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रोज़ी-रोटी पर ब्रेक और सपनों की सवारी पर रोक: ऑटो चालकों और अभिभावकों की दोहरी मार
01 अप्रैल से पटना में लागू हुए स्कूली ऑटो और ई-रिक्शा पर प्रतिबंध ने शहर की रफ्तार को थाम दिया है. यह फैसला प्रशासन ने बच्चों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए लिया है, पर इसके दूरगामी प्रभाव ने ना सिर्फ हज़ारों ऑटो चालकों की ज़िंदगी को प्रभावित किया है, बल्कि अभिभावकों को भी गहरी परेशानी में डाल दिया है.
गांधी मैदान के पास एक स्कूल के बाहर सीमा खातून जैसे कई अभिभावक अपने बच्चों को लेने के लिए दोपहर की तपती धूप में खड़े मिलते हैं. सीमा कहती हैं, "पहले ऑटो वाले भैया बच्चे को घर छोड़ जाते थे, अब खुद आना पड़ेगा. काम छोड़ना पड़ता है, वक्त नहीं मिलता और बच्चों को संभालना भी मुश्किल हो रहा है."
ये समस्या सिर्फ़ सीमा की नहीं है. पटना और उसके आसपास के ग्रामीण इलाकों में करीब 4000 ऑटो और ई-रिक्शा स्कूली बच्चों को लाने-ले जाने का काम करते थे. इन वाहनों के जरिए बच्चे सुरक्षित और समय पर स्कूल पहुंचते थे. अब इस सेवा पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई है. नतीजतन, कई घरों में रोज़मर्रा की ज़िंदगी अस्त-व्यस्त हो गई है.
ऑटो चालकों के सामने रोज़ी-रोटी का संकट
दूसरी ओर, ऑटो चालकों के सामने रोज़ी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है. ऑटो मेंस यूनियन के महासचिव अजय कुमार पटेल ने इसे गरीब विरोधी नीति बताया है. उनका कहना है, “हमारे बच्चे भी इन्हीं पैसों से स्कूल जाते हैं, घर का राशन आता है. अब सरकार कह रही है कि हम बच्चों को स्कूल न ले जाएं. तो क्या हम भूखों मरें?”
राजकुमार झा, जो ऑल इंडिया रोड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स फेडरेशन के महासचिव हैं, उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर यह निर्णय वापस नहीं लिया गया तो सभी जिलों में हड़ताल की जाएगी. 14 अप्रैल को इस विषय पर सभी जिलाध्यक्षों की बैठक बुलाई गई है. प्रशासन का पक्ष है कि बच्चों की सुरक्षा सर्वोपरि है. ट्रैफिक एसपी और डीटीओ ने इस आदेश को सख्ती से लागू करने की बात कही है. लेकिन सवाल ये है कि क्या कोई फैसला लेने से पहले उसके सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिए था?
संजय जो की ऑटो चालक हैं वो बताते हैं कि “ स्कूल के बच्चों को लाने-ले जाने से उन्हें एक स्थायी आय मिलती थी. इसी आय से वे गाड़ी की किस्त भरते थे, मरम्मत कराते थे और अपने घर का खर्च चलाते थे. कई चालकों ने एडवांस में अभिभावकों से पैसा भी लिया था, जिसे वे अब ख़र्च कर चुके हैं. अब अगर वे बच्चों को स्कूल नहीं ले जाते, तो अभिभावक अपनी रकम वापस मांगेंगे, जिसे लौटाना उनके लिए संभव नहीं है.”
सरकार ने एक हफ़्ते की मोहलत दी
सरकार ने एक हफ़्ते की मोहलत दी है, ताकि चालक वैकल्पिक व्यवस्था कर सकें. पर सच्चाई ये है कि इतने कम वक्त में कोई भी चालक न तो नई कमाई का साधन ढूंढ सकता है और न ही स्कूलों के पास नई व्यवस्था बन पाना आसान है.पिछले दिनों गर्दनीबाग में 5 हजार ऑटो चालकों का प्रदर्शन इस बात का प्रतीक है कि यह सिर्फ़ एक फैसला नहीं है, यह हज़ारों घरों के चूल्हे बुझाने जैसा है. ऑटो यूनियन की मांगें साफ़ हैं – निर्णय को वापस लिया जाए, वाहन कागजात दुरुस्त करने का समय दिया जाए, कलर कोडिंग लागू करने से पहले चार्जिंग की सुविधा दी जाए और सबसे अहम – उन्हें काम करने दिया जाए.
विकास भी ऑटो चालक हैं और स्कूल में सेवा देते हैं. वो बताते हैं कि“देखिए मेरा पूरा घर इसपर निर्भर है. अब अचानक से सरकार का ये निर्णय काफ़ी परेशान कर देना वाला है. यहां गाड़ियों की कमी नहीं है. अब अगर स्कूल के लिए गाड़ी नहीं चलाई तो आमदनी कम हो जाएगी. मेरे घर में भी बच्चे हैं जो स्कूल जाते हैं ऐसे में उनकी शिक्षा पर गहरा प्रभाव पड़ेगा”
इस पूरी स्थिति में ज़रूरत है संवेदनशीलता की. बच्चों की सुरक्षा ज़रूरी है, लेकिन उनके अभिभावकों की रोज़मर्रा की जद्दोजहद को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. प्रशासन को चाहिए कि वह ऑटो चालकों के लिए गाइडलाइन्स बनाए, सुरक्षा मानकों का पालन करवाए, लेकिन उनकी आजीविका पर एकतरफा रोक लगाकर पूरे समुदाय को संकट में न डाले.
एक सेंट्रल डेटाबेस की आवशकता है
इस विषय पर गंभीरता से सोचते और समाधान बताते हुए स्वतंत्र पत्रकार विष्णुकांत बताते हैं कि "सबसे पहले तो सरकार सभी स्कूली ऑटो और ई-रिक्शा को पंजीकृत करे. एक सेंट्रल डेटाबेस हो जिसमें ऑटो का नंबर, चालक की पहचान, पुलिस वेरिफिकेशन और वाहन की स्थिति दर्ज हो.बच्चों को ले जाने वाले वाहनों में GPS और CCTV लगाने की अनुमति के साथ मान्यता दी जाए.एक गाइडलाइन जारी की जाए जिसमें ऑटो में बैठने की अधिकतम सीमा हो.बच्चों के लिए सीट बेल्ट या अन्य सुरक्षा उपाय अनिवार्य किए जाएं और प्रशासन को चाहिए कि वो तत्काल प्रतिबंध लगाने की बजाय एक संक्रमणकालीन अवधि दे, जैसे 3 से 6 महीने.इस दौरान वे अपने दस्तावेज़, फिटनेस और सुरक्षा मानकों को पूरा कर सकें.”
आज अगर सीमा खातून जैसे मां-बाप और रमेश जैसे ऑटो चालक दोनों परेशान हैं, तो कहीं न कहीं सिस्टम को उनके बीच पुल बनाने की ज़रूरत है, दीवार खड़ी करने की नहीं. बात सिर्फ एक ऑटो की नहीं है, ये एक पूरी पीढ़ी की परवरिश और एक वर्ग की ज़िंदगी की लड़ाई है.