों से काफ़ी कम होते हैं. इसकी एक प्रमुख वजह ये है कि अधिकांश आंकड़े कभी दर्ज ही नहीं किये जाते हैं. अधिकतर मामलों में 'घर की बात घर में रहनी चाहिए' वाले फ़ॉर्मूले को अपनाया जाता है.

घरेलू हिंसा की क्या वजहें हैं?

  • महिलाएं अपने साथ होने वाली हिंसा को लेकर जल्दी बात नहीं करती हैं. जो महिला इससे बाहर निकलना भी चाहती हैं, उन्हें उनके परिजन रोक देते हैं. ऐसे में ये मामले घर की दीवारों में ही बंद रहते हैं.
  • बहुत बार पुलिस भी ऐसे मामलों को दर्ज नहीं करती है. उनका कहना है कि महिलाएं बाद में खुद ही केस वापस लेने की मांग करती हैं.
  • भारतीय समाज का आधार पितृसत्तात्मक होने के कारण, महिलाओं को परिवार के अंदर सामंजस्य बिठाने की जिम्मेदारी दे दी जाती है. विपरीत परिस्थितियों में भी सहते रहने की नसीहत उन्हें आस पड़ोस और परिजनों से मिलती है.
  • कई बार आर्थिक निर्भरता के कारण महिलाएं घरेलू हिंसा से बाहर निकलने का साहस नहीं कर पाती हैं.

"हिंसा से निकल कर मैंने अपनी बेटी को पाला"

ममता सिंह इन कारणों को पीछे छोड़ते हुए घरेलू हिंसा से बाहर निकलने में सफ़ल रहीं हैं. ममता बताती हैं

शादी के समय मैं छठी या सातवीं में पढ़ती थी. लेकिन पति के पास से वापस लौटने के बाद मैंने बारहवीं तक की पढ़ाई को पूरा किया था. पटना अपने एक परिचित के पास आने के बाद, उन्होंने मुझे एक अस्पताल में नौकरी दिलवा दिया. जहां मैंने नर्स की ट्रेनिंग ली. जिसके बाद मैं इस क्षेत्र में आगे बढ़ती गयी. आज मेरी बेटी शिक्षित है. और बैंक में नौकरी करती हैं. मुझे इस बात का संतोष है, कि भविष्य में उसे मेरी जैसी परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ेगा.

साहस, शिक्षा और आर्थिक स्वावलंबन ने ममता को घरेलू हिंसा से बाहर निकलने का रास्ता दिया. लेकिन बहुत सी महिलाओं को ऐसा अवसर नहीं मिला पाता है. जिसके कारण वो घरेलू हिंसा के दलदल में फंसी रह जाती हैं.    

घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 क्या कहता है?

सरकार ने महिलाओं और बच्चों को घरेलू हिंसा से संरक्षण देने के लिये घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 लागू किया है. यह अधिनियम घरेलू हिंसा के पीड़ित किसी भी महिला या 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को कानूनी संरक्षण प्रदान करता है.

इस अधिनियम के तहत एक महिला, यदि अपने पति या रिश्तेदारों द्वारों हिंसा या दुर्व्यवहार की शिकायत करती है, तो उन्हें कानूनी मदद दिया जाता है. यह अधिनियम तलाकशुदा महिलाओं को भी कानूनी सहायता देता है.   

घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 लागू होने से पहले हमारे देश में महिलाओं को घरेलू हिंसा से कानूनी संरक्षण देने के लिए दहेज निषेध अधिनियम, 1961 था. जिसमें साल 1983 में संशोधन करके धारा 498-क को जोड़ा गया था. यह एक गैर जमानती धारा है, जिसके अंतर्गत अभियुक्त की गिरफ़्तारी तो हो सकती है. पर पीड़ित महिला को भरण पोषण अथवा निवास जैसी सुविधा दिए जाने का प्रावधान नहीं है.

जबकि घरेलू हिंसा कानून, 2005 के अंतर्गत अभियुक्त की गिरफ़्तारी नहीं होती है. लेकिन पीड़ित महिला और उसके बच्चे को भरण पोषण अथवा निवास की सुविधा दिए जाने का प्रावधान किया गया है.

‘वन स्टॉप सेंटर’ घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं का सहारा

वहीं सरकार ‘वन-स्टॉप सेंटर’ जैसी योजनाएं भी चला रही है. जिसका उद्देश्य हिंसा की शिकार महिलाओं को एक ही स्थान पर कानूनी, चिकित्सीय और मनोवैज्ञानिक मदद प्रदान करना है. हिंसा से पीड़ित कोई भी महिला टॉलफ्री नंबर 181 पर कॉल कर सहायता मांग सकती हैं.

महिला एवं बाल विकास निगम के जिला परियोजना प्रबंधक गुलाम गौस बताते हैं,

वन स्टॉप सेंटर बिहार के सभी 38 जिलों में संचालित है. यहां महिलाएं अपनी शिकायत लेकर आती हैं. और हम उस मामले को परामर्श के द्वारा सुलझाने का प्रयास करते हैं. वन स्टॉप सेंटर पर दो तरह के मामले आते हैं, पहला- आपातकालीन और दूसरा गैर-आपातकालीन. आपातकालीन में वैसे केस होते हैं. जहां महिला को तुरंत मेडिकल की सुविधा चाहिए होती है. जबकि गैर आपातकालीन में बातचीत और काउंसिलिंग की प्रक्रिया अपनाई जाती है. यहां उन्हें कानूनी सलाह भी उपलब्ध करायी जाती है.

केस निष्पादन में कितना समय लगता है?

किसी केस के निष्पादन कितना समय लगता है इसपर गुलाम गौस बताते हैं,

केस सम्पादन का समय दोनों पक्षों पर निर्भर करता है. क्योंकि वन स्टॉप सेंटर मनोसामाजिक परामर्श के जरिए मामले को सुलझाना चाहता है. पीड़िता की पूरी समस्या सुनने के बाद आवेदन और डिटेल लिया जाता है. जिसके बाद प्रतिवादी (respondent) को नोटिस देकर बुलाया जाता है. हो सकता है एक दो हियरिंग में ही सहमती बन जाए. या कभी चार से पांच हियरिंग भी लग जाते हैं. ऐसे में किसी भी केस के निष्पादन के लिए न्यूनतम दो महीने का समय तय किया गया है.

वहीं जिन महिलाओं को अल्पावास की सुविधा चाहिए होती हैं. उन्हें वहां भेजा जाता है. अभी 11 जिलों में अल्पावास केंद्र चल रहा है जिसे पुनः सभी 38 जिलों में शुरू किया जाएगा.  

क्या 11 अल्पावास से सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में मदद मिलेगी?

हालांकि यह योजनाएं कितनी कारगर और प्रभावी हो सकती हैं? इसको इस तथ्य से समझिये- हर जिले में केवल एक वन स्टॉप सेंटर, क्या दूर दराज के गांवों में रह रहीं महिलाओं को फ़ौरन सहायता पहुंचा सकती है? क्या केवल 11 अल्पावास केंद्र हज़ारों महिलाओं का आश्रय स्थल बन सकता है?

शायद न्याय मिलने में होने वाली यही देरी महिलाओं के चुप्पी और रिश्तों में समझौते का कारण बनती है. एक थप्पड़ के बाद अपने स्वाभिमान के लिए रिश्ते से अलग होना फिल्मों में आसान होता है. लेकिन असल जिंदगी में महिलाएं वैवाहिक संबंधों में अपमान झेलते हुए जीती रहती हैं.