मिनिमम सपोर्ट प्राइस यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य। आखिर यह क्या होता है जिसे लेकर किसानों और सरकार के बीच अक्सर तनातनी बनी रहती है? यह सरकार की तरफ से किसानों की अनाज वाली कुछ फसलों के दाम की गारंटी होती है। राशन सिस्टम के तहत जरूरतमंद लोगों को अनाज मुहैया कराने के लिए इस एमएसपी पर सरकार किसानों से उनकी फसल खरीदती है। बाजार में उस फसल का रेट भले ही कितने ही कम क्यों न हो, सरकार उसे तय एमएसपी पर ही खरीदेगी। इसका लाभ यह होता है कि किसानों को अपनी फसल की एक तय कीमत के बारे में पता चल जाता है कि उसकी फसल के दाम कितने चल रहे हैं। हालांकि मंडी में उसी फसल के दाम ऊपर या नीचे हो सकते हैं। रबी और खरीफ की कुछ फसलें एमएसपी में शामिल हैं। सरकार द्वारा यह भी वादा किया गया था कि दलहन भी एमएसपी में शामिल होंगे लेकिन वादा तो वादा ही रहा।
सासाराम के किसान स्यंदन सुमन कहते हैं,
अगर दलहन को एमएसपी में शामिल कर दिया जाता तो इससे दलहन का रकबा बढ़ जाता और लोग अपने इलाके में दलहन की फसलों पर ही जोर लगाते। इससे फसल चक्र भी पूरा हो जाता।

एमएसपी की वजह से गेंहू की गिनती नकद फसल के रूप में होती है। लेकिन दलहन के साथ ऐसा नहीं हो पाता। रबी के मौसम में ज्यादातर दलहन की फसल होती है। बक्सर, भोजपुर के इलाके में मकई की खेती बड़े पैमाने पर होती थी। इस इलाके में कभी चना की खेती बड़े पैमाने पर होती थी। एमएसपी नहीं होने के कारण इसकी खेती बंद हो गई। इसमें सरकारी उदासीनता भी रही।
सुमन बताते हैं कि अगर दलहन फसल होती हो यूरिया देने की जरूरत कम होती। आज गेंहू का खरीददार मिल जाता है। चना, मसूर का भी बेहतर रेट मिल जाता है लेकिन उदासीनता ही है कि दलहन में रहर की खेती खत्म ही हो गई है।

जिले के ही एक विक्रमगंज के नटवार के किसान विजय प्रताप सिंह कहते हैं,
दलहन का रेट अन्य फसलों की तुलना में काफी कम है। यह एक तरफ से घाटे का सौदा है। सरकार एमएसपी तय करे और इसका रेट कम से कम नौ हजार रूपये प्रति क्विंटल रखे तो इससे किसानों को काफी लाभ हो सकता है। नहीं तो जैसे जैसे रहर की खेती खत्म हो गई, वैसा ही असर अन्य फसलों पर पड़ सकता है।
एमएसपी में दलहन शामिल नहीं हैं तो इसका एक हानि यह है कि दलहन का दाम नीचे है। आढतियों के जाने पर रेट आसमान पर जाता है। जो स्टोरेज कर लेता है उसको लाभ मिल जाता है। अगर दलहन पर एमएसपी हो जाता तो मार्केट उपर हो जाता और बिचौलियों की पकड़ भी कम हो जाती।
किसानों की हित के लिए काम करने वाले किसान नेता अशोक प्रसाद सिंह कहते हैं, एमएसपी का निधार्रण सही नहीं है। हमारी मांग यह है कि CITU (सेंट्रल इंडियन ट्रेड यूनियन) के आधार पर लागत का डेढ़ गुणा हो। आजकल बाजार में ठगने के लिए ऊंचा दाम लगा दिया जाता है। एक साल बेहतर दाम मिल जाते हैं और अगले चार-पांच साल तक दाम कम कर दिया जाता है। सरकार को यह भी तो सोचना चाहिए कि हर साल यूरिया, डीजल के दाम में वृद्धि हो रही है। किसानों पर इसका भी तो असर पडता है। हर चीज के दाम बढ रहे हैं। उसके संदर्भ में ही तो दलहन की दाम का निर्धारण होना चाहिए।

अशोक कहते हैं, अभी जो एमएसपी है उसे लाभकारी नहीं कह सकते हैं। अभी जो एमएसपी है वह पिछली लागत पर है। वह कहते हैं, अन्य फसलों समेत दलहन की फसलों पर स्वामीनाथन कमीशन के तहत निर्धारण की जरूरत है। सब चीज की लागत पर एमएसपी तय होनी चाहिए। अगर प्राइवेट सेक्टर ज्यादा दाम दे तो ठीक, नहीं तो सरकार उन फसलों को खरीदे। वह कहते हैं, दरअसल एमएसपी संतुलन बनाए रखने में मददगार साबित होता है। कभी –कभी तो एमएसपी से बाजार में कंट्रोल बनाए रखने में मदद मिलती है। एमएसपी नहीं होगा तो रेट मनमाना होगा। जिससे किसानों को ही हानि होगी।
एक तरफ जहां दलहन को एमएमपी में शामिल करने की कवायद व मांग की बात हो रही है वहीं केरल देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है जो सब्जियों पर एमएसपी देता है। केरल में यह व्यवस्था पिछले साल एक नवंबर से लागू की गई। इसके तहत सब्जियों का यह न्यूनतम या आधार मूल्य उत्पादन लागत से बीस प्रतिशत ज्यादा होगा। केरल सरकार द्वारा एमएसपी के दायरे में फिलहाल 16 प्रकार की सब्जियों को लाया गया है।
सुधीर कुमार राय सासाराम के जिला कृषि पदाधिकारी हैं। डेमोक्रेटिक चरखा से बात करते हुए सुधीर कुमार बताते हैं:-

अगर दलहन पर एमएसपी होता तो इससे किसानों की उपज का उचित मूल्य मिलता। किसानों का हितैषी होने के नाते यह कहा जा सकता है कि दलहन तेलहन पर एमएसपी होता तो बेहतर होता।
ज्ञात हो कि किसानों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार ने भी दलहन को पहली बार एमएसपी पर खरीदने का निर्णय लिया था। पिछले साल फरवरी माह में ही यह बात सामने आई थी कि नीतीश सरकार के इस प्रस्ताव पर केंद्र सरकार ने अपनी सहमति जता दी थी। इस प्रस्ताव के तहत प्रदेश के किसानों को अपनी दलहनी फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर राज्य सरकार को बेचने का रास्ता बन जाता। इसके लिए एक प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया था। सरकारी आंकड़े के अनुसार बिहार में करीब चार से पांच लाख टन दलहनी फसलों का उत्पादन होता है। कोसी क्षेत्र में बाढ़ का पानी उतरने के बाद सहरसा, सुपौल, मधेपुरा समेत कई जिलों में हजारों एकड़ जमीन बेकार रह जाती है। अगर प्रस्ताव पर सहमति बन जाती है तो इस इलाकों के किसानों को विशेष लाभ प्राप्त हो सकता है।