बिहार में पशु चिकित्सा: समस्याएं, सरकारी प्रयास और जमीनी हकीकत

बिहार में पशुओं की संख्या के हिसाब से करीब 6,000 पशु अस्पताल होने चाहिए, लेकिन सरकारी आंकड़ों के अनुसार, यहाँ मात्र 1,137 पशु अस्पताल हैं, जो जरूरत से पाँच गुना कम हैं किसान आयोग की सिफारिश के अनुसार, हर 5,000 पशुओं पर एक पशु अस्पताल होना चाहिए,

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नाजिश महताब
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बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है, जहां  खेती के साथ-साथ पशुपालन भी लाखों लोगों की आजीविका का मुख्य साधन है. यहां के पशुपालकों के घरों में गाय, भैंस, बकरी जैसे पशु परिवार का हिस्सा माने जाते हैं. दूध उत्पादन से लेकर खेती में मदद तक, ये पशु ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं. लेकिन जब इन्हीं पशुओं की तबीयत खराब होती है, तो पशुपालकों को गहरी चिंता और संघर्ष का सामना करना पड़ता है. राज्य में पशु चिकित्सा की व्यवस्था इतनी कमजोर है कि एक ओर पशुपालक अपनी आजीविका बचाने के लिए संघर्ष करते हैं, वहीं दूसरी ओर बीमार पशु इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं.

पटना में रहने वाले शाहिद बताते हैं, "एक बार मेरी बिल्ली की तबीयत ख़राब हुई, तो मैं उसे पशु अस्पताल ले गया. इलाज के दौरान मैंने देखा कि यहाँ व्यवस्थाओं की काफी कमी है ही ढंग का उपकरण था और ही पर्याप्त सुविधाएँ. अस्पताल में दवाएँ भी उपलब्ध नहीं थीं. हमें अस्पताल के ठीक सामने की दुकान से दवा खरीदनी पड़ी."

पशु चिकित्सा की बदहाल स्थिति

बिहार में पशुओं की संख्या के हिसाब से करीब 6,000 पशु अस्पताल होने चाहिए, लेकिन सरकारी आंकड़ों के अनुसार, यहाँ मात्र 1,137 पशु अस्पताल हैं, जो जरूरत से पाँच गुना कम हैं. किसान आयोग की सिफारिश के अनुसार, हर 5,000 पशुओं पर एक पशु अस्पताल होना चाहिए, जबकि वर्तमान स्थिति यह है कि औसतन 26,385 पशुओं पर एक अस्पताल उपलब्ध है.

पशु अस्पतालों में चिकित्सकों की भारी कमी है. राज्य में पशु चिकित्सकों के 2,052 पद स्वीकृत हैं, लेकिन कार्यरत चिकित्सकों की संख्या केवल 1,150 है. यानी करीब 35-40% पद खाली हैं. 2017 में 500 पशु चिकित्सकों की नियुक्ति हुई थी, और हाल ही में 624 पशु चिकित्सकों की बहाली के लिए रिक्ति भेजी गई है. लेकिन प्रक्रिया इतनी धीमी है कि जब तक बहाली पूरी होगी, तब तक कई चिकित्सक सेवानिवृत्त हो चुके होंगे.

गाँवों में पशुओं के इलाज की कठिनाइयाँ

लखीसराय, जो कि दूध उत्पादन के लिए पूरे राज्य में प्रसिद्ध है, वहाँ के पशुपालकों की स्थिति अत्यंत दयनीय है. 2021 के आंकड़ों के अनुसार, जिले में कुल 15 पशु अस्पताल हैं, जिनमें से 14 में डॉक्टर तो तैनात कर दिए गए हैं, लेकिन संसाधनों की भारी कमी है. दवा उपलब्ध नहीं है, जिससे पशुपालकों को मजबूरी में महंगी दवाएँ बाज़ार से खरीदनी पड़ती हैं.

पशु चिकित्सालयों की हालत ऐसी है कि कहीं डॉक्टर उपलब्ध नहीं हैं, तो कहीं बैठने तक की जगह नहीं है. पतनेर के पशु चिकित्सक डॉ. धनंजय कुमार बताते हैं कि उनके "अस्पताल को अपना भवन तक नहीं मिला है. यहां  तक कि लखीसराय जिला पशुपालन कार्यालय में भी पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं, जिससे प्रशासनिक कामकाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा है."

सुपौल के मरौना प्रखंड की स्थिति और भी खराब है. यहाँ 2022 में छह महीने तक अस्पताल में एक भी दवा उपलब्ध नहीं थी. पशुपालक प्रमोद यादव बताते हैं, "अस्पताल जाने पर केवल दवा की पर्ची थमा दी जाती है, और बाज़ार से दवा खरीदने पर हमारी जेबें खाली हो जाती हैं. पशुओं का इलाज सही से होने के कारण कई मवेशी बीमार होकर मर जाते हैं."

2020 के आंकड़ों के अनुसार, छपरा जिले में कुल 43 पशु अस्पताल हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश बंद पड़े रहते हैं. जिला पशु अस्पताल में मात्र दो चिकित्सक कार्यरत हैं, और सुविधा के अभाव में पशुपालक अस्पताल जाने के बजाय मोबाइल से तस्वीर खींचकर डॉक्टर को दिखाकर दवा ले जाते हैं.

राज्य में पशुधन की स्थिति

2012 की तुलना में 2017 (2019 में जारी रिपोर्ट) की पशुगणना के अनुसार, बिहार में पशुधन में 10.67% की वृद्धि हुई है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह वृद्धि केवल 4.63% रही. खासकर गायों की संख्या 25% बढ़ी है, और भैंसों की संख्या में भी 2% की वृद्धि दर्ज की गई है.

लेकिन घोड़े, गधे, सूअर और भेड़ों की संख्या में भारी गिरावट आई है. 2012 में बिहार में 49,000 घोड़े थे, जो अब घटकर मात्र 32,000 रह गए हैं. इसी तरह, गधों की संख्या 21,000 से घटकर 11,000 रह गई है. यह पशुपालन क्षेत्र में असंतुलन को दर्शाता है. राज्य में वर्तमान में 1 करोड़ 53 लाख गायें, 77 लाख भैंसें, 1.28 करोड़ बकरियाँ और 2 लाख 38 हजार भेड़ें हैं. लेकिन जब इन पशुओं को चिकित्सा की जरूरत होती है, तो उन्हें वह सुविधा नहीं मिल पाती.

गया के पंचानपुर के अमन बताते हैं, "हमारे क्षेत्र के लोग पशुपालन पर ज़्यादा निर्भर हैं और ऐसे में बीमारी के समय पशुओं का ठीक से इलाज नहीं हो पाता. तो दवाइयों की सुविधा है और ही अच्छे डॉक्टर उपलब्ध हैं. ऐसे में लोगों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है."

सरकार की पहल और उसकी चुनौतियाँ

सितंबर 2024 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पशुपालकों को राहत देने के लिए एक नई योजना की शुरुआत की. इसके तहत, राज्य के सभी 534 प्रखंडों में मोबाइल पशु चिकित्सा इकाइयाँ और कॉल सेंटर की व्यवस्था की गई है. इन मोबाइल इकाइयों में पशु चिकित्सा, लघु सर्जरी, टीकाकरण, कृत्रिम गर्भाधान, गर्भ जांच जैसी सेवाएँ दी जा रही हैं. पशुपालक टोल-फ्री नंबर 1962 पर कॉल करके इस सुविधा का लाभ उठा सकते हैं.

हालाँकि, इस योजना को लागू करने में कई चुनौतियाँ हैं. कई इलाकों में इन मोबाइल इकाइयों की पहुँच अभी भी कमजोर है. साथ ही, इन इकाइयों में काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या भी सीमित है. जब तक अस्पतालों में स्थायी डॉक्टर और पर्याप्त दवाएँ नहीं होंगी, तब तक इस समस्या का पूरी तरह समाधान संभव नहीं है.

पशुपालकों की उम्मीदें और सरकार की जिम्मेदारी

पशुपालकों को सरकार से सिर्फ़ इतना चाहिए कि उनके पशुओं को समय पर इलाज मिल सके. अगर इंसानों के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार किया जा सकता है, तो पशुओं के लिए क्यों नहीं? पशु अस्पतालों में डॉक्टरों की संख्या बढ़ाई जाए, दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए और ग्रामीण इलाकों में पशु चिकित्सा सेवाओं को मजबूत किया जाए सरकार ने मोबाइल पशु चिकित्सा इकाइयों की पहल तो की है, लेकिन इसकी निगरानी भी जरूरी है ताकि यह केवल कागजों तक सीमित रह जाए. साथ ही, पशु चिकित्सकों की नियुक्ति की प्रक्रिया में तेजी लाने की जरूरत है, ताकि रिक्त पड़े पद जल्द से जल्द भरे जा सकें.बिहार में पशुपालन तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन पशु चिकित्सा सुविधाओं की कमी ने इसे एक गंभीर संकट में डाल दिया है. अगर सरकार पशुपालकों को सशक्त बनाना चाहती है, तो उसे पशु चिकित्सा व्यवस्था में सुधार करना ही होगा. जब तक पशुपालकों को उनके पशुओं के इलाज की उचित सुविधा नहीं मिलेगी, तब तक बिहार में पशुपालन की असली ताकत सामने नहीं पाएगी.

 

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