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बिहार के शेखपुरा ज़िले के कुसुंबा गांव में एक सरकारी स्कूल की दीवारों पर अभी भी पीला रंग झिलमिला रहा है — शायद किसी योजना के तहत हाल ही में पुताई हुई थी. लेकिन भीतर झांकिए, तो एक सन्नाटा है. एक बड़ा-सा ताला गेट पर लटक रहा है. और दीवार पर कक्षा 1 से 5 तक की कक्षाओं की सूची बनी हुई है.
यह स्कूल साल 2021 में बना था. गांव वालों के मुताबिक, सरकार ने इमारत बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लेकिन 2024 में भी यहां एक भी शिक्षक नियुक्त नहीं किया गया है.
कुसुंबा पंचायत की मुखिया रेखा देवी कहती हैं,
“बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुईं, स्कूल बना भी दिया गया. लेकिन बच्चा पढ़ेगा कैसे? मास्टर तो कोई आया ही नहीं. हम लोगों ने डीईओ (जिला शिक्षा पदाधिकारी) को कई बार लिखा, लेकिन कुछ नहीं हुआ.”
मिड-डे मील की दीदी, अब टीचर भी
सरकारी स्कूल में कक्षा चल रही है, लेकिन ब्लैकबोर्ड पर कुछ नहीं लिखा है. बच्चे ज़मीन पर बैठकर चुपचाप कुछ खा रहे हैं. ये मिड-डे मील का वक़्त नहीं है — यह पढ़ाई का समय है. लेकिन पढ़ाने वाला कोई नहीं. और जो हैं, वो मिड-डे मील की रसोईया दीदी हैं.
कमला देवी, जो स्कूल में खाना बनाने का काम करती हैं, कहती हैं:
“मास्टर साहब महीने में दो बार आते हैं. ज़्यादातर समय नहीं रहते. बच्चे स्कूल आएं, कुछ सीखें — इसलिए हम ही थोड़ा-बहुत पढ़ा देते हैं. A, B, C… और 1 से 100 तक गिनती. जितना आता है, उतना बता देते हैं.”
कमला देवी सिर्फ़ पांचवीं तक पढ़ी हैं. लेकिन पिछले तीन साल से यही बच्चों की “शिक्षिका” हैं.
जब शिक्षक नहीं, तो पढ़ेगा कौन?
शेखपुरा, गया, और औरंगाबाद जैसे ज़िलों में शिक्षक न होने की वजह से ड्रॉपआउट दर लगातार बढ़ रही है. बिहार स्कूल शिक्षा बोर्ड (BSEB) की एक रिपोर्ट के अनुसार:
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2022-23 में कक्षा 1 से 5 के बच्चों की ड्रॉपआउट दर 17.2% थी.
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जबकि कक्षा 6 से 8 के बीच यह बढ़कर 26.5% हो गई.
मीनू कुमारी, जो कक्षा 6 में पढ़ती थीं, अब बकरी चराती हैं. उनके पिता कहते हैं, “जब कोई पढ़ाने वाला ही नहीं है, तो भेजकर क्या करें? हर दिन स्कूल जाती थी, लेकिन वहां खेल होता था, पढ़ाई नहीं.”
पलामू के विश्रामपुर ब्लॉक में 14 गांवों के सर्वे में सामने आया कि हर दूसरे घर में एक बच्चा ऐसा है जिसने 6वीं से 8वीं के बीच स्कूल छोड़ दिया है — कारण, शिक्षक का अभाव.
सरकार की योजनाएं बनाम ज़मीनी हकीकत
काग़ज़ पर सरकारी योजनाओं की कोई कमी नहीं है. बिहार सरकार ने 2023 में ‘स्कूल एजुकेशन बूस्ट मिशन’ की शुरुआत की थी, जिसके तहत यह दावा किया गया कि हर पंचायत में न्यूनतम एक शिक्षक की नियुक्ति की जाएगी और 3 साल में राज्य में 1.5 लाख शिक्षकों की बहाली होगी.
मुख्यमंत्री शिक्षण सहयोग योजना, मुख्य धारा में शिक्षा अभियान, और डिजिटल बिहार विद्यालय योजना जैसे कार्यक्रम भी शुरू हुए. प्रेस विज्ञप्तियों में शिक्षा को "राज्य की प्राथमिकता" बताया गया.
लेकिन जब ज़मीनी हकीकत देखी गई, तो नतीजे चौंकाने वाले थे:
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2024 के अंत तक सरकार कुल 1.5 लाख शिक्षकों की बहाली का वादा कर चुकी थी, लेकिन महज़ 22,000 पदों पर ही नियुक्ति हुई.
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9 में से हर 4 स्कूल में अभी भी कोई नियमित शिक्षक नहीं है.
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बहुत से स्कूलों में शिक्षकों की हाज़िरी महज़ हफ्ते में 1-2 दिन की है.
एक रिपोर्ट के मुताबिक, पटना, मुजफ्फरपुर और दरभंगा जैसे अपेक्षाकृत शहरी ज़िलों में स्थिति थोड़ी बेहतर है, लेकिन सीमांचल, कोसी और भोजपुर इलाकों में हालात बदतर हैं.
समाजशास्त्री डॉ. हेमंत कुमार, जो शिक्षा के क्षेत्र में कई सालों से काम कर रहे हैं, कहते हैं: “शिक्षा पर सरकार की नीयत और नीति में फर्क है. घोषणाएं ज़्यादा, अमल कम. चुनाव आते ही शिक्षक बहाली का वादा होता है, लेकिन उसके बाद सब फ़ाइलों में गुम हो जाता है.”
नियोजन प्रणाली और शिक्षा विभाग की असफलता
बिहार सरकार की नियोजन प्रक्रिया में अब तक लाखों शिक्षकों की बहाली के दावे हुए हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है. बिहार में साल 2024 तक लगभग 3 लाख शिक्षक पद खाली हैं. शिक्षा विभाग की अधिसूचनाएं या तो अदालत में अटकी हैं या फिर तकनीकी खामियों के चलते बार-बार स्थगित हो रही हैं.
मधुबनी के बसैठ गांव में 2018 में एक प्राथमिक विद्यालय की नई इमारत बनी. एक शौचालय और एक मिड-डे मील किचन शेड भी बनाया गया. लेकिन 2025 तक उस स्कूल में सिर्फ एक शिक्षक नियुक्त हुआ है—वो भी 60 से ऊपर की उम्र में. स्कूल में कुल नामांकन 94 बच्चों का है, लेकिन औसतन हाज़िरी 15-20 तक ही सीमित है.
स्थानीय निवासी सुरेश झा कहते हैं, “बिल्डिंग देखकर लगता है सरकार ने कुछ किया है, लेकिन अंदर झांकिए तो सिर्फ दीवारें मिलती हैं. शिक्षक नाम के सिर्फ एक बाबू आते हैं, वो भी हफ्ते में दो दिन.”
एकल शिक्षक, बहु-क्लास की त्रासदी
एक ही शिक्षक, पहली से पांचवीं तक की कक्षाओं को पढ़ा रहे हैं. एक कक्षा को बोर्ड पर कुछ लिखकर छोड़ दिया जाता है, और बाकी को मौखिक पढ़ाया जाता है. इस बीच शिक्षक खुद चाय पीने बाहर चले जाते हैं. परिणामस्वरूप बच्चे न शुद्ध हिंदी पढ़ पाते हैं, न ही गिनती पूरी कर पाते हैं.
बांका के कटोरिया ब्लॉक के चिल्हकी गांव में भी ऐसा ही दृश्य है. गांव का स्कूल बच्चों से नहीं, सूनेपन से भरा होता है. वहां की प्रधानाध्यापिका कभी-कभी स्कूल आती हैं. बच्चे ज़्यादातर समय बाहर खेलते मिलते हैं.