आज कहने को तो हमारा समाज काफ़ी विकसित हो चुका है. यहां हर समस्या का समाधान चुटकियों में निकल जाता है. लेकिन समस्या का समाधान तब निकाला जाता है जब हम किसी समस्या को असल में समस्या समझे. पीरियड्स महिलाओं के लिए किसी समस्या से कम नहीं है, लेकिन यह समस्या तब और विकट हो जाती है जब इस मुद्दे पर घर या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर बात ही नहीं की जाए.
कोलकाता के भवानीपुर एजुकेशन सोसाइटी कॉलेज में पढने वाली मेधा सिंह 21 साल की हैं और कहती हैं
मैं इस मामले में लकी (भाग्यशाली) हूं. मेरे घर का माहौल इस मामले में बहुत खुले विचारों वाला है. यहां मुझे अपने भाई, पापा या चाचा से इसे छुपाने के लिए नहीं सोचना पड़ता. लेकिन मेरी कितनी दोस्त इस चीज़ को लेकर काफ़ी परेशान रहती हैं. उनके घर में पीरियड्स पर आपस में बात ही नहीं होती है. यहां तक की वो दोस्तों में भी इस पर बात नहीं करना चाहती हैं.
मेधा आगे कहती हैं
इसी धारणा को तोड़ने के लिए मैंने ‘छुपाओ नहीं बोलो’ कैम्पेन शुरू किया है. इसके तहत हर महीने जब मेरा पीरियड्स आता है तब मैं इससे संबंधित कोई पोस्ट या वीडियो अपने फ़ेसबुक और वाट्सएप स्टेटस पर लगाती हूं. मेरे ख़ुद के कुछ रिश्तेदार इस तरह पोस्ट करने पर मुझे बेशर्म भी कहते हैं. लेकिन मैं ऐसा इसलिए कर रही हूं, ताकि कम से कम मेरे रिश्तेदार और मेरे दोस्त के माता-पिता अपनी बच्चियों से बात करें और उनका उन दिनों में सपोर्ट करें.
आज बाजार में कई ब्रांड्स के सेनेटरी पैड्स उपलब्ध हैं. लेकिन आज भी यह पैड्स इतने महंगे हैं जिन्हें निम्न आय वर्ग की महिलाएं या ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं और बच्चियों के लिए ख़रीद पाना संभव नहीं है. मजबूरी में उन्हें कपड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है. लेकिन सामाजिक लोक-लाज के भय से उन कपड़ों की भी साफ़-सफ़ाई रख पाना उनके लिए संभव नहीं है.
NFHS-5 के सर्वे के अनुसार बिहार में केवल 59.2 फ़ीसदी महिलाएं ही माहवारी के दौरान साफ़-सफ़ाई का ध्यान रख पाती हैं. जो की पूरे देश में सबसे कम है. बिहार में 67 फ़ीसदी महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल करती हैं और 41 फ़ीसदी महिलाएं स्वच्छ तरीकों का इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं. वहीं देश में 15 से 24 साल के उम्र की 50 फ़ीसदी लड़कियां या महिलाएं अभी भी माहवारी के दौरान कपड़े का ही इस्तेमाल करती हैं.
पटना के कमला नेहरू नगर बस्ती में रहने वाली लगभग 20 वर्षीय रचना कुमारी बताती हैं
हमारे घर की आमदनी इतनी नहीं है कि हर महीने हम पैड्स ख़रीद सकें. मजबूरी में हमें कपड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है. कपड़े के इस्तेमाल से कई तरह की बीमारियां होने का ख़तरा रहता है लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं.
समाज में रह रहे निम्न आयवर्ग की इन बच्चियों और महिलाओं को हो रही इस परेशानी को दूर करने के लिए ही पटना नगर निगम द्वारा ‘बात से बनेगी बात’ कार्यक्रम की शुरुआत की गयी थी. इस कार्यक्रम के तहत पटना नगर निगम के द्वारा पटना के प्रत्येक बस्ती में महिलाओं और बच्चियों को माहवारी के दिनों में बरती जाने वाली सावधानी, कपड़े के जगह पर सैनिटरी पैड्स का इस्तेमाल और उसके निस्तारण के उचित तरीकों के बारे में जागरूक करने का प्रयास किया जाता है. वर्कशॉप के बाद महिलाओं के बीच मुफ़्त सैनिटरी पैड्स बांटने की भी योजना इसमें रखी गयी है.
लेकिन यह कार्यक्रम इन बस्तियों में कितना सफ़ल है और इसकी असलियत इन बस्तियों में क्या है?
पटना के कमला नेहरू नगर बस्ती में रहने वाली 40 वर्षीया मालती देवी कहती हैं
हमारे बस्ती में नगर निगम के द्वारा कोई कार्यक्रम नहीं चलाया गया है. और ना ही कभी हमें मुफ़्त में पैड मिला है. गरीब लोग हैं एक दिन में 300 रुपया कमाते है. कभी-कभी दो-दो दिन इतना पैसा में ही काम चलाना पड़ता है. अब आप ही बताइए 50 रूपया जो पैड खरीदने में लगायेंगे उतने में घर में कुछ खाने का सामान आ जाएगा.
बस्ती में रह रही अन्य महिलाओं का भी कहना है कि उन्हें कभी मुफ़्त में सैनिटरी पैड नगर निगम के द्वारा नहीं दिया गया है.
लगभग 50 वर्षीय उषा देवी बताती हैं
हमलोग भी जानते हैं, माहवारी में गंदा कपड़ा इस्तेमाल करने से बीमारी होता है. इसलिए जितना संभव होता है कोशिश करते हैं कि अपनी बेटी को पैड लाकर दें. हमलोग तो आज तक कपड़ा ही इस्तेमाल करते आए हैं. लेकिन जो परेशानी हमलोग झेले हैं, नहीं चाहते की मेरी बेटी भी झेले.
क्या कारण है कि ‘बात से बनेगी बात योजना’ बस्ती में संचालित नहीं हो रही है? इसपर पटना म्युनिसिपल कमिश्नर अमरेश पराशर कहते हैं
यह योजना बहुत पहले कमला नेहरू नगर बस्ती में भी चलाया गया था. निगम यह कार्यक्रम यूएन एजेंसी और एनजीओ की मदद से चला रही है. इसकी नियमितता के लिए हम समुदाय से बात कर टिकाऊ समाधान निकालने का प्रयास कर रहे हैं.
वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के द्वारा माहवारी के दिनों में स्कूल से बच्चियों का ड्रॉपआउट रोकने के उद्देश्य से ‘मुख्यमंत्री किशोरी स्वास्थ्य योजना’ का शुरुआत किया गया था. इस योजना का आरंभ साल 2015 में हुआ था. योजना के अंतर्गत कक्षा 8 से 10 की छात्राओं को सैनिटरी पैड खरीदने के लिए साल में 300 रूपए दिए जाते हैं. योजना की शुरुआत में 150 रूपए दिए जाते थे जिसे बढ़ाकर अब 300 रूपए कर दिया गया है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार सरकारी स्कूल में पढने वाली 40 लाख छात्राओं को इस योजना का लाभ मिल रहा है.
लेकिन इस योजना की कलई समय-समय पर खुलती रही है. अभी हाल ही में ‘सशक्त बेटी समृद्ध बिहार’ कार्यक्रम में जब एक छात्रा ने मुफ्त सैनिटरी पैड की मांग की. जिसपर कार्यक्रम में पहुंची महिला विकास निगम की एमडी हरजोत कौर द्वारा स्कूली बच्चियों को दिया गया जवाब शर्मनाक था. उन्हें बच्चियों को बताना चाहिए था कि सालाना उन्हें स्कूल में पैड्स खरीदने के लिए पैसे दिए जाते हैं. और यदि उन्हें पैसे नहीं मिल रहे हैं तो संबंधित विभाग और अधिकारी को इसके लिए फटकार लगानी थी. लेकिन एमडी ने ऐसा करने के बजाए छात्रा को ही सब कुछ मुफ़्त में लेने की सोच वाली ठहरा दिया.
दूसरा कारण यह भी हो सकता हो की खुद एमडी को ही इस योजना के बारे में जानकारी ना हो. जब अधिकारी ही योजना के बारे नहीं जानेंगे तो बच्चियों को क्या जागरूक करेंगे. वहीं सवाल पूछने वाली छात्रा को भी इस योजना के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और उसका कहना था कि उसे और बाकि अन्य छात्राओं को कभी पैड्स के लिए पैसे नहीं मिले हैं. दरअसल, यह योजना भी भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार बिहार में उच्च प्राथमिक स्तर यानी मध्य विद्यालय के 38.8% बच्चे पढ़ाई छोड़ दे रहे हैं, जिसमें लड़कियां 37.3% हैं. लड़कियों के स्कूल छोड़ने के कारणों की पड़ताल करें तो शौचालय और सैनिटरी पैड्स एक बड़ा कारण है.
वहीं केंद्र सरकार द्वारा राज्यों में खोले गए जनऔषधि केन्द्रों पर भी सस्ते दर पर सैनिटरी पैड मुहैया कराया जाता है. 2021-22 के आंकड़ों के अनुसार देश में मौजूद 8600 से ज़्यादा जनऔषधि केंद्र से इस समय एक रूपए में सैनिटरी पैड्स दिए जा रहे हैं. इन केन्द्रों पर मिलने वाले नैपकिन ऑक्सो-बायोडिग्रेडेबल होते हैं. इसके अलावा केंद्र सरकार द्वारा जुलाई 2022 में लोकसभा में दी गई जानकारी के अनुसार राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत आशा कार्यकर्ता के ज़रिये भी 6 रूपए में सैनेटरी पैड्स का पैकेट दिया जा रहा है.
वहीं जनऔषधि दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री ने एक रुपए में सैनिटरी नैपकिन योजना की सफलता का उल्लेख भी किया और कहा कि 21 करोड़ सैनिटरी नैपकिन की बिक्री दर्शाता है कि जन औषधि केंद्रों ने देश में महिलाओं के जीवन को भी आसान बनाया है.
लेकिन यह आंकड़े बिहार में आकर कमज़ोर हो जाते हैं. यहां ज़्यादातर महिलाओं को इस बात की जानकारी भी नहीं है कि जनऔषधि केंद्र पर सस्ते दर पर पैड्स मिलते हैं. सैनिटरी पैड्स के आविष्कार के सालों बाद भी इसकी पहुंच निम्न तबके की महिलाओं तक नहीं हुई है.