/democratic-charkha/media/media_files/2024/10/31/J5Clh5Om4pphxVcrtHfy.webp)
पिछले 5 सालों में राज्य सरकार ने कई कार्यों के लिए ख़ुद की पीठ थपथपाने का काम किया है. ऐसे में मीडिया और प्रशासन भी सरकार की बड़ाइयों को दिखाने में व्यस्त है. साथ ही चुनावी साल में 'सरकारी' विज्ञापन दिखाने का काम ज़ोरों से चल रहा है. लेकिन बिहार सरकार की कार्यशैली में सबसे बड़ा सवाल प्राथमिकता का है. क्या सरकार के लिए प्राथमिकता सड़कों और पुलों का निर्माण ही है?
सरकारी विज्ञापनों और उनके ज़मीनी कार्यों से तो ऐसा ही दिखाई दे रहा है. पिछले 5 सालों में बिहार में स्टूडेंट्स की ड्रॉपआउट संख्या बद से बदतर हो चुकी है. लेकिन सरकार का इस समस्या के समाधान के लिए किसी भी तरह का ठोस कदम दिखाई नहीं दे रहा है. साल 2023-24 के आंकड़े, जो हाल में जारी किये गए हैं, उसमें बिहार की ड्रॉपआउट संख्या देश में सबसे अधिक है.
शिक्षा विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार बिहार में 100 में से 59.7 छात्राएं सेकंड्री (दसवीं) पूरा किये बिना पढ़ाई छोड़ देती हैं. साल 2019 में ये आंकड़ा 48.4 का था. अगर छात्रों के ड्रॉपआउट संख्या पर नज़र डालें तो स्थिति और बुरी दिखाई देती है. 100 छात्रों में से 61.2 छात्र सेकंड्री (दसवीं) तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते हैं. लेकिन साल 2019 में ये आंकड़ा 48.8 का था.
यानी बिहार की शिक्षा व्यवस्था में आधे से अधिक स्टूडेंट्स अपनी पढ़ाई पूरी ही नहीं कर रहे हैं.
गुणवत्ता है एक बड़ा मसला
बिहार की शिक्षा प्रणाली में सबसे बड़ी कमज़ोरी शिक्षा की गुणवत्ता है. हाल के दिनों में बिहार शिक्षा विभाग ने शिक्षकों पर नकेल कसने का काम किया है. लेकिन शिक्षा विभाग ने शिक्षा की बुनियाद ही कमज़ोर रखी है. शिक्षकों को स्कूल में पढ़ाने के अतिरिक्त कई कामों में शामिल करना इसकी एक सबसे बड़ी कमज़ोरी है. वोटर आईडी बनाने से लेकर जातीय सेंसस तक का काम सरकारी शिक्षकों से लिया जाता है. ऐसे में शिक्षकों का ध्यान भी पढ़ाने से अधिक सरकारी कामों के निपटारे में रहता है. जिस वजह से जिन परिवारों के पास महीने के 500 रूपए भी बचते हैं, वो अपने बच्चों को प्राइवेट में पढ़ने भेजते हैं.
हाल के दिनों में BPSC द्वारा शिक्षकों की बड़े पैमाने पर नियुक्ति की गयी है. लेकिन उससे भी शिक्षा की गुणवत्ता में कोई सुधार देखने को नहीं मिला है.
कमला नेहरू नगर बस्ती में रहने वाली नाज़नीन ख़ातून घरेलू मददगार के तौर पर काम करती हैं. वो अपनी बेटी को पढ़ने के लिए पास के प्राइवेट स्कूल में भेजना ज़्यादा बेहतर मानती हैं. उनका मानना है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती है. डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए नाज़नीन ख़ातून बताती हैं- "कोई भी इंसान अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में नहीं भेजना चाहता है. वहां पढ़ाई थोड़ी होता है. टीचर लोग भी पढ़ाना नहीं चाहती हैं. खाली हम गरीब लोगों का ही बच्चा वहां पढता है. प्राइवेट स्कूल में कम-से-कम टीचर लोग पढ़ाता तो है."
मूलभूत व्यवस्था की कमी भी ड्रॉपआउट की वजह
शिक्षा विभाग के आंकड़े देखें तो सिर्फ़ पटना ज़िला जिसका ज़्यादातर क्षेत्र शहरी है, वहां की स्थिति बहुत बदतर है. जिले के कुल 4,054 स्कूल में से 1,154 स्कूल में शौचालय नहीं है. इन 1154 स्कूलों में से 557 यानी तकरीबन आधे स्कूल ऐसे हैं, जो सिर्फ लड़कियों के लिए हैं.
यूनीफाइड डिस्ट्रीक्ट इंफारमेंशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (यू-डाइस) की रिपोर्ट के मुताबिक भी बिहार के सरकारी स्कूलों में शौचालयों की स्थिति देश भर में सबसे बदतर है. राज्य के तकरीबन 8,000 सरकारी स्कूलों में गर्ल्स टॉयलेट और 9,000 में लड़कों के टॉयलेट नहीं हैं.
एनसीईआरटी की एफएसएल रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के 19% सरकारी स्कूलों में आज भी बच्चों को पीने का साफ़ पानी नहीं मिलता. कई स्कूलों में कुएं का पानी ही एकमात्र स्रोत है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है. देशभर में 20% स्कूलों में अभी भी यही हाल है.
पटना के बेलछी प्रखंड के बंदीचक स्थित मध्य विद्यालय में शौचालय नहीं है. इस स्कूल में लगभग 400 बच्चे पढ़ते हैं और इनमें से 180 छात्राएं हैं. इस स्कूल के पंखे और बल्ब भी ख़राब है. शौचालय नहीं होने के कारण यहां के बच्चियों की पढ़ाई छठे क्लास के बाद छूटने लगती है.
प्रिया कुमारी सातवीं क्लास की छात्रा हैं. उनके पिता हर रोज़ गांव से रोज़ शहर 15-16 किलोमीटर साइकिल चलाकर आते हैं और दिहाड़ी पर मज़दूरी करते हैं. प्रिया कहती हैं, "हमें किसी भी हालत में पढ़ाई करनी है और अपने घर की ग़रीबी दूर करनी है. लेकिन स्कूल में शौचालय नहीं रहने के कारण 'उतने' दिन हम स्कूल ही नहीं जा पाते हैं. पीने के लिए पानी भी नहीं है स्कूल में तो हमलोग स्कूल के दौरान पानी भी नहीं पीते हैं."
क्या सरकार उठा रही है पर्याप्त कदम?
16 जनवरी 2025 को खबर आई कि सरकार ने 78 करोड़ रुपये की राशि जारी की है. जिसमें 14 करोड़ रुपये प्राथमिक विद्यालयों की बाउंड्री वॉल के लिए, 19 करोड़ आधारभूत संरचना के निर्माण के लिए और 45 करोड़ रुपये माध्यमिक व उच्च माध्यमिक विद्यालयों के विकास के लिए हैं. लेकिन क्या यह राशि इन जर्जर विद्यालयों को सुरक्षित बना पाएगी?
बिहार सरकार ने साल 2025-26 के बजट में सबसे अधिक हिस्सा शिक्षा को दिया. पूरे बजट का कुल 19.24% हिस्सा शिक्षा को दिया गया और 60964.87 करोड़ रुपये का बजट प्रस्तावित किया है. लेकिन इतनी बड़ी राशि होने के बाद भी चूक कहां हो रही है? इस सवाल के जवाब को समझने के लिए डेमोक्रेटिक चरखा के टीम ने जिला शिक्षा पदाधिकारी से संपर्क किया. हालांकि शिक्षा पदाधिकारी के दफ़्तर से अभी किसी तरह का कोई जवाब नहीं आया है.