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दलित समुदाय में शिक्षा: आख़िर क्यों अभी तक शिक्षा से दूर हैं बिहार के दलित?

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दलित समुदाय में शिक्षा की कमी आज भी देखें जा रहें. समाज में दलित अस्मिता की लड़ाई केवल समाज और सम्मान तक ही सीमित नहीं है. बल्कि उनके लिए यह लड़ाई शिक्षा, रोजगार और विकास के लिए मिलने वाले समान अवसर के दृष्टिकोण से भी उतनी ही कठिन है.

दलित समुदाय में शिक्षा

दलित समुदाय का सामाजिक स्तर पर संघर्ष जारी

इसका जीता-जागता उदाहरण बिहार के दलित समुदाय के लोग हैं जो सामाजिक स्तर पर तो संघर्ष कर ही रहे हैं. इसके साथ ही, सरकारी विकास योजना उन तक पहुंच सके, इसके लिए भी उन्हें सरकार और अपने प्रतिनिधि से अब तक संघर्ष करना पड़ रहा है.

सरकार लगातार कर रही दलित समुदाय में अच्छी शिक्षा का दावा

बिहार सरकार लगातार दलित समुदाय के लोगों को अच्छी शिक्षा देने का दावा करती आ रही है. दलित समुदाय की शिक्षा में बेहतरी को लेकर सरकार ने कई योजनाओं को लागू भी किया है.

मुसहर एवं भुईंया जाति के बच्चों के लिए शिक्षा के प्रसार हेतु विशेष छात्रवृत्ति कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं. राज्य सरकार की माने तो इस योजना के अंतर्गत 100 रुपए प्रतिमाह वर्ग 1 से 6 के लिए छात्रवृत्ति का प्रावधान किया गया है.

इसके अलावा बिहार सरकार का दावा है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के बच्चों के लिए राज्य में 87 आवासीय विद्यालय संचालित है तथा 13 नए आवासीय विद्यालयों को स्वीकृति भी दे दी जा चुकी है.

गौर करने वाली बात यह है कि जब राज्य में दलित समुदाय के शिक्षा की स्थिति इतनी अच्छी है तो फिर ये समुदाय इतना पिछड़ा क्यों है?

सरकार द्वारा किए जा रहे इन दावों की पड़ताल करने के लिए हमारी टीम बेगूसराय जिले के डंडारी प्रखंड पहुंची. यहां दलितों के शिक्षा की हालत बेहद खराब थी. खासकर लॉकडाउन के बाद बच्चों की पढ़ाई बिल्कुल चौपट सी हो गई है. इस विषय पर हमने शिवम नाम की एक लड़के से बात की. उसने हमें बताया कि

सर खुद से पढ़ते हैं. पढ़ाई में मन तो लगता है लेकिन हमलोगों के पास किताब उतना नहीं है. लॉकडाउन में भी सब कुछ बंद था तो कुछ पढ़े नहीं. ऑनलाइन क्लास भी हमलोगों का नहीं चलता था. कुछ दिन तक टीचर को बोले भी लेकिन फिर भी ऑनलाइन क्लास चालू नहीं हुआ. अब तो स्कूल भी जाना बंद कर दिए हैं. पढ़ाई भी छूट गई है.

इस विषय पर हमने शिवम की मां उर्मिला जी से भी बात की. उन्होंने अपने पुत्र की शिक्षा के विषय में बताते हुए कहा कि

पढ़ाई-लिखाई को लेकर तो हम लोग जो सरकार चला रही है उसी पर निर्भर हैं. इतना मजदूरी तो जुटा नहीं पाते हैं कि इसको पढ़ा सकें. वैसे पढ़ने में इसे काफी मजा आता है लेकिन हम लोगों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि इसको पढ़ा सकें.

शिक्षा के विषय पर हमने खुशी नाम की एक बच्ची से बात की जो उसी दलित बस्ती में रहती थी. खुशी ने हमें बताया कि

अभी तो मैंने 10th का एग्जाम दिया है और आगे 12वीं में एडमिशन लेना है. सोचा तो था मैंने कि पढ़ाई-लिखाई करके किसी कंपटीशन का तैयारी करूंगी लेकिन अब मेरी शादी होने वाली है. इसलिए पढ़ाई-लिखाई से तो मेरा नाता ही छूटने वाला है. अगर थोड़ा-सा भी सपोर्ट सरकार की ओर से मुझे मिला होता तो जरूर मैं कुछ अच्छा कर पाती.

दलित समुदाय में शिक्षा

मूलभूत सुविधाएं भी दलित बस्तियों से गायब

बिहार के कई इलाके ऐसे हैं जहां आज भी सड़क से लेकर पानी तक की सुविधा भी सरकार नहीं पहुंचा पाई है. विधायक हो या मुखिया कोई जनप्रतिनिधि जनता से एक बार उनकी समस्या तक पूछने नहीं आता.

कुछ ऐसी ही स्थिति खगड़िया जिले के अलौली प्रखंड अंतर्गत चातर पंचायत के दिघनी गांव की है. इस गांव में लगभग 500 दलित वोटर हैं जो मुसहर जाति से आते हैं. ना तो अब तक इन लोगों तक सड़क पहुंच पाई है और ना ही कोई सरकारी विकास की योजनाओं का लाभ इन्हें मिल पा रहा है.

इस विषय पर वहां की निवासी सविता देवी से हमारी बात हुई. उन्होंने बताया कि

आपलोग के सामने है रोड का स्थिति. अभी तो बारिश का मौसम नहीं है वरना तो यहां चलने लायक हालत नहीं होता है. कितना बार आवेदन दे चुके हैं कोई देखने तक के लिए नहीं आता है. हमलोग ना तो विधायक को जानते हैं और ना ही मुखिया को. खुद से चंदा लेकर हमलोग एक पुल बनाए थे लेकिन बाढ़ आने पर पुल भी पूरा टूट जाता है. हम लोग को कोई देखने वाला नहीं है.

इस विषय पर हमने वहां के सुभाष जी से भी बात की. उन्होंने रोड नहीं तो वोट नहीं नाम से दलित बस्तियों में आंदोलन भी शुरू किया था. वो हमलोगों से बात करते हुए बताते हैं-

पिछले विधानसभा में हमलोगों ने किसी को वोट नहीं डाला. एक साथ मिलकर 500 लोगों ने वोट डालने से इंकार कर दिया. हमारी शर्त यही है कि पहले हमारी मांगों को पूरा कीजिए तब हम वोट डालेंगे. ना तो रोड बना है अभी तक. दुखी बीमारी आदमी को ले जाने में इतना दिक्कत होता है कि मत पूछिए. बाढ़ आ जाती है तो नाव से टपना पड़ता है. इससे पहले जिस जनप्रतिनिधि को जिताया गया था, एक बार देखने भी नहीं आए कि हमलोग किस स्थिति में रह रहे हैं. मतलब इतना समझ लीजिए कि जानवर से भी खराब स्थिति हमलोग का है.

दलित समुदाय में शिक्षा

महादलित आयोग का गठन का भी नहीं मिल पा रहा है लाभ

2005 में जब नीतीश कुमार की सरकार सत्ता में आई तब महादलित आयोग के गठन, विकास मित्र की बहाली और पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं, दलितों, अतिपिछड़ों को आरक्षण देकर उनकी आवाज को आगे बढ़ाने का लक्ष्य था.

दलित छात्र एवं छात्राओं को छात्रवृत्ति, निशुल्क कोचिंग आदि की व्यवस्था से लेकर दलितों को रेडियो, उनके टोले में पक्के रोड निर्माण और आवास तक की सुविधा को बेहतर करने की बात कही गई थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

इस विषय पर हमने बेगूसराय जिले के डंडारी प्रखंड के निवासी सत्येंद्र जी से बात की. उन्होंने बताया कि

महादलित आयोग का गठन तो सिर्फ एक राजनीतिक जुमलाबाजी थी. सरकार ने केवल इससे दलितों का वोट अपनी और खींचा. महादलित आयोग बन जाने के बाद कोई बहुत बड़ा बदलाव दलित समाज में देखने को मिला ऐसा तो नहीं हुआ है. अलग-अलग पार्टियां अपनी राजनीतिक रोटी सेकने के लिए अलग-अलग तरह के हथकंडे अपनाती है और हमलोग उसका शिकार हो जाते हैं.

दलित समुदाय में शिक्षा

दलित समुदाय में शिक्षा सरकार को एक कदम आगे बढ़कर करना होगा कार्य

बिहार सरकार के प्रयासों के बावजूद दलितों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति अब तक दयनीय बनी हुई है. यही कारण है कि बिहार के दलितों की दो-तिहाई आबादी अब तक गरीब और 62% निरक्षर है.

बिहार में दलित समुदाय की आबादी लगभग 15% है. ऐसे में सभी क्षेत्रों में इनकी भागीदारी भी इनकी जनसंख्या के अनुसार होना बेहद आवश्यक है. दलित समाज आज भी अपनी बुनियादी सुविधाओं जैसे शिक्षा, सड़क और पानी जैसी सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हैं.

दलित समाज अपने लिए आगे बढ़ने के अवसर तलाश सके, इसके लिए जरूरी है कि सरकार वर्तमान प्रयासों से एक कदम आगे बढ़कर उनके लिए कार्य करें अन्यथा दलित समुदाय हमेशा की तरह सामाजिक और आर्थिक दोनों रूप से उपेक्षा का शिकार होता रहेगा.

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