न जगह, न पहचान: पटना जंक्शन के फुटपाथ दुकानदारों का संघर्ष

राजू कुमार पिछले 20 सालों से पटना जंक्शन पर स्टाल लगा के अपनी आजीविका चलाते आए हैं. यहीं से उनके पूरे परिवार का खर्च चलता है. लेकिन 2022 में सब कुछ बदल गया. बिहार में विकास की आंधी ने उन्हें बेरोज़गारी और भुखमरी पर लाकर छोड़ दिया

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Waheed Azam
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राजू कुमार पिछले 20 सालों से पटना जंक्शन पर स्टाल लगा के अपनी आजीविका चलाते आए हैं. यहीं से उनके पूरे परिवार का खर्च चलता है. लेकिन 2022 में सब कुछ बदल गया. बिहार में विकास की आंधी ने उन्हें बेरोज़गारी और भुखमरी पर लाकर छोड़ दिया.

मल्टी लेवल पार्किंग हब के निर्माण के लिए जंक्शन के आस-पास की जगह को खाली करा दिया गया जहां वो पान दुकान लगाते थे. अब ना तो उनके पास दुकान लगाने की जगह थी और न ही आजीविका का कोई साधन.

ऐसी कहानी जंक्शन के आस पास ठेला लगाने वाले सैंकड़ो लोगों की है. 

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पटना जंक्शन के पास टाटा पार्क में फुटपाथ पर वर्षों से दुकानें लगाने वाले सैकड़ों छोटे दुकानदारों की ज़िंदगी इस समय अनिश्चितता और संघर्ष से घिरी हुई है. ये लोग न केवल अपने रोज़गार के लिए लड़ रहे हैं, बल्कि सरकार और प्रशासन से अपनी पहचान और मान्यता की मांग कर रहे हैं.

प्रशासनिक उपेक्षा, मेट्रो परियोजना और कथित भ्रष्टाचार के बीच फुटपाथ दुकानदारों की यह जंग अब केवल ज़मीन या जगह की नहीं रही, बल्कि उनके रोज़गार और अस्तित्व की लड़ाई बन चुकी है.

एक बाज़ार जो बना, फिर उजाड़ा गया

फुटपाथ दुकानदारों का कहना है कि वर्षों पहले उन्हें नगर निगम और सरकार द्वारा पटना जंक्शन के पास टाटा पार्क में अस्थायी रूप से दुकानें लगाने की अनुमति दी गई थी. वर्ष 2014 में सरकार ने इन दुकानों के नियमन की दिशा में काम शुरू किया और ‘पटना जंक्शन ठेला फुटपाथ दुकानदार संघ’ का पंजीकरण भी किया गया. 

तीन बाज़ार बनाए जाने की योजना बनी थी मौर्यालोक, चंद्रलोक और आकाशलोक.

लेकिन यह योजना अधूरी रह गई और समय के साथ पटना स्मार्ट सिटी परियोजना व मेट्रो प्रोजेक्ट की वजह से फुटपाथ दुकानदारों को कई बार हटाया गया. इसके बाद दुकानदारों को स्मार्ट सिटी के तहत मल्टी लेवल पार्किंग में स्थानांतरित करने का प्रस्ताव आया, लेकिन वहां की स्थिति और मेट्रो निर्माण के चलते यह योजना भी असफल रही.

धरना, भूख हड़ताल और प्रशासनिक प्रताड़ना

दुकानदारों ने जब लगातार उपेक्षा देखी, तो उन्होंने अनिश्चित कालीन धरना और भूख हड़ताल शुरू की. लेकिन जैसे ही इनका वीडियो और तस्वीरें सोशल मीडिया और प्रशासनिक अधिकारियों तक पहुंची, उसी रात उन्हें भूख हड़ताल से जबरन हटाया गया.

रात 11 बजे पुलिस और नगर निगम अधिकारियों की मदद से न केवल आंदोलन समाप्त करवाया गया, बल्कि दुकानदारों को टाटा पार्क से हटाकर मल्टीलेवल पार्किंग की ओर भेजा गया, जिसे दुकानदारों ने अस्वीकृत कर दिया. 

एक दुकानदार ने हमें नाम गोपनीय रखने की शर्त पर बताया कि "हमें धमकी दी गई, दबाव डाला गया और हमारी बात सुने बिना ही ज़बरदस्ती हटाया गया. हमने कोर्ट का सहारा लिया और अंततः एक आदेश मिला जिसमें स्पष्ट किया गया कि जब तक पुनर्वास नहीं किया जाए, हमें हटाया नहीं जा सकता."

साक्ष्य के साथ दावा

संघ की ओर से जारी एक पत्र (दिनांक 26/05/2025) में 5 प्रमुख मांगें रखी गईं:

  1. 5 साल पर विक्रय प्रमाणपत्र और नवीनीकरण का अधिकार, जिसे निगम अब तक नहीं दे रहा है.
  2. नेड़ों के संचालन पर ₹1000-₹1500 तक की अवैध वसूली, जिसकी न तो रसीद मिलती है और न ही नगर निगम की कोई पारदर्शिता है.
  3. टीवीसी (Town Vending Committee) की बैठक न होना, जिससे दुकानदारों की समस्याएं अनसुनी रह जाती हैं.
  4. यूई (U.E.) चुनाव का 5 वर्षों से न होना, जिससे लोकतांत्रिक भागीदारी बाधित हो रही है.
  5. नवीन वेडरों की अवैध भर्ती और पुराने वेडरों की उपेक्षा, जिससे पारंपरिक दुकानदारों को रोज़गार से वंचित किया जा रहा है.

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पत्र में यह भी स्पष्ट किया गया कि नगर निगम के पास तमाम दस्तावेज़ों के बावजूद न तो दुकानदारों की सूची को अपडेट किया गया और न ही उन्हें पुनर्वास के लिए चिन्हित किया गया.

रोज़गार के संकट में धकेले गए लोग

इस पूरे विवाद का सबसे बड़ा पहलू है रोजगार का संकट. टाटा पार्क में दुकान लगाने वाले अधिकांश दुकानदार झारखंड, जहानाबाद, पूर्णिया, और अन्य जिलों से आए हुए हैं, जो रोज़गार के लिए पटना में बस गए थे. लेकिन अब ये लोग शहर के स्थायी वोटर नहीं होने के कारण स्थानीय राजनीति के हाशिए पर हैं.

उनकी दुकान हटाने के बाद उन्हें किसी भी वैकल्पिक स्थान पर स्थापित नहीं किया गया. बहुत से दुकानदारों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि वे कोर्ट केस लड़ने में भी असमर्थ हैं. जो लड़ भी रहे हैं, वे अपनी दुकान के साथ-साथ कानूनी लड़ाई लड़ने की दोहरी जिम्मेदारी में टूट रहे हैं.

दुकानदारों की आवाज़ को सुने कौन?

मोहम्मद आरिफ, 29 वर्षीय दुकानदार, अब एक छोटे से तिरपाल से तने स्टॉल पर खड़ा होकर चाय बेचते हैं. 2023 में उन्हें नगर निगम की ओर से न तो विक्रय प्रमाणपत्र मिला, न पहचान पत्र.

उन्होंने बताया, “मैंने 17 साल की उम्र में यहां झारखंड से आकर चाय की दुकान लगानी शुरू की थी. 12 साल तक रोज़ सुबह 5 बजे पटना जंक्शन के बाहर चूल्हा जलता था, लेकिन अब मैं हर दिन डर के साए में दुकान लगाता हूँ. जब कोर्ट से ऑर्डर आया कि हमें बिना पुनर्वास के नहीं हटाया जा सकता, तो हमें थोड़ी राहत मिली. लेकिन उसके बाद प्रशासन ने हमारी बात सुनी ही नहीं” 

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संघ ने स्पष्ट रूप से आरोप लगाया है कि नगर निगम और पुलिस प्रशासन की मिलीभगत से 'वसूली' और 'पार्सल सिस्टम' चलता है, जहां ₹500 देने वाले को दुकान की जगह मिल जाती है और पुराने दुकानदारों को बाहर कर दिया जाता है.

दुकानदारों ने कई बार अनुरोध किया कि यदि मल्टी-मॉडल हब या अन्य जगह उन्हें दुकानें बना कर दी जाए, तो वे ₹3000-₹4000 मासिक किराया देने को तैयार हैं.

एक दुकानदार बंशी शाह ने बातचीत में कहा, "हमने चीफ सेक्रेटरी से लेकर डीएम तक पत्र भेजे. हर जगह सिर्फ आश्वासन मिला, लेकिन ज़मीन पर कोई बदलाव नहीं हुआ. हम बिहारियों की यही विडंबना है कि हम आज देखते हैं, कल की योजना नहीं बनाते. उन्होंने इस समस्या का संधान का भी तरीका बताया. "

पटना के हाशिए पर रोज़गार की कहानी

टाटा पार्क के फुटपाथ दुकानदार केवल अवैध अतिक्रमणकारी नहीं हैं. वे इस शहर की आत्मा हैं वो आत्मा जो हर सुबह पटना जंक्शन के बाहर गर्म चाय, सस्ते जूते, स्टेशनरी और नमकीन के स्टॉल पर दिखती है.

उनकी लड़ाई केवल जमीन की नहीं, पहचान और भविष्य की है. जब तक सरकारें इनकी आवाज़ नहीं सुनतीं और प्रशासन पारदर्शिता के साथ पुनर्वास नहीं करता, तब तक यह संघर्ष जारी रहेगा. यह सिर्फ एक क्षेत्रीय मुद्दा नहीं है, यह भारत के शहरी रोज़गार ढांचे की गंभीर विफलता का प्रतीक है.

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