बिहार में लाइब्रेरी (bihar library) की स्थिति दयनीय बनी हुई है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में यह सुनिश्चित किया गया है कि प्रत्येक माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूल में एक लाइब्रेरी का होना आवशयक है. जिससे छात्रों को पढ़ने और सिखने में आसानी हो. बिहार सरकार नियमावली भी कहती है कि माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूल में पुस्तकालय का होना आवश्यक है. साथ ही लाइब्रेरी के संचालन के लिए पुस्तकालय अध्यक्ष और कनीय पुस्तकालय अध्यक्ष का होना भी आवश्यक है.
लेकिन बिहार के स्कूलों (bihar school) में लाइब्रेरी और लाइब्रेरियन (librarian) की मौजूदा स्थिति शिक्षा नीति में बनाए गए नियमों को अंगूठा दिखा रही है. यू-डायस (UDISE) की रिपोर्ट 2021-22 के अनुसार राज्य के 74% सरकारी स्कूलों में लाइब्रेरी नहीं है. इन आंकड़ों के अनुसार पूरे राज्य के मात्र 19,404 सरकारी स्कूल में ही लाइब्रेरी है. जबकि राज्य में माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर के 50,660 स्कूल हैं. वहीं राजधानी पटना में 3,486 स्कूल हैं जिनमें से मात्र 826 स्कूल में ही लाइब्रेरी मौजूद है. शेष 2,650 स्कूल बिना लाइब्रेरी के ही चल रहे हैं.
इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की पहचान कभी लाइब्रेरी से हुई ही नहीं है. उन्हें कोर्स बुक से हटकर कभी कविता, कहानी, जीवनी, अंतरिक्ष, प्रेरक कहानियों या चुटकुलों की किताबें नहीं मिली हैं. बच्चों को सिलेबस से संबंधित रेफरेंस बुक भी स्कूल में नहीं मिल पाता है जिससे पढ़ाई में मदद मिल सके.
लाइब्रेरी ना होने कारण बच्चे हो रहे किताबों से दूर
लाइब्रेरी ना होने के कारण स्कूलों के सामने भी समस्या है कि जो भी किताबें उनके पास उपलब्ध हैं उन्हें बच्चों तक कैसे पहुंचाएं. क्योंकि जहां एक ही भवन में पांच विद्यालय चलते हों वहां लाइब्रेरी के लिए जगह की पर्याप्तता (उपलब्धता) हम समझ ही सकते हैं.
कंकड़बाग स्थित राजकीय उच्च विद्यालय, रघुनाथ प्रसाद बालिका के भवन में संचालित होता है. पहले यहां छठी से 10वीं तक की पढ़ाई होती थी. लेकिन उत्क्रमित होने बाद यहां 9वीं से 12वीं तक की पढ़ाई होनी है. उत्क्रमित होने के बाद भी स्कूल को अपना भवन नसीब नहीं हुआ है. केवल दो क्लासरूम और एक ऑफिस रूम के सहारे यह स्कूल चलाया जा रहा है. इसलिए यहां लाइब्रेरी की कल्पना करना भी बेमानी है. इसी स्कूल के कक्षा 10वीं में पढ़ने वाले छात्र उसीर रंजन कहते हैं “कोर्स बुक के आलावा मैंने आज तक कोई किताब नहीं पढ़ा है. यहां से पहले भी मैं सरकारी स्कूल में ही पढ़ता था. वहां भी लाइब्रेरी नहीं था. जब क्लास में मन उब जाता है, अगर उस समय हमलोग को कोई कहानी का किताब स्कूल में पढ़ने मिल जाता तो मज़ा आ जाता.”
इसी स्कूल में पढ़ने वाली शिवानी कुमारी कहती हैं “लाइब्रेरी होता तो वहां से हम लोग किताब ले सकते थे. अलग-अलग पब्लिकेशन का किताब हम लोग फ्री में पढ़ लेते. अभी हमलोग तीन-चार दोस्त अलग-अलग विषय की किताब खरीदते हैं और बारी-बारी से उसको सबलोग पढ़ते हैं. जैसे कोर्स बुक में जो फिजिक्स की किताब चलती है उससे टॉपिक समझ में नहीं आता है. इसलिए रेफरेंस बुक लेना ज़रूरी होता है.”
स्कूल में लाइब्रेरी नहीं होने के कारण छात्र मंहगी किताबे खरीदने को मजबूर हैं. इसी स्कूल की एक शिक्षिका नाम नहीं बताने कि शर्त पर कहती हैं “स्कूल के डॉक्यूमेंट रखने की जगह नहीं है. बच्चों का डाटा हमलोग कैसे संभाल कर रखते हैं वे हमें ही पता है. ऑफिस के लिए एक कमरा मिला हुआ है. जिसमें तीन आलमारी लगाने के बाद बाकी कुछ रखने के लिए जगह नहीं है. ऐसे में हमलोग लाइब्रेरी कहां बनाएंगे.” शिक्षिका का कहना है कि सरकार अपना कार्यालय तो चकाचक बना लेती है पर स्कूल में शिक्षक को सर ढकने के लिए भी जगह नहीं देती है.
2008 के बाद नहीं आई है लाइब्रेरियन की बहाली
बिहार में साल 2008 में लाइब्रेरियन (bihar librarian vacancy) की बहाली निकाली गई थी. इसके बाद बीच में कभी-कभार अलग-अलग विभागों में कुछ नियुक्तियां की गयी हैं. राज्य में अभी स्कूल, कॉलेज व विश्वविद्यालय समेत अन्य लाइब्रेरियों में लाखों पद रिक्त हैं. लेकिन सरकार की उदासीनता के कारण इन पदों को अभी तक भरा नहीं जा सका है.
लाइब्रेरी साइंस (library science) किये अभ्यर्थी पिछले 14 वर्षो से बहाली का इंतज़ार कर रहे हैं. एक आंकलन के अनुसार राज्य में अभी 50 हज़ार से ज़्यादा लाइब्रेरी साइंस पास अभ्यर्थी बहाली का इंतज़ार कर रहे हैं. माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूलों की संख्या (55,660) है. अगर प्रत्येक स्कूल में दो लाइब्रेरियन (librarian) की नियुक्ति की जाए तो 1 लाख 86 हज़ार 330 लाइब्रेरियन के पद सृजित हो सकते हैं.
वहीं राजधानी पटना के जिन 836 स्कूलों में लाइब्रेरी मौजूद हैं, उनमें से 726 स्कूल बिना लाइब्रेरियन के हैं. जिन 110 स्कूलों में लाइब्रेरियन और लाइब्रेरी के लिए थोड़ी जगह है वहां की स्थिति कुछ ठीक है. यारपुर स्थित आदर्श विद्या निकेतन कि प्राचार्या प्रतिभा कुमारी कहती हैं “हमारे पास लाइब्रेरी के लिए जगह नहीं है. इसलिए हम किताबों की विविधता नहीं रख सकते. कोर्स की किताबें हमारे पास मौजूद हैं जिसे हम जरूरतमंद बच्चों को देते हैं.” उनका कहना है कि लाइब्रेरियन की ज़रूरत वैसे स्कूल को है जिनके पास पर्याप्त संसाधन हो. हमारे पास तो क्लास चलाने के लिए भी भवन नहीं है. लाइब्रेरी की कमी पर बात करते हुए बिहार में राइट टू एजुकेशन फोरम, के स्टेट संयोजक अनिल कुमार रॉय कहते हैं “लाइब्रेरी तो बहुत बहुत बड़ी चीज हो गई. सरकार यहां बच्चों को बैठने के लिए पूरा कमरा नहीं दे पा रही है तो लाइब्रेरी के लिए जगह कहां से लाएगी. जहां किताबें हैं वो आलमारी में बंद रहती है क्योंकि शिक्षक को भय है कि बच्चे किताबें नहीं लौटाएंगे या फाड़ देंगे.”
अनिल कुमार का कहना है कि “एक बार पढ़ने-लिखने का वातावरण बनाए जाने के बाद हमें ज़्यादा मेहनत करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. स्कूलों पर प्रशासनिक दबाव बनाने से इसमें सुधार नहीं हो सकता है. स्कूल आने के लिए बाध्य करने के बजाए स्कूल में ऐसा माहौल बनाया जाए कि बच्चे स्कूल आने के लिए खुद तत्पर रहें.”
शब्द से संसार नहीं बना सकते बिहार के बच्चे: ग़ालिब खान
बाल्यवस्था में किताबें बच्चों की अच्छी दोस्त बन सकती हैं. इनके माध्यम से बच्चे मन में उठने वाले हज़ारों सवालों के जवाब खोज सकते हैं. किताब पढ़ने की आदत बचपन से ही बच्चों के अंदर डाली जाती है. लेकिन उन बच्चों की किताबों से दोस्ती कैसे होगी जिन्हें घर और स्कूल, दोनों ही जगहों पर किताबें मिलती हीं ना हों. निम्न या मध्यम वर्गीय परिवारों के मां-बाप इतने जागरूक नहीं होते हैं कि वो बच्चे को किताबे पढ़ने के लिए प्रेरित करें.
ऐसे में स्कूल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. छोटे बच्चों की शिक्षा पर काम करने वाले समाजसेवी ग़ालिब खान कहते हैं “किताबें बच्चों को शब्दों के माध्यम से संसार बनाने का अवसर देती है. बच्चे कहानी के माध्यम से उस दुनिया की सैर कर लेते हैं जहां वो कभी गए भी ना हो. लेकिन हमारे स्कूलों ने बच्चों से इस अवसर को छीन लिया है. अगर कहीं लाइब्रेरी है भी तो वहां बच्चों के लिए किताबे हैं ही नहीं.”
इसके कारणों पर बात करते हुए खान कहते हैं “इसका एक महत्वपूर्ण कारण है किसी खास पब्लिकेशन की किताबें ही स्कूल में पहुंच रही है. स्कूलों को किताबें मुहैया कराने के लिए जब जिलें में पुस्तक मेला लगाया जाता हैं तो वहां जुगाड़ से कुछ ख़ास पब्लिकेशन ही पहुंचते हैं.” सरकारी स्कूल भवनों की तरह बिहार कि शिक्षा व्यवस्था भी जर्जर हो चुकी है.
राइट टू एजुकेशन लागू हुए 13 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी हमारी शिक्षा व्यवस्था गुणवत्तापूर्ण शिक्षण मुहैया कराने में विफ़ल है. पीछले वर्ष लोकसभा में शिक्षा मंत्री द्वारा एक प्रश्न के जवाब में बताया गया कि बिहार में RTE के तहत होने सुधारात्मक कार्य का मात्र 11.1% काम ही हुआ है. ऐसे में शिक्षक और बच्चों पर दबाव बनाने से पहले सरकार को उस व्यवस्था में सुधार लाना होगा जहां शिक्षक और बच्चे स्वयं जबावदेह बन सकें.