शोषण, संघर्ष और असुरक्षित भविष्य के बीच बिहार के दैनिक मजदूरों की अनसुनी पुकार

पिछले कई वर्षों से लगातार दैनिक मज़दूर प्रदर्शन करते आ रहे है, लेकिन आज तक किसी ने भी उनको मांगों को पूरा नहीं किया. सरकार एक तरफ़ खुद को गरीबों की हितैषी बताती है, लेकिन जब मज़दूर अपने हक की मांग करते हैं, तो उनके खिलाफ़ पुलिस तैनात कर दी जाती है.

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नाजिश महताब
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बिहार से हर साल लगभग 2.9 करोड़ लोग काम की तलाश में दूसरे राज्य में पलायन कर रहे हैं. यह राज्य की कुल आबादी यानी 13 करोड़ का लगभग 20 प्रतिशत है.तो सोचिए कि बिहार से हर साल लगभग 2.9 करोड़ लोग काम की तलाश में दूसरे राज्य में पलायन कर रहे हैं. यह राज्य की कुल आबादी यानी 13 करोड़ का लगभग 20 प्रतिशत है.तो सोचिए कि इतने बड़े संख्या का कितना हिस्सा दैनिक मज़दूर होगा.

दैनिक मजदूरों की अनसुनी आवाज़ें

10 मार्च को राजधानी पटना की सडकों पर बिहार की जनता को एक अलग ही दृश्य देखने को मिला जब नगर निकायों के दैनिक मजदूर, जो शहर की सफ़ाई, जल आपूर्ति, सड़क मरम्मत और अन्य आवश्यक सेवाओं को संभालते हैं, अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरे. उनकी मांगें कोई अनुचित या असंभव नहीं हैं. वे सिर्फ़ अपने जीवन यापन के लिए एक सम्मानजनक वेतन और स्थायी नौकरी की गारंटी चाहते हैं. लेकिन उनकी यह पुकार कब सुनी जाएगी? 

ये वही लोग हैं जो हर सुबह अंधेरे में उठते हैं, गलियों में झाड़ू लगाते हैं, कचड़ा उठाते हैं, नालियों की सफ़ाई करते हैं, ताकि शहर स्वच्छ और सुंदर दिखे. लेकिन उनके अपने जीवन में स्थिरता और सुरक्षा का अभाव है. उनका वेतन बेहद कम है, नौकरी की स्थिरता नहीं है और हर दिन उन्हें अपनी रोज़ी-रोटी की चिंता सताती है.  

 शोषण का चक्र और अनदेखी  

बिहार में नगर निकायों के दैनिक कर्मी वर्षों से स्थायीकरण, उचित वेतन और ठेका प्रथा खत्म करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकार और प्रशासन ने हमेशा उनकी आवाज़ को अनसुना किया है. उनकी समस्याएं केवल शहरों की गंदगी साफ़ करने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनका जीवन भी शोषण और अन्याय से भरा हुआ है.  

वे रोज़ाना 12 से 14 घंटे तक काम करते हैं, लेकिन भुगतान सिर्फ 6 से 8 घंटे का ही किया जाता है. कई बार महीनों तक वेतन नहीं दिया जाता, जिससे उनके परिवार भुखमरी की कगार पर आ जाते हैं. कोई भी चिकित्सा सुविधा, बीमा या पेंशन नहीं दी जाती. अगर काम के दौरान कोई दुर्घटना हो जाए, तो परिवार को सिर्फ़ दुख और गरीबी मिलती है. ठेके पर काम करने वालों को सरकारी कर्मियों की तरह सुविधाएं नहीं मिलतीं, जबकि उनसे वही काम लिया जाता है.  

पटना नगर निगम में काम करने वाले पप्पू ( बदला हुआ नाम) बताते हैं कि “ हमसे 10 से 14 घंटा काम लिया जाता है और पेमेंट सिर्फ़ 8 घंटे का मिलता है और अगर गलती से अटेंडेंस बनाने में लेट हो तो उस दिन का पूरा वेतन काट लिया जाता है. हमें जो वेतन मिलता है उससे घर चलाना काफ़ी मुश्किल है. दूसरी चीज़ जो समस्या है वो है आउट सोर्सिंग की, आउट सोर्सिंग से पटना नगर निगम को 14000 रुपया आता है लेकिन हमें 9000 या 10,000 रुपया ही दिया जाता है.”

न्यूनतम मजदूरी भी सिर्फ़ कागजों पर  

बिहार सरकार ने न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के तहत मजदूरों के वेतन तय किए हैं.अकुशल मजदूर को 410 रुपये प्रतिदिन, अर्ध-कुशल मजदूर को 426 रुपये प्रतिदिन, कुशल मजदूर को 519 रुपये प्रतिदिन, अत्यधिक कुशल मजदूर को 634 रुपये प्रतिदिन, पर्यवेक्षी और लिपिकीय मजदूर को 451 रुपये प्रतिदिन.लेकिन असल में बहुत कम मजदूरों को यह वेतन मिलता है. अधिकतर अकुशल मजदूरों को 300 से 350 रुपये प्रतिदिन ही दिए जाते हैं. कई बार उनसे सात दिन काम करवाया जाता है, लेकिन भुगतान केवल पांच दिनों का ही होता है.  

पटना को सुंदर बनाने वालों की जीवन असुंदर
 
पूजा देवी जो कि एक दैनिक मज़दूर हैं, जब हमने उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि  “ वेतन का बहुत दिक्कत है. वेतन कम है और वक़्त से भी नहीं मिलता है. हमें अपना घर चलने में काफ़ी दिक्कत आती है. पटना नगर निगम को हमें अस्थाई करना चाहिए और हमारा वेतन को भी बढ़ाना चाहिए, ये हम ही हैं जो पटना को सुंदर बनाते है लेकिन हमारा जीवन ही सुंदर नहीं हो पा रहा है. क्या यह वही बिहार है, जिसे विकासशील राज्य कहा जाता है? क्या यह वही सरकार है, जो गरीबों के हितैषी होने का दावा करती है?  

 करो या मरो का संकल्प 

प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे बिहार लोकल बॉडीज कर्मचारी संयुक्त संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष चंद्रप्रकाश सिंह ने कहा कि “ 2025 का वर्ष निकायकर्मियों के लिए करो या मरो का वर्ष होगा. अगर हमारी मांगों की पूर्ति नहीं की जाती है, तो विधानसभा चुनाव में बिहार सरकार को सबक सिखाने का काम करेंगे.”  

 सरकार की दोहरी नीति  

पिछले कई वर्षों से लगातार दैनिक मज़दूर प्रदर्शन करते आ रहे है, लेकिन आज तक किसी ने भी उनको मांगों को पूरा नहीं किया. सरकार एक तरफ़ खुद को दलित, महादलित और गरीबों की हितैषी बताती है, लेकिन जब मज़दूर अपने हक की मांग करते हैं, तो उनके खिलाफ़ पुलिस तैनात कर दी जाती है. गर्दनीबाग में प्रदर्शनकारियों को आगे बढ़ने से रोक दिया गया. पुलिस ने बैरिकेड्स लगाकर रास्ता बंद कर दिया. क्या यही लोकतंत्र है?  

 मांगें क्या हैं?  

दैनिक कर्मियों का स्थायी करण, 26000 रुपया न्यूनतम वेतन करने, आउटसोर्स व्यग्स्था को समाप्त कर उसके कर्मियो को निकाय कर्मी के रुप में समंजन करने, निकाय से समाप्त किये गये पद की पुनः शुरू किये जाने, विभाग द्वारा एसीपी पर लगाये गये रोक को वापस करने की मांग है.

आउटसोर्सिंग क्या है?  

आउटसोर्सिंग का मतलब है किसी अन्य कंपनी, व्यवसाय या व्यक्ति को अपने व्यवसाय की ओर से गतिविधियाँ करने के लिए नियुक्त करना. यह तेजी से लोकप्रिय हो रहा है, खासकर कोविड-19 महामारी और कर्मचारियों को कम करने या अपने व्यवसाय को अधिक कुशल बनाने की आवश्यकता के कारण. प्रदर्शन में पटना, बेगूसराय, लखीसराय, बिहारशरीफ, वैशाली, कटिहार, दरभंगा, मुंगेर सहित 119 नगर निकायों के कर्मचारी शामिल हुए. लेकिन क्या सरकार इस बार उनकी आवाज़ सुनेगी? हर बार ये सड़कों पर आते हैं, हर बार इन्हें आश्वासन मिलता है, लेकिन कुछ नहीं बदलता! यह दर्द हर मजदूर के चेहरे पर साफ दिखता है.  

यह सिर्फ एक आंदोलन नहीं, एक हक़ की लड़ाई है  

नगर निकायों के दैनिक मजदूरों की मांगें कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं हैं, यह मानवीय अधिकारों से जुड़ा सवाल है. अगर ये मज़दूर एक दिन काम करना बंद कर दें, तो पूरा शहर कचड़े और गंदगी से भर जाएगा. फिर भी सरकार उनकी मेहनत की कोई कीमत नहीं समझती. सरकार को चाहिए कि वह मजदूरों की मांगों को गंभीरता से ले, उनकी पेंशन, वेतन और स्थायी नौकरी की समस्या का समाधान करे.   

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