बिहार 'टिकुली कला' के माध्यम से महिलाएं बन रहीं सशक्त

अशोक कुमार बिस्वास ने 8000 से ज़्यादा महिलाओं को टिकुली कला के साथ ड्राइंग का प्रशिक्षण दिया है. साथ ही घर पर रहने वाली कम पढ़ी-लिखी महिलाओं को प्रशिक्षण देकर आर्थिक तौर पर मजबूती देने का काम कर रहे हैं.

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राज्य पुरस्कार 'टिकुली कला' की कलाकार

दानापुर की रहने वाली पूजा कुमारी राज्य पुरस्कार से सम्मानित टिकुली कला की कलाकार है. इन्होंने बिहार के प्रसिद्ध टिकुली कला कलाकार अशोक कुमार बिस्वास से इसका प्रशिक्षण लिया है. टिकुली कला से जुड़ने के अपने सफ़र को साझा करते हुए पूजा बताती हैं, “मैं दसवीं कक्षा के समय ही टिकुली कला से जुड़ गयीं थी. मेरी एक दोस्त अशोक बिस्वास सर के यहां टिकुली कला सिखने जाती थी. वो एक दिन मेरे पास आकर बोली दसवी के बाद घर पर क्या करोगी? उस समय मैं कंप्यूटर सीख रही थी लेकिन फिर भी टिकुली कला सिखने चली गयी.”

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टिकुली कला से जुड़ने के बाद पूजा आर्थिक तौर पर भी सशक्त हुई हैं. पूजा कहती हैं “दसवीं कक्षा के बाद मैंने अपनी पढ़ाई के लिए घर से कोई आर्थिक मदद नहीं लिया. मैंने अपने ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई अपने पैसे से पूरी की है. इसके साथ ही मैंने अपनी छोटी बहन को भी पढ़ने में मदद किया है. शुरूआती समय में मुझे महीने में तीन से चार हज़ार रूपए हो जाते थें.”

शुरुआत के दो साल नियमित रूप से टिकुली कला का प्रशिक्षण लेने के बाद पूजा आज दूसरी महिलाओं को भी प्रशिक्षण दे रही हैं. पूजा कुमारी अपने घर पर ट्रेनिंग सेंटर चलाती हैं जहां 15 से 20 लड़कियां प्रशिक्षण और रोजगार के लिए आती हैं.

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टिकुली कला (Bihar Tikuli Art) पूजा के वैवाहिक जीवन के शुरुआत में भी मददगार बना है. इसकी कहानी बताते हुए पूजा कहती हैं “मेरी शादी की कहानी भी मेरे कला से ही जुड़ा है. मेरे ससुराल वाले मुझे देखने घर आये. लेकिन वो पेंटिंग देखकर ही प्रभावित हो गये. हालांकि शादी के बाद कुछ समय तक मेरा काम छूट गया था. उस वक्त मैं स्केचिंग सीख रही थी. फिर मेरे ससुराल वालों ने मुझे वापस ट्रेनिंग के लिए भेजा और मैं आज यहां तक पहुंच सकी हूं.

दीघा रामजीचक की रहने वाली खुशबू कुमारी भी राज्य पुरस्कार से सम्मानित टिकुली कला कलाकार हैं. अभी के समय खुशबू उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान में प्रशिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं. डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए खुशबू बताती हैं “शुरुआत में जब मैं पेंटिंग करती थी पापा मना करते थे. वे कहते थे जीतना पेंटिंग को समय देती हो, उतना अगर पढाई में दोगी तो नौकरी मिल जाएगी. फिर भी मैं छुपकर रात में पेंटिंग करती थी. स्किल इंडिया प्रतियोगिता में जब मुझे टिकुली कला के लिए पुरस्कार मिला तो घर बाहर सबका नजरिया बदल गया. आज मुझे राज्य पुरस्कार समेत ढ़ेरो पुरस्कार मिल चुके हैं.”

गुम होती ‘टिकुली कला’ को रखा है जीवित

पूजा और खुशबू की सफ़लता की शुरुआत में जिस एक व्यक्ति की भागीदारी समान रही हैं वो हैं अशोक कुमार बिस्वास. अशोक कुमार बिस्वास बिहार में टिकुली कला को जीवित रखने के लिए काफ़ी मेहनत कर रहे हैं. पूजा समेत हज़ारों लड़कियों और महिलाओं को टिकुली कला का प्रशिक्षण देने वाले अशोक कुमार बिस्वास बिहार के रोहतास जिले के रहने वाले हैं. अभी वे बिस्वास के पटना के भीखना पहाड़ी में रहते हैं. अपने घर समेत पटना के 15 अलग-अलग जगहों पर ‘सोना क्राफ्ट’ के नाम से ट्रेनिंग सेंटर चलाते हैं.

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टिकुली कला से जुड़ने की अपनी यात्रा की शुरुआत को बताते हुए अशोक कुमार कहते हैं “1973 में उपेन्द्र महारथी संस्थान से टिकुली कला का ट्रेनिंग लेकर मैं अपने गांव रोहतास चला आया. यहां आकर मैंने आसपास के लोगों को इस कला का प्रशिक्षण देना शुरू किया. इसतरह कुछ ही समय में 15 से 20 लोगों का समूह बन गया. उस वक्त हमारा काम देखकर मुझे उपेन्द्र महारथी संस्थान से आर्डर मिलने लगा. हमारा काम को और ज़्यादा प्रसिद्धी तब मिली खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने हाथों से टिकुली कला का चयन एशियाड खेलों में दिए जाने वाले स्मृति चिन्ह के रूप में किया.”

साल 1982 में हुए एशियाड खेलों में भाग लेने वाले सभी 5,000 एथलीटों को आधिकारिक स्मृति चिन्ह के रूप में बिहार के टिकुली कला की कलाकृतियां उपहार में दी गयी थी. हालांकि 1984 के बाद राजनीतिक कारणों की वजह से सरकार की तरफ से कलाकारों को दी जाने वाली सहायता बंद कर दी गयीं. जिसके कारण टिकुली कला से जुड़े लोग काम छोड़कर चले गये और यह कला डाईंग आर्ट (मृत कला) की श्रेणी में आ गया.

बिस्वास कहते हैं “सरकारी मदद नहीं मिलने के कारण लोग काम छोड़कर चले गये लेकिन मेरा लगाव था तो मैं लगा रहा. उस समय मैं दीघा ट्रेनिंग दे रहा था जहां मिनिस्ट्री ऑफ टेक्सटाइल के कुछ लोग मिले जिन्होंने मुझे टिकुली कला को करते देखा. उनलोगों ने मुझे मिनिस्ट्री ऑफ टेक्सटाइल के कमिश्नर से मिलवाया. उन्होंने मुझे प्लेटफार्म दिया. दिल्ली हाट, राज महोत्सव, आईआईटी जैसी जगहों पर मुझे बुलाया जाने लगा. 1996 में मैंने, अपनी पहली प्रदर्शनी लगाई जिसे बहुत सफ़लता मिली.”

बिहार सरकार के तरफ से अबतक टिकुली कला के लिए नौ लोगों को राज्य पुरस्कार मिल चुका  हैं और ये सभी लोग अशोक कुमार बिस्वास द्वारा प्रशिक्षित हैं. टिकुली कला में महारथ के कारण बिस्वास अबतक चार बार विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. बिस्वास बताते हैं “MSME का सपोर्ट हमेशा मुझे मिला. मुझे भारत सरकार की ओर से 2009 में भूटान, 2010 में स्पेन, साउथ कोरिया और मारीशस भेजा गया है.”

कैसे जुड़ा ‘टिकुली’ नाम इस कला से

टिकुली कला का इतिहास मुग़ल काल से जुड़ा हुआ हैं. मुग़ल काल में इस कला को खूब प्रोत्साहन दिया गया था. उस काल में महिलाएं अपने ललाट (माथे) के मध्य में सुनहरा गोलनुमा गहना पहनती थी, जिसे टिकुली कहा जाता था. उस काल में टिकुली का निर्माण कांच को पिघलाकर किया जाता था. जिसे सोने की पत्तियों और रंगों से सजाया जाता था.

कुमार बिस्वास टिकुली कला का इतिहास बताते हुए कहते हैं “टिकुली कला का इतिहास 2500 सौ साल पुराना है. मौर्य काल में महिलाएं इसका इस्तेमाल श्रृंगार के लिए करती थीं. हालांकि धीरे-धीरे 28वीं सदीं में इसमें बदलाव आया और टिकुली कला से जुड़े कारीगर अब टिकुली के उपर पेंटिंग बनाना शुरू कर दिए.”

बिस्वास टिकुली कला में आये बदलाव के बारे में बताते हैं, “टिकुली बनाने के काम से जुड़े कारीगरों को जब इसमें नुकसान होने लगा तो उन्होंने इसका तोड़ निकाला. उन्होंने छोटे टिकुली को बड़े आकार में बनाकर उस पर कलाकारी करना शुरू किया. इसका स्वरुप बदल गया लेकिन इसका डिमांड बाजार में बढ़ गया. चूंकि टिकुली बनाने वाले कारीगर ही इस कला को बना रहे थे इसलिए इस कला का नाम टिकुली कला पड़ गया.”

उपेन्द्र महारथी ने दुबारा किया जीवित टिकुली कला को जीवित करने का श्रेय उपेन्द्र महारथी को दिया जाता है. 1950 में प्रसिद्ध कलाकार उपेंद्र महारथी ने इसे पुनर्जीवित करने का पहल किया था. साल 1981 में उनके निधन के बाद, अशोक कुमार विश्वास ने हज़ारों लोगों को इसका प्रशिक्षण देकर इसको आजतक जीवित रखा हैं.

अशोक कुमार बिस्वास बताते हैं “पटना में संस्थान बनाने के बाद उपेन्द्र महारथी ज़ी टिकुली कला को आगे बढ़ाने के लिए प्रशिक्षक के तलाश में थे. मौर्य काल में पटना सिटी में रहने वाले हिन्दू-मुस्लिम कारीगर इस काम को करते थे. तभी उन्हें पटना सिटी में रहने वाले लाल बाबु गुप्ता की जानकारी मिली, जो उसी परिवार से थे जो मौर्य काल में टिकुली बनाते थे. उन्होंने लाल बाबू गुप्ता को उपेन्द्र महारथी संस्थान में नियुक्त किया जिनसे मैंने टिकुली कला का प्रशिक्षण लिया है.”

उपेन्द्र महारथी के प्रयासों को बताते हुए कुमार आगे कहते हैं “उपेंद्र महारथी ज़ी 1955 में जापान गये थे. वहां उन्होंने लकड़ी पर इनेमल पेंट से की गई कलाकृतियों को देखा था. वहां से वे एक नए विचार के साथ पटना वापस आए और लाल बाबू गुप्ता को सिखाया की कैसे लकड़ी के बोर्ड का प्रयोग कांच के जगह किया जा सकता है.”

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टिकुली कला बनाने के लिए उपयोग किये जाने वाले बेस के बदलाव के बारे में बिस्वास बताते हैं “इसके बेस में तीन चरण में बदलाव हुआ है. पहले चरण में कांच के शीट पर सोने की परत चढ़ाकर कारीगरी होती थी. दुसरे चरण में कांच के बोर्ड पर इनेमल पेंट चढ़ाकर उसपर कारीगरी होती थी और तीसरे चरण में लकड़ी और हार्डबोर्ड आया. अभी एमडीएफ का प्रयोग ज़्यादा किया जा रहा है.”

मधुबनी कला से प्रभावित लेकिन उससे अलग- अशोक कुमार बिस्वास

मधुबनी कला की तरह टिकुली कला में भी राधा कृष्ण, शादी-विवाह की कलाकृतियां और फूल पत्तियां बनाई जाती हैं. बिस्वास कहते हैं मधुबनी कला से प्रभावित होने के कारण उसकी छवि इसमें भी झलकती है लेकिन जब आप दोनों कलाकृतियों को सामने रखकर देखेंगे तो उसका अंतर आपको समझ में आएगा. टिकुली कला ख़ासकर ‘पटना कलम’ से प्रभावित है. पटना कलम पेंटिंग मुग़ल काल में शुरू हुआ था जो अंग्रेजो के समय भी चला लेकिन 1949 में ख़त्म हो गया. टिकुली कला में बनाई जाने वाली पेंटिंग में बारीकियां ज़्यादा होती हैं.”

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बिस्वास कहते हैं हम अपनी पेंटिंग के माध्यम से पूरी दुनियां में अपने रीती-रिवाज, धर्म, रहन–सहन को पहुंचाना चाहते हैं.

महिलाएं कला के क्षेत्र में आगे

महिलाओं के कला के क्षेत्र में आगे रहने का कारण बिस्वास उनके धैर्य और सहनशीलता को देते हैं. उनका कहना है कि कला समय मांगती हैं जो पुरुष देना नहीं चाहते हैं, वे कम समय में काम पूराकर ज़्यादा मुनाफ़ा चाहते हैं. लेकिन महिलाएं घर परिवार को देखते हुए बचे हुए समय को कला को आगे बढ़ाने के लिए आसानी से दे पाती हैं.

बिस्वास कहते हैं “पुरुष शुरुआत से ही करियर और आमदनी के पीछे रहे हैं. लेकिन महिलाओं का झुकाव कला के तरफ ज़्यादा रहा है. मौर्य काल में भी मुस्लिम समुदाय के पुरुष कारीगर कांच पिघलाने का जबकि हिन्दू पुरुष कारीगर सोने की परत चढ़ाने का काम करते थे. यहां उनका काम खत्म हो जाता था. उस समय भी टिकुली के ऊपर कारीगरी का काम हिन्दू महिलाएं ही करती थी."

आज के समय में बिस्वास ने 8000 से ज़्यादा महिलाओं को टिकुली कला के साथ ड्राइंग का प्रशिक्षण दिया है. साथ ही घर पर रहने वाली कम पढ़ी-लिखी महिलाओं को प्रशिक्षण देकर आर्थिक तौर पर मजबूती देने का काम कर रहे हैं.

बिस्वास कहते है “किसी को रोजगार देना मन  को संतुष्टि देता है. जब मैं महिलाओं को उनके मेहनत का पैसा देता हूं तो उनके चेहरे पर जो खुशी होती है वह बहुत बड़ी है.”

अशोक कुमार बिस्वास को 2007-08 में राज्य पुरस्कार और 2008-09 में राष्ट्रीय कला श्री अवार्ड से भी सम्मानित किया गया है.

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