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कुत्ता के काटने के मामलों में 200 गुना से अधिक बढ़ोतरी
बिहार सरकार ने बिहार आर्थिक सर्वेक्षण (2023-24) में कुत्ते के काटने को राज्य में सबसे प्रचलित बीमारी के रूप में पहचाना है. रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2022-23 में कुल 2,07,181 लोग कुत्ते के काटने के शिकार हुए, जबकि साल 2021-22 में कुल संख्या सिर्फ 9,809 थी.
बिहार के आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 की रिपोर्ट में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए थे. यह कुत्तों के काटने पर रेबीज से संबंधित तथ्य हैं. इसमें देखने को मिला है कि बिहार में पिछले वर्ष 2022-23 की तुलना में 2023-24 में कुत्ता के काटने के मामलों में 200 गुना से अधिक बढ़ोतरी हुई है.
आवारा कुत्तों का आतंक
राजधानी पटना इन दिनों एक अजीब और दर्दनाक संकट से जूझ रही है.सड़कों पर घूमते आवारा कुत्ते अब सिर्फ दृश्य प्रदूषण नहीं रहे, बल्कि सीधे लोगों की ज़िंदगियों को निगलने लगे हैं। हर दिन, हर मोहल्ले से ऐसी खबरें सामने आ रही हैं कि कुत्तों ने किसी को काट लिया, किसी बच्चे को नोच लिया, किसी बुज़ुर्ग पर हमला कर दिया. लेकिन इन सब खबरों के बीच एक मासूम बच्ची की चीख ने पूरे शहर को झकझोर कर रख दिया है — रचना, एक पांच वर्षीय नन्हीं बच्ची, जिसकी मासूमियत को आवारा कुत्तों की हैवानियत ने नोच डाला.
स्कूल का पहला दिन... जो कभी आ नहीं सका
मंगलवार यानी 20 मई का दिन रचना के लिए खास था। वह पहली बार स्कूल जाने वाली थी. आंखों में सपने थे, मन में उत्साह। मां चंचल देवी ने उसे प्यार से समझाया था, "पैसा लेकर आएंगे तो यूनिफॉर्म खरीदेंगे, फिर स्कूल जाना. " रचना पूरे दिन स्कूल जाने की तैयारी में लगी रही, शायद मन ही मन क्लासरूम, ब्लैकबोर्ड और नई किताबों की कल्पना कर रही थी। लेकिन किसे पता था कि यह सपना, एक भयानक दुःस्वप्न में बदल जाएगा.
दोपहर डेढ़ बजे का समय था. रचना अपने घर के बाहर खेल रही थी, जब एक आवारा कुत्ता अचानक उस पर झपट पड़ा. वह बच्ची को ज़मीन पर गिराकर उसके गाल को नोचने लगा. रचना की चीखें पूरे मोहल्ले में गूंज उठीं। पड़ोसियों ने दौड़कर किसी तरह कुत्ते को भगाया और तुरंत उसे न्यू गार्डिनर रोड अस्पताल पहुंचाया गया. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. रचना का गाल बुरी तरह से फट चुका था, मांस बाहर निकल आया था. और वह बार-बार बेहोश हो रही थी। डॉक्टरों ने हालत गंभीर बताई और उसे पीएमसीएच रेफर कर दिया.
चेहरा पहले जैसा नहीं होगा
पीएमसीएच के बच्चा वार्ड में डॉक्टरों ने तुरंत सर्जरी कर टांके लगाए। लेकिन एक सच्चाई को मां-बाप को बताना मुश्किल था "बच्ची का गाल तो भर जाएगा, पर चेहरा पहले जैसा नहीं हो सकेगा। इसके लिए प्लास्टिक सर्जरी करनी होगी."
ये शब्द किसी भी मां-बाप के लिए वज्रपात से कम नहीं थे. रचना की मां चंचल देवी चायपत्ती बनाने का काम करती हैं और पिता लकड़ी के कारीगर हैं. घर में पहले से ही तीन छोटे बच्चे और हैं. ऐसे में प्लास्टिक सर्जरी जैसे महंगे इलाज का खर्च उठाना उनके लिए असंभव सा है. चंचल देवी की आंखों में आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे. वह बार-बार कहती हैं, "बेटी का चेहरा भले ही वापस न आए, पर उसका दर्द नहीं देखा जा रहा."
1250 लोग हर महीने हो रहे हैं शिकार
यह कोई एक घटना नहीं है. सिविल सर्जन डॉ. अविनाश कुमार सिंह की मानें तो राजधानी में हर महीने औसतन 1250 से ज्यादा लोग कुत्तों के काटने के बाद एंटी-रेबीज इंजेक्शन लगवा रहे हैं. यह संख्या बताती है कि यह संकट किस हद तक फैल चुका है. खासकर शहरी इलाकों में ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। इसके पीछे का मुख्य कारण है. कुत्तों की नसबंदी का लगभग बंद हो जाना.
बिहार के आरा में 22 मई को एक दिल दहला देने वाली घटना घटी, जहां एक आवारा कुत्ते ने दो भाईयों पर हमला कर दिया. इस हमले में 6 वर्षीय मासूम बच्चे की मौत हो गई, जबकि उसका छोटा भाई गंभीर रूप से घायल हो गया। दोनों बच्चे अपने घर के पास खेल रहे थे जब यह घटना घटी. स्थानीय लोगों ने घायल बच्चे को तुरंत अस्पताल पहुंचाया, लेकिन बड़े बच्चे की जान नहीं बचाई जा सकी. इस घटना ने एक बार फिर आवारा कुत्तों के आतंक और उनके नियंत्रण की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित किया है.
पटना में आवारा कुत्तों का आतंक जारी है. सोमवार को शक्ति नगर में एक युवक और चार बच्चों पर कुत्तों ने हमला कर दिया, जिससे सभी गंभीर रूप से घायल हो गए. इनमें अंकुश कुमारी, वैष्णवी कुमारी, रचना कुमारी और सन्नी कुमार शामिल हैं. सभी को इलाज के लिए अस्पताल भेजा गया है.
पिछले डेढ़ साल से नगर निगम द्वारा कुत्तों की नसबंदी का अभियान लगभग बंद पड़ा है. इस कारण आवारा कुत्तों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है। डॉ. नौशाद बताते हैं कि “कुत्तों में आक्रामकता हार्मोनल बदलाव और पर्यावरणीय परिस्थितियों की वजह से बढ़ती है. यदि नसबंदी सही समय पर की जाए, तो न केवल इनकी संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है, बल्कि उनकी आक्रामकता को भी कम किया जा सकता है.”
प्रशासन कब जागेगा?
रचना का परिवार ही नहीं, पूरा मोहल्ला डरा हुआ है. हर गली, हर नुक्कड़ पर झुंड बनाकर घूमते ये कुत्ते अब लोगों की नींद भी छीन चुके हैं। रात भर ये भौंकते रहते हैं, एक-दूसरे से लड़ते हैं,और कई बार घर के दरवाजों तक पहुंच जाते हैं. छोटे बच्चों को बाहर निकालना अब जोखिम भरा हो गया है.
यह सवाल अब हर नागरिक के मन में है. आखिर नगर निगम कब जागेगा? कब फिर से नसबंदी अभियान शुरू होगा? कब इन कुत्तों को पकड़कर शहर को सुरक्षित बनाया जाएगा? कितनी और रचनाएं बर्बाद होंगी? कितने और परिवार रोएंगे?
इस विषय पर हमने पटना नगर निगम से बात करने की कोशिश की तो हमारी उनसे बात नहीं हो पाई पर हम लगातार कोशिश करेंगे की इस समस्या का जल्द से जल्द निदान हो।
सरकार और प्रशासन को समझना होगा कि यह सिर्फ़ जानवरों की समस्या नहीं है, यह अब आम नागरिकों की सुरक्षा से जुड़ा गंभीर मुद्दा बन चुका है. पशु अधिकारों के नाम पर अगर इंसानी जानों को खतरे में डाला जा रहा है, तो यह न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि निंदनीय भी.
बिहार में कुत्तों के काटने की घटनाओं में 200 गुना से अधिक बढ़ोतरी सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि एक गहरी होती सामाजिक और प्रशासनिक लापरवाही का संकेत है. मासूम रचना जैसी घटनाएं हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या इंसानी जानों की कोई कीमत बची है? नसबंदी अभियान ठप पड़ जाना, आवारा कुत्तों की अनियंत्रित संख्या, और रेबीज के बढ़ते मामले मिलकर एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट का रूप ले चुके हैं. सरकार और नगर निगम की निष्क्रियता ने स्थिति को और भयावह बना दिया है. अब समय आ गया है कि इस संकट को केवल 'पशु कल्याण' के नजरिए से नहीं, बल्कि 'नागरिक सुरक्षा' के सवाल के रूप में देखा जाए.वरना हर मोहल्ले में एक नई रचना, एक नया दर्द जन्म लेता रहेगा.