बिहार में मासिक धर्म स्वच्छता की चुनौतियाँ: सरकारी योजनाएँ नाकाफी

बीते 24 जनवरी 2025 को राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया गया, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि हर लड़की को सशक्त, आत्मनिर्भर और निपुण महिला बनने के समान अवसर मिलें। राष्ट्रीय बालिका दिवस 2025 की थीम 'बेहतर भविष्य के लिए लड़कियों को प्रेरित करना' है।

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नाजिश महताब
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बिहार, भारत का वह पहला राज्य था जिसने 1990 के दशक में मासिक धर्म अवकाश जैसी प्रगतिशील पहल को लागू कर महिलाओं के स्वास्थ्य और अधिकारों की दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाया। लेकिन इतने वर्षों बाद भी, जब मासिक धर्म स्वच्छता की बात आती है, तो राज्य कई महत्वपूर्ण पहलुओं में पीछे है। मासिक धर्म से जुड़ी स्वच्छता और जागरूकता जैसे मुद्दों को आज भी समाज में सामान्य जीवन का हिस्सा नहीं माना जाता। इस दिशा में बिहार में हाल के वर्षों में प्रयास तो किए गए हैं, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि राज्य को इस मुद्दे पर लंबा सफर तय करना बाकी है।

मासिक धर्म स्वच्छता: एक जरूरी पहल

बिहार में महिलाओं के बीच मासिक धर्म स्वच्छता को लेकर चिंताजनक स्थिति बनी हुई है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार, 15 से 24 आयु वर्ग की मात्र 64.4 प्रतिशत महिलाएं ही माहवारी के दौरान सैनिटरी पैड का उपयोग करती हैं। यह आंकड़ा न केवल मासिक धर्म स्वच्छता के प्रति जागरूकता की कमी को दर्शाता है, बल्कि इस बात की ओर भी इशारा करता है कि राज्य की महिलाओं के पास स्वच्छता उत्पादों तक पहुंच सीमित है।

पटना के सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली 11वीं की छात्रा खुशी (बदला हुआ नाम) बताती हैं, "सैनिटरी पैड खरीदने के लिए सरकार द्वारा जो पैसे दिए जाते हैं, उसका लाभ मुझे नहीं मिलता है। वहीं, सरकार द्वारा सालाना 200-300 रुपये से क्या ही होगा? स्कूल में सैनिटरी वेंडिंग मशीन तो लग गई है, लेकिन वह ख़राब हो चुकी है।"

इस समस्या को हल करने के लिए कई योजनाएं बनाई गई हैं। मुख्यमंत्री किशोरी स्वास्थ्य योजना के तहत राज्य सरकार आठवीं से दसवीं कक्षा की छात्राओं को सालाना 150 रुपये सैनिटरी नैपकिन खरीदने के लिए प्रदान करती है। हालांकि, यह राशि अपर्याप्त है और अधिकांश छात्राओं तक पहुंच भी नहीं बना पाती। 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार, किशोरी स्वास्थ्य योजना का लाभ केवल 60.5 प्रतिशत छात्राओं तक ही पहुंच पाया, जबकि 40 प्रतिशत छात्राएं इस योजना से वंचित रह गईं।

शिक्षा और मासिक धर्म स्वच्छता

महिलाओं और किशोरियों को शिक्षित करना मासिक धर्म स्वच्छता में सुधार का सबसे प्रभावी तरीका है। एक चौंकाने वाली रिपोर्ट के अनुसार, हर साल 2.3 करोड़ लड़कियां सैनिटरी पैड्स की अनुपलब्धता और माहवारी से जुड़ी समस्याओं के कारण स्कूल छोड़ देती हैं। इस स्थिति में, शिक्षा के माध्यम से जागरूकता फैलाना अत्यंत आवश्यक है।

खुशी आगे बताती हैं, "स्कूल में अगर आपातकालीन स्थिति बनती है तो शिक्षक सहयोग नहीं करते और हमें घर जाना पड़ता है, जिससे 3-4 दिनों की छुट्टी हो जाती है और हमारी पढ़ाई रुक जाती है। स्कूल में सब अजीब नज़रों से देखते हैं। 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा बस नारा बनकर रह गया है। आज, जब देश टेक्नोलॉजी पर काम कर रहा है, तब हमें आज भी सैनिटरी पैड छुप-छुप कर लेना पड़ता है और इस पर कोई खुलकर बात करने से भी डरता है।"

बिहार में कोरोना महामारी से पहले स्कूलों में सैनिटरी पैड्स वितरण की व्यवस्था शुरू की गई थी, लेकिन महामारी के दौरान यह पहल ठप हो गई। अब, स्कूल फिर से खुलने के बाद, इस योजना को दोबारा शुरू किया गया है। स्कूलों में महिला शिक्षक छात्राओं को यह समझाने का प्रयास कर रही हैं कि माहवारी के दौरान स्वच्छता बनाए रखना क्यों जरूरी है। शिक्षक यह भी सलाह दे रही हैं कि कपड़े के बजाय पैड्स का उपयोग करें, ताकि संक्रमण और बीमारियों से बचा जा सके।

बजट और सरकारी प्रयास

बिहार सरकार द्वारा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण के लिए राज्य के कुल बजट का केवल 7 प्रतिशत आवंटित किया जाता है, जिसमें से महज 2 करोड़ रुपये मासिक धर्म स्वच्छता योजनाओं के लिए समर्पित हैं। यह रकम न केवल अपर्याप्त है, बल्कि मासिक धर्म स्वच्छता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे के प्रति सरकार की प्राथमिकता की कमी को भी उजागर करती है।

हालांकि, "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" योजना के तहत गया जिले में 24 से 31 जनवरी तक लड़कियों को माहवारी के दौरान सुरक्षा और स्वच्छता के महत्व पर जागरूक करने के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इसके अलावा, 8 मार्च तक जागरूकता बढ़ाने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा। लेकिन इन कार्यक्रमों से क्या होगा जब छात्राओं को बुनियादी सुविधा ही नहीं मिलती?

गया के नेपा के सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली 10वीं की छात्रा बताती हैं, "हम आज भी कपड़े का इस्तेमाल करते हैं। हमारे स्कूल में सैनिटरी पैड वेंडिंग मशीन तो दूर, इस पर शिक्षक या कोई भी बात करने से डरता है। हम जानते हैं कि इससे बीमारियां हो सकती हैं, लेकिन आर्थिक स्थिति ख़राब होने के कारण हम सैनिटरी पैड नहीं खरीद पाते। हम सोचते हैं कि स्कूल में तो मिल जाएगा, लेकिन स्कूल में भी नहीं मिलता।"

मासिक धर्म और सामाजिक दृष्टिकोण

मासिक धर्म से जुड़ी स्वच्छता को लेकर बिहार में सामाजिक दृष्टिकोण भी बड़ी चुनौती है। मासिक धर्म के बारे में बात करना आज भी कई जगहों पर वर्जित माना जाता है। इस मुद्दे पर जागरूकता लाने के लिए "मेकिंग मेंस्ट्रुएशन अ नॉर्मल फैक्ट ऑफ लाइफ बाय 2030" थीम चुनी गई थी। यह थीम इस बात पर जोर देती है कि माहवारी हर महिला के जीवन का एक सामान्य हिस्सा है और इसे समाज में सामान्य रूप से स्वीकार किए जाने की जरूरत है।

बिहार में मासिक धर्म स्वच्छता को लेकर चुनौतियां गंभीर हैं, लेकिन इन्हें सुधारने की उम्मीदें भी उतनी ही प्रबल हैं। यदि सरकार और समाज मिलकर ठोस कदम उठाएं, तो आने वाले वर्षों में स्थिति में सकारात्मक बदलाव देखा जा सकता है।

मासिक धर्म किसी भी महिला के जीवन का सामान्य और स्वाभाविक हिस्सा है। इसे शर्म और चुप्पी के घेरे से बाहर निकालकर एक सामान्य जीवन का हिस्सा बनाना हम सबकी जिम्मेदारी है। यदि हम इस दिशा में ठोस कदम उठाएं, तो 2030 तक "मेकिंग मेंस्ट्रुएशन अ नॉर्मल फैक्ट ऑफ लाइफ" के लक्ष्य को अवश्य प्राप्त किया जा सकता है।