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टनकुप्पा, गया जिले का एक छोटा-सा कस्बा, जो मगध डिवीजन के अंतर्गत आता है. यह कस्बा एक ऐसी समस्या से जूझ रहा है, जिसने इसकी प्रगति और यहां के लोगों के जीवन को बाधित कर दिया है. टनकुप्पा रेलवे स्टेशन के पास आरओबी (रेलवे ओवर ब्रिज) का निर्माण न होना इस क्षेत्र की सबसे बड़ी त्रासदी बन चुकी है. तीन दशक से अधिक समय से यहां के लोग इस पुल के निर्माण की मांग कर रहे हैं, लेकिन अब तक यह केवल कागज़ों और आश्वासनों तक सीमित है.
एक दशक पुरानी मांग और अधूरे वादे
टनकुप्पा के निवासी पिछले 30 वर्षों से रेलवे ओवर ब्रिज के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इस मांग को लेकर यहां के लोगों ने प्रखंड मुख्यालय से लेकर दिल्ली के संसद भवन तक प्रदर्शन किया. रेलवे संघर्ष समिति के नेतृत्व में सभी 10 पंचायतों के हज़ारों ग्रामीणों ने हस्ताक्षरित आवेदन रेल मंत्रालय को भेजा. पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार समेत कई सांसदों और विधायकों से भी गुहार लगाई गई, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा.
ग्रामीणों का जीवन जोखिम में
आरओबी के अभाव में टनकुप्पा और आसपास के दर्जनों गांवों की लगभग एक लाख की आबादी रोज़ाना जान जोख़िम में डालकर रेलवे ट्रैक पार करने को मजबूर हैं. इन पटरियों पर चलने वाली तेज़ रफ्तार ट्रेनों के बीच से गुज़रना मानो मौत के मुंह में कदम रखने जैसा है. कई बार लोग हादसों के शिकार हो चुके हैं. जब हमने उन लोगों का पता लगाया जिनकी मौत रेलवे ट्रैक क्रॉस करने के दौरान हुई तो हमने उनसे बात करने की कोशिश की.
मानस कुमार के रिश्तेदार की मौत रेल्वे ट्रैक क्रॉस करने दौरान हुई. उन्होंने बताया कि “पूरा कार्यालय, थाना सब उधर है और 5 किलोमीटर की दूरी के लिए उन्हें 35 किलोमीटर जाना पड़ता है इसीलिए उन्होंने रेलवे ट्रैक क्रॉस किया और उसी दौरान हुई दुर्घटना में उनकी मौत हो गई. और ऐसी सिर्फ़ एक घटनाएं नहीं हैं ऐसी कई सारी घटनाएं सिर्फ़ आरओबी ना होने के कारण हुई है. इतने सारे घटनाओं के बाद भी आज तक किसी तरह का संज्ञान नहीं लिया गया है.”
विकास का रुका हुआ पहिया
टनकुप्पा की स्थिति ऐसी है कि यहां के अधिकांश सरकारी कार्यालय, थाना, और अन्य सुविधाएं रेलवे लाइन के दूसरी तरफ स्थित हैं. बहसापीपरा, जगरनाथपुर, भेटौरा, बरसौना, और दीबर जैसे गांवों की आधी आबादी रेलवे लाइन के इस पार है. आरओबी न होने के कारण इन गांवों के लोगों को 35 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है, जो कि महज़ 5 किलोमीटर में पूरी हो सकती है. यह न केवल समय और धन की बर्बादी है, बल्कि सरकारी विकास योजनाओं को भी ठप्प कर रही है.
सरकार की अनदेखी और जनप्रतिनिधियों की लापरवाही
टनकुप्पा के ग्रामीणों का आक्रोश इस कदर बढ़ चुका है कि उन्होंने आगामी विधानसभा चुनाव में वोट न देने की धमकी दे दी है. उनका कहना है कि जब नेताओं और सरकार को उनकी जिंदगी की परवाह नहीं है, तो वे भी उन्हें अपना वोट क्यों दें. जितेंद्र मांझी जो टनकुप्पा के रहने वाले हैं वो बताते हैं कि “जब से हम पैदा हुए हैं तबसे स्टेशन का यही हाल है. हमें जब भी काम करवाना होता है तो हमें 35 किलोमीटर का सफ़र तय करना पड़ता है लेकिन अगर आरओबी होता तो ये सफ़र मात्र 5 किलोमीटर का होता. ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जहां रेलवे ट्रैक क्रॉस करते वक्त लोगों की जान गई है.”
ग्रामीणों का कहना है कि जनप्रतिनिधि केवल चुनाव के समय बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के बाद उनकी समस्याओं को भूल जाते हैं.
धरना-प्रदर्शन और हताशा
टनकुप्पा के लोग आरओबी की मांग को लेकर अनगिनत बार धरना और प्रदर्शन कर चुके हैं. उन्होंने रेल मंत्रालय से लेकर राज्य सरकार तक अपनी आवाज उठाई, लेकिन उनकी बातों को हमेशा अनसुना किया गया. टनकुप्पा के राजन राम बताते हैं कि “हमने कई बार रेलवे अधिकारियों से बात की है लेकिन आज तक कोई समाधान नहीं निकला है. हम कब तक अपनी जान जोख़िम में डाल कर कार्यालय जाएंगे. हमेशा से हमलोगों की बातों को नहीं सुना गया है. इतने प्रदर्शन और धरने के बावजूद आज तक कुछ नहीं हुआ है इसीलिए इस बार हम वोट का बहिष्कार करेंगे.”
एक आरओबी का महत्व
टनकुप्पा के लिए आरओबी केवल एक पुल नहीं है, यह उनके जीवन को सरल और सुरक्षित बनाने का एक साधन है. यह ब्रिज सरकारी दफ्तरों, स्कूलों, अस्पतालों और बाजारों तक पहुंचने का एक माध्यम बन सकता है. यह उन परिवारों के लिए एक राहत बन सकता है, जिन्होंने अपने प्रियजनों को रेलवे हादसों में खो दिया है. यह विकास और प्रगति का प्रतीक बन सकता है, जिससे टनकुप्पा और आसपास के गांवों की तस्वीर बदल सकती है.
समाधान कब मिलेगा?
टनकुप्पा के लोग अब सरकार और रेलवे अधिकारियों से आश्वासनों के बजाय ठोस कार्रवाई की मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि अगर समय रहते उनकी समस्या का समाधान नहीं किया गया, तो वे अपने आंदोलन को और तेज करेंगे. यह केवल टनकुप्पा के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए एक सबक हो सकता है कि बुनियादी सुविधाओं की अनदेखी किस तरह से लाखों लोगों की जिंदगी को प्रभावित कर सकती है.
जब हमने गया पूर्व मध्य रेलवे के अधिकारियों के बात करने की कोशिश की तो हमारी उनसे बात नहीं हो सकी. लेकिन हम लगातार कोशिश करेंगे की इस समस्या का जल्द से जल्द समाधान हो सके.
टनकुप्पा के लोगों का दर्द केवल उनका व्यक्तिगत संघर्ष नहीं है, बल्कि यह एक सामूहिक आवाज है, जो यह पूछती है कि आखिर कब तक विकास की बुनियादी जरूरतों को अनदेखा किया जाएगा? यह सवाल केवल टनकुप्पा के लिए नहीं, बल्कि उन सभी कस्बों और गांवों के लिए है, जो आज भी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जीने को मजबूर हैं.
टनकुप्पा के लिए आरओबी का निर्माण अब समय की मांग है. यह केवल एक पुल नहीं, बल्कि उस इलाके की जिंदगी को नई दिशा देने वाला एक जरिया है. सवाल यह है कि क्या सरकार और रेलवे विभाग इस आवाज को सुनेंगे, या टनकुप्पा के लोग इसी संघर्ष और इंतजार में अपना जीवन बिताने को मजबूर रहेंगे?